Sunday, July 26, 2015

यह गतिरोध किसका हित साधेगा?

देश की जनता विस्मय के साथ यह समझने की कोशिश कर रही है कि किस मुकाम पर आकर राष्ट्रीय-हित और पार्टी-हित एक दूसरे से अलग होते हैं और कहाँ दोनों एक होते हैं। मॉनसून सत्र के पहले चार दिन शोर-गुल में चले गए और लगता नहीं कि आने वाले दिनों में कुछ काम हो पाएगा। यह समझने की जरूरत भी है कि तकरीबन एक साल तक संसदीय मर्यादा कायम रहने और काम-काज सुचारु रहने के बाद भारतीय राजनीति अपनी पुरानी रंगत में वापस क्यों लौटी है? क्या कारण है कि मैं बेईमान तो तू डबल बेईमान जैसा तर्क राजनीतिक ढाल बनकर सामने आ रहा है?


कांग्रेस कह सकती है कि यूपीए सरकार के दौर में भारतीय जनता पार्टी का रुख भी इसी प्रकार का था। जवाब में भाजपा का कहना है कि सन 2001 में कांग्रेस ने ही ताबूत घोटाले के नाम पर इस राजनीति की शुरूआत की थी। माकपा के महासचिव सीताराम येचुरी का कहना है कि संसद का काम कार्यपालिका की जवाबदेही तय करना है। सैद्धांतिक रूप से यह सही बात है, पर जवाबदेही तो तभी होगी जब सदन में विचार-विमर्श होगा। यही तर्क 15वीं लोकसभा के दौरान यूपीए सरकार देती रही। अब कांग्रेस की समझ क्यों बदली है? बेहतर होता कि कांग्रेस इस बात को रेखांकित करती कि तब हम एनडीए के तौर-तरीकों को गलत मानते थे, तो आज भी गलत मानते हैं। इसके लिए धैर्य की जरूरत है और जनता के बीच जाकर उसे वास्तविकता से परिचित कराने की भी। पर आज की राजनीति इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और सोशल मीडिया के मोर्चे पर लड़ी जा रही है।

संसद की कार्यवाही को रोककर राष्ट्रीय महत्व के विषय पर देश का ध्यान खींचना लोकतांत्रिक जिम्मेदारी है। इस नजरिए से गतिरोध साधन है साध्य नहीं। 16वीं लोकसभा का पहला साल हाल के वर्षों में संसदीय कर्म के लिहाज से सबसे अच्छा साल रहा। क्या कांग्रेस ने पिछले साल खामोश बैठकर गलती की थी? क्या वजह है कि इस मॉनसून सत्र के पूरी तरह साफ हो जाने का खतरा पैदा हो गया है? इसका नुकसान किसे होगा? हमारी अर्थ-व्यवस्था फिर से उठना चाहती है। टकराव की यह राजनीति क्या हमें पीछे नहीं ले जाएगी? इससे किसका और क्या फायदा होगा? भारतीय राजनीति और जागरूक नागरिकों को इस विषय पर विचार करना चाहिए कि आंदोलन और विरोध की मर्यादा रेखा कहाँ पर होनी चाहिए।

राजनीतिक दलों के सामने संसदीय मंच ही वह स्थान है जहाँ जनता उन्हें एक पारदर्शी व्यवस्था में देख सकती है। संसदीय बहस के मार्फत सामान्य नागरिक को अपने हित-अनहित की जानकारी हो सकती है। वहाँ पर साबित किया जा सकता है कि कौन सी बात जनता के हित में है। ऐसा क्यों नहीं हो रहा? संसदीय गतिरोध क्यों एक बड़ा राजनीतिक अस्त्र बनकर सामने आ रहा है? अस्सी के दशक में बोफोर्स मामला उछलने पर विपक्ष ने 45 दिन तक संसद का बहिष्कार किया था। उस वक्त कांग्रेस के पास दोनों सदनों ने जबर्दस्त बहुमत था। हालांकि हमारी संसदीय राजनीति में इसके पहले भी घोटाले होते रहे हैं, पर लम्बे चले संसदीय गतिरोध का वह पहला बड़ा मामला था।

आर्थिक उदारीकरण के पहले की राजनीति में भी घोटाले होते थे, पर वे सामने नहीं आ पाते थे। तब मीडिया की भूमिका भी इतनी महत्वपूर्ण नहीं थी, और न स्टिंग ऑपरेशन होते थे। नब्बे के दशक में दूरसंचार घोटाला नए दौर का प्रतीक बनकर सामने आया। पूरे विपक्ष ने दूरसंचार मंत्री सुखराम का इस्तीफा माँगा। हालांकि सरकार के पास पूरा बहुमत भी नहीं था, पर संसदीय गतिरोध के उस बड़े दौर में भी विधेयक पास होते रहे। दूरसंचार घोटाले से एक बात यह भी समझ में आई कि आर्थिक गतिविधियाँ बढ़ेंगी तो घोटालों का अंदेशा भी बढ़ेगा, हमें व्यवस्थागत सुधार करने चाहिए। शेयर बाजार घोटाले ने खासतौर से इस बात की ओर इशारा किया। व्यवस्थागत सुधार इसी संसद के मार्फत होने थे। सुधार होते तो टू-जी और कोयला खान जैसे प्रसंग सामने क्यों आते?

भाजपा के नेतृत्व में बनी एनडीए सरकार के दौर में तहलका टेप कांड उछला और कांग्रेस को मौका मिला। पर संसदीय कर्म भी चलता रहा। दिसम्बर 2001 में करगिल युद्ध के बाद खरीदे गए ताबूतों को लेकर कांग्रेस को विरोध प्रदर्शन का मौका मिला और लम्बा संसदीय गतिरोध चला। सन 2004 के बाद यूपीए सरकार को विपक्ष के मुकाबले अपने सहयोगी वामपंथी दलों का भरपूर सामना करना पड़ा, जिसकी परिणति संसद में लाए गए विश्वास मत में हुई। पर 2009 के बाद दूसरी बार बनी यूपीए सरकार का पूरा कार्यकाल घोटालों और गतिरोधों को समर्पित रहा।
इस दौर में यह बात भी सामने आई कि गठबंधन सरकारों के दौर में चार सांसद भी चाहें तो संसद को ठप कर दें। इसकी वजह से राजकोष पर करोड़ों की चोट तो लगती ही है, साथ ही महत्वपूर्ण संसदीय काम पीछे रह जाता है।

पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च के अनुसार दिसम्बर 2010 के शीत सत्र में निर्धारित 138 घंटों की जगह केवल 7 घंटे काम हुआ। 15वीं लोकसभा को श्रेय जाता है कि उसने नागरिकों को शिक्षा का अधिकार दिया। खाद्य सुरक्षा और भूमि अधिग्रहण कानून बनाए और 'विसिल ब्लोवर' संरक्षण और लोकपाल विधेयक पास किए।सकी उपलब्धियों को हमेशा याद रखा जाएगा, लेकिन उस लोकसभा के आख़िरी सत्र में मिर्च के स्प्रे, सदस्यों के निलंबन और लगातार शोर-गुल ने संसदीय कर्म में गिरावट का जो परिचय दिया, उसे भी देर तक याद रखा जाएगा। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ, जब केंद्रीय मंत्री अपनी सरकार का विरोध व्यक्त करते हुए 'वेल' में उतरे हों। आम बजट और रेल बजट बगैर चर्चा के पास हो गए।

सन 1952 से 1967 तक पहली तीन लोकसभाओं की औसतन 600 के आसपास बैठकें हुईं थीं. 15वीं लोकसभा की साढ़े तीन सौ के आसपास बैठकें हुईं। अनुमान है कि इस लोकसभा का लगभग 37 फीसदी समय शोर-गुल और व्यवधानों के कारण बरबाद हुआ। पहली लोकसभा ने 333 विधेयक पास किए थे और 15वीं लोकसभा ने इसके लगभग आधे। आर्थिक उदारीकