केंटारो टोयामा
भारत में हम उन स्कूलों को प्रगतिशील मानते हैं, जहाँ शिक्षा में तकनीक का इस्तेमाल होता है. मसलन कम्प्यूटर और सूचना प्रौद्योगिकी का. ऊँची फीस वाले स्कूल ऊँची तकनीक के इस्तेमाल का दावा करते हैं। ई-मेल, लैपटॉप और स्मार्टफोन से लैस छात्र प्रगतिशील माने जाते हैं। कम्प्यूटर साइंटिस्ट केटारो टोयामा तकनीक और विकास के रिश्तों पर रिसर्च करते हैं. वे तकनीक के महत्व को स्वीकार करते हैं, पर मानते हैं कि तकनीक ही साध्य नहीं है, केवल साधन है। इस लिहाज से बोस्टन रिव्यू फोरम में प्रकाशित उनका लेख क्या तकनीक गरीबी दूर कर सकती है? पठनीय है. आशुतोष उपाध्याय उनका एक और लेख खोजकर लाए हैं, जो शिक्षा के बाबत उनके विचारों का प्रतिपादन करता है.
भारत में हम उन स्कूलों को प्रगतिशील मानते हैं, जहाँ शिक्षा में तकनीक का इस्तेमाल होता है. मसलन कम्प्यूटर और सूचना प्रौद्योगिकी का. ऊँची फीस वाले स्कूल ऊँची तकनीक के इस्तेमाल का दावा करते हैं। ई-मेल, लैपटॉप और स्मार्टफोन से लैस छात्र प्रगतिशील माने जाते हैं। कम्प्यूटर साइंटिस्ट केटारो टोयामा तकनीक और विकास के रिश्तों पर रिसर्च करते हैं. वे तकनीक के महत्व को स्वीकार करते हैं, पर मानते हैं कि तकनीक ही साध्य नहीं है, केवल साधन है। इस लिहाज से बोस्टन रिव्यू फोरम में प्रकाशित उनका लेख क्या तकनीक गरीबी दूर कर सकती है? पठनीय है. आशुतोष उपाध्याय उनका एक और लेख खोजकर लाए हैं, जो शिक्षा के बाबत उनके विचारों का प्रतिपादन करता है.
सन 2013 के बसंत में मैंने एक महीने तक अपनी सुबहें लेकसाइड स्कूल में बिताईं. यह सिआटल का एक प्राइवेट स्कूल है जहां प्रशांत उत्तरपश्चिम में रहने वाले भद्रलोक के बच्चे पढ़ते हैं. लाल ईंटों से बना स्कूल का आलीशान परिसर किसी आईवी लीग कॉलेज जैसा भव्य दिखाई देता है और इसकी फीस भी उन्हीं जैसी है. इस स्कूल में गिल गेट्स ने पढ़ा है और यहां अमेजन और माइक्रोसॉफ्ट के अफसरों के बच्चे पढ़ने आते हैं. जाहिर है स्कूल में टेक्नोलॉजी की कोई कमी नहीं: शिक्षक स्कूल के इन्टरनेट पर एसाइनमेंट्स पोस्ट करते हैं; ई-मेल से कक्षाओं को निर्देश देते हैं; और हर बच्चा लैपटॉप (अनिवार्यतः) और स्मार्टफोन (अनिवार्य नहीं) लेकर स्कूल पहुंचता है.
इस पसमंजर में इनके माता-पिता क्या रुख रहता है, जब वे सोचते हैं कि उनके बच्चों को थोड़ी और खुराक की जरूरत है? मैं यहां एक वैकल्पिक शिक्षक के तौर पर गया था और मुझे कई स्तर के बच्चों की मदद करनी थी. इनमें से कुछ कैलकुलस ऑनर्स करना चाहते थे. ये मेहनती छात्र थे लेकिन उन्हें महज एक शाबासी देने वाले की जरूरत थी क्योंकि वे कठिन सवालों पर काम कर रहे थे. भारी शिक्षणेत्तर गतिविधियों के बोझ से दबे कुछ अन्य छात्र ज्यामिति और बीजगणित के साथ जूझ रहे थे. मैं इसके लिए आवश्यक सामग्री के चयन और उनके असाइनमेंट्स में उन्हें मदद करता था. एक अन्य समूह को किसी ख़ास मदद की जरूरत नहीं थी. उन्हें बस थोड़ा-बहुत उकसाना पड़ता था ताकि समय पर अपना होमवर्क पूरा कर लें. इतनी विविधता के बावजूद छात्रों में एक बात समान थी: उनके माता-पिता अतिरिक्त पढ़ाई के लिए खुलकर पैसा खर्च कर रहे थे.
मैंने जो कुछ पढ़ाया वह गणित की वेबसाइट्स और खान एकेडमी के फ्री वीडियोज में उपलब्ध था. इतना ही नहीं हर छात्र को पूरे वक्त इन्टरनेट सेवा मिलती थी. इतनी सारी टेक्नोलॉजी और 9:1 के शानदार शिक्षक-छात्र अनुपात के बावजूद वहां के अभिभावक चाहते थे कि उनके नौनिहालों को किसी वयस्क की ओर से थोड़े और मार्गदर्शन की जरूरत है.
लेकसाइड स्कूल के अभिभावक टेक्नोलॉजी के बजाय बड़ों के मूल्यवान मार्गदर्शन को ज्यादा महत्त्व देने के मामले में अकेले नहीं हैं. दूसरे पढ़े-लिखे पेशेवर अभिभावक भी इस बात से इत्तेफाक रखते हैं. सिलिकन वैली के अधिकारी अपने बच्चों को वालड्राफ़ स्कूल में पढ़ाते हैं. इस स्कूल में आठवीं कक्षा तक इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के उपयोग पर प्रतिबंध है. स्टीव जॉब्स ने एक बार स्वीकार किया था कि वह अपने बच्चों को आई-पैड नहीं देते' "घर पर बच्चे कितनी टेक्नोलॉजी इस्तेमाल करेंगे, हमने इसकी सीमा तय की हुई है."
ये माता-पिता टेक्नोलॉजी विरोधी नहीं हैं. बल्कि उनके काम के देखते हुए उन्हें डिजिटल धर्म का समर्पित प्रचारक कहा जा सकता है. लेकिन वे स्पष्टतः इस बात में विश्वास नहीं करते कि ज्यादा मशीनें इस्तेमाल कर लेने से शिक्षा अच्छी हो जाती है. उनकी इस समझ की पीछे आखिर राज क्या है?
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पिछला पूरा दशक मैंने दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में एजुकेशनल टेक्नोलॉजी को डिजाइन करने, समझने और पढ़ाने में बिताया. भारत के बंगलुरु शहर में मैंने एक पर्सनल कंप्यूटर (पीसी) के साथ एक से ज्यादा माउस जोड़कर छात्र की अन्योन्य क्रिया बढ़ाने सम्बंधी एक प्रयोग किया. युगांडा के ग्रामीण इलाके में जब बच्चे एक अंगुली से शिकारी की तरह टाइपिंग का गेम खेलते तो मुझे घबराहट होने लगती. सिआटल, वाशिंगटन में किशोरावस्था से कम आयु के बच्चों की कंप्यूटर साक्षरता की कक्षा में मुझे टेक्नोलॉजी से पैदा होने वाले भटकाव से जूझना पड़ा. इस सभी प्रोजेक्ट्स में मुझे इकलौता और आसान पैटर्न दिखाई दिया. मैं इसे टेक्नोलॉजी का "विस्तारण नियम" (लॉ ऑफ़ एम्प्लीफिकेशन) कहता हूं: टेक्नोलॉजी का प्राथमिक प्रभाव इंसानी ताकत के विस्तार के रूप में प्रकट होता है. इसलिए शिक्षा में टेक्नोलॉजी पहले से मौजूद शैक्षिक धारकता (पेडागॉजिकल कैपेसिटी) में इजाफा कर देती है.
विस्तारण एक स्पष्ट विचार प्रतीत होता है- यह इतना भर कहता है कि टेक्नोलॉजी के औजार से इंसानी ताकत को बढ़ाया जा सकता है. लेकिन अगर यह इतना स्पष्ट है तो इसके इतने गहन परिणाम होने चाहिए जो आम तौर पर नजरअंदाज नहीं किये जा सकते. मसलन विस्तारण के मुताबिक़ शैक्षिक टेक्नोलॉजी के बड़े पैमाने पर उपयोग के बहुत कम सकारात्मक परिणाम आये हैं. किन्हीं चुनिन्दा नमूनों को लें, कुछ स्कूल अच्छा कर रहे पाए गए तो कुछ बहुत बेकार. कुछ मामलों में कंप्यूटर शामिल करना फायदेमंद साबित हुआ (पायलट अध्ययन में जिन्हें दिखाया गया है), लेकिन कमजोर स्कूलों के मामलों में इसने उन्हें अपने मुख्य उद्देश्य से ही भटका दिया. कुल मिलाकर परिणाम शून्य ही निकला.
एक अपेक्षाकृत बड़ी समस्या यह है कि स्कूल प्रशासक शिक्षक प्रशिक्षण के लिए संसाधनों का पर्याप्त आवंटन नहीं करते. जब शिक्षक को ही नहीं पता कि डिजिटल उपकरणों को कैसे शामिल करना है तो टेक्नोलॉजी के जरिये धारकता के विस्तारण की ख़ास गुंजाइश नहीं रह जाती. जब एक प्राइवेट कंपनी मुनाफा कमाने में नाकामयाब होने लगती है तो कोई यह उम्मीद नहीं करता कि अत्याधुनिक डाटा सेंटर, ज्यादा उत्पादन दिलाने वाले सॉफ्टवेयर और सभी कर्मचारियों को नए लैपटॉप देकर परिस्थितियों को उलटा जा सकता है.
और स्कूल के बाहर जो कंप्यूटर हैं, उनका क्या? क्या होता है जब बच्चों को डिजिटल उपकरणों से सीखने के लिए खुला छोड़ दिया जाता है, जैसा कि टेक्नोलॉजी के बहुत से पैरोकार नसीहत देते हैं? यहां टेक्नोलॉजी बच्चों की प्रवृत्तियों का विस्तार करती है. यकीनन बच्चों में सीखने, खेलने और बढ़ने की स्वाभाविक इच्छा होती है. लेकिन उनमें खेलते हुए खुद को भटका देने की भी स्वाभाविक इच्छा होती है. डिजिटल टेक्नोलॉजी इन दोनों इच्छाओं को विस्तार देती है. इन दोनों का संतुलन बिंदु हर बच्चे में अलग-अलग होता है लेकिन कुल मिलाकर अगर किसी किस्म का वयस्क मार्गदर्शन न हो तो भटकने की प्रवृत्ति प्रभावी हो जाती है. ठीक ऐसे ही निष्कर्ष अर्थशास्त्री रॉबर्ट फैर्ली और जोनाथन रॉबिन्सन को अपने शोध से हासिल हुए. कैलिफोर्निया के कुछ बच्चों को लैपटॉप देकर किए गए शोध में उन्होंने पाया: जिन बच्चों को लैपटॉप दिए गए थे, श्रेणी, कक्षा-स्तरीय परीक्षा परिणाम, उपस्थिति और अनुशासन जैसे तमाम शैक्षिक मानकों पर उनके प्रदर्शन में उल्लेखनीय सुधार नहीं दिखाई दिया. हालांकि उन्होंने लैपटॉप का इस्तेमाल सोशल मिडिया और वीडियो गेम्स के लिए ज़रूर किया. यानी, अगर आप उन्हें बहु-उपयोगी टेक्नोलॉजी उपलब्ध कराते हैं, जिसका इस्तेमाल शिक्षा और मनोरंजन, दोनों के लिए किया जा सकता है, तो बच्चे मनोरंजन को ही चुनेंगे. टेक्नोलॉजी खुद बच्चों के रुझान को नहीं बदल सकती, यह उसका विस्तार भर करती है.
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यह जानना कि अमेरिकी शिक्षा को किन बीमारियों ने जकड़ा हुआ है, मुसीबतों के पिटारे को खोलने जैसा है. यह मुसीबत बचपन की गरीबी से जुड़ी हो सकती है या संसाधनों से जूझ रहे स्कूल डिस्ट्रिक्ट की. संभव है शिक्षकों के खराब वेतनमान से इसका संबंध हो या फिर प्राइवेट स्कूलों में जाने की होड़ से. सच्चाई इनमें से कई के मिले-जुले असर में भी निहित हो सकती है, मगर कंप्यूटरों की कमी में तो कतई नहीं. यहां तक कि टेक्नोलॉजी के झंडाबरदार भी नहीं कहते कि अमेरिकी शिक्षा टेक्नोलॉजी की कमी के कारण पतन की ओर जा रही है.
अमेरिका में शिक्षा के बारे में ज्यादातर विमर्श दूसरे देशों से तुलना से पैदा होता है. प्रोग्राम फॉर इंटरनेशनल स्टूडेंट एसेसमेंट (पीसा) ने 2012 के अपने नतीजों में अमेरिकी छात्रों को गणित में 27वें और रीडिंग में 17वें स्थान पर रखा था. लेकिन समग्र तौर पर भले ही अमरीकी बच्चे पिछड़ते दिखाई पड़ रहे हों, मजबूत बच्चे कतई पीछे नहीं हैं. उदाहरण के लिए वार्षिक इंटरनेशनल मैथ ओलंपियाड में, जहां प्रत्येक देश अपने बेहतरीन 6 बच्चों को बेहद मुश्किल परीक्षा का सामना करने के लिए भेजता है, अमेरिका लगातार तीन शीर्ष देशों में जगह बनाए हुए है.
लेकिन जैसा कि पीसा के आंकड़े बताते हैं, इसमें शानदार प्रदर्शन करने वाले देश सिर्फ अमीरों के ही नहीं बल्कि हर बच्चे के लिए अच्छी शिक्षा का इंतजाम करते हैं. दुर्भाग्य से इस मामले में अगर दुनिया के 33 अमीर देशों से तुलना करें तो अमेरिका का रिकॉर्ड बहुत खराब है. 15 वर्ष तक के बच्चों के नामांकन के मामले में यह तीसरा सबसे कम नामांकन वाला देश है (करीब 20 प्रतिशत अमेरिकी बच्चे स्कूल नहीं जाते!). और स्कूल असमानता के लिहाज से अमेरिका सबसे बुरा प्रदर्शन करने वालों में 9वें स्थान पर हैं- यहां अमीर और गरीब बच्चों के बीच प्राप्तांकों में भारी अंतर दिखाई देता है. हर कोई जानता है कि हमारे स्कूल असमान हैं. पर कम लोग स्वीकार करते हैं कि स्कूलों के बीच असमानता असल में वैश्विक स्तर पर हमारे खराब प्रदर्शन का कारण है.
अगर शैक्षिक असमानता ही अहम मुद्दा है तो डिजिटल टेक्नोलॉजी के जखीरे खड़े कर देने से स्थितियां नहीं बदलने वालीं. टेक्नोलॉजी प्रदत्त विस्तारण का यह संभवतः सबसे कम समझा गया पहलू है. एक कॉन्फ्रेंस में अमेरिकी शिक्षामंत्री अर्ने डंकन ने शिक्षा में टेक्नोलॉजी के उपयोग को बढ़ाने (45 गुना टेक्नोलॉजी और शिक्षक मात्र 25 गुना) की वकालत करते हुए कहा, "टेक्नोलॉजी उन गरीबों, अल्पसंख्यकों और ग्रामीण छात्रों के लिए बरबरी के अवसर पैदा करती है, जिनके पास घर में लैपटॉप या आईफोन नहीं हैं." लेकिन यह सोच एक खुशफहमी से ज्यादा कुछ नहीं; यह भ्रामक है और गलत दिशा में ले जाता है. टेक्नोलॉजी संपत्ति व उपलब्धियों में पहले से मौजूद असमानता को और ज्यादा बढ़ा देती है. ज्यादा शब्दभण्डार वाले बच्चे विकीपीडिया से ज्यादा हासिल करते हैं. वीडियो गेम्स मानसिक रूप से कमजोर बच्चों में भटकाव को बढ़ा देते हैं. अमीर माता-पिता अपने बच्चों के लिए डिजिटल प्रणालियों की प्रोग्रामिंग सिखाने वाला ट्यूटर लगा सकते है, जबकि दूसरे बच्चे इन प्रणालियों को महज चलाना भर सीख रहे होते हैं. स्कूल में टेक्नोलॉजी पहुंच के लिहाज से बराबरी से खेलने के मौके पैदा कर सकती है, लेकिन ऐसे मौके खिलाड़ी के कौशल में कोई इजाफा नहीं करते. शिक्षा के लिहाज से यही सबसे महत्वपूर्ण बिंदु है. यूनिवर्सिटी ऑफ कलिफोर्निया, इरविन में प्रोफेसर और एजुकेशनल टेक्नोलॉजी क्षेत्र के शीर्ष दिग्गजों में शुमार मार्क वार्शौर कहते हैं, "स्कूलों में सूचना एवं संचार टेक्नोलॉजी के प्रवेश से असमानता के मौजूदा रूपों का ही विस्तार होता है."
अगर टेक्नोलॉजी इंडस्ट्री में काम कर रहे अभिभावक अपने बच्चों के मामले में सही हैं, तो अमेरिकी शिक्षा व्यवस्था को चाहिए कि वह टेक्नोलॉजी को बढ़ाने के बजाय जरूरतमंद बच्चों के लिए अच्छे शिक्षकों के इंतजाम पर ज्यादा ध्यान दे. नजारा बेशक डरावना और चुनौतीपूर्ण है, मगर शैक्षिक अवसरों में असमानता की बीमारी को टेक्नोलॉजी की तगड़ी खुराक से दुरुस्त नहीं किया जा सकता. मुंह बाए खड़ी सामाजिक-आर्थिक खाई को लक्ष्य किए बिना टेक्नोलॉजी खुद ब खुद इसे पाट नहीं सकती, उलटे यह इसे और चौड़ा कर देगी.
(यह लेख केंटारो टोयामा की आने वाली पुस्तक 'गीक हैरेसी: रेसक्यूइंग सोशिअल चेंज फ्रॉम द कल्ट ऑफ़ टेक्नोलॉजी' से लिया गया है.)
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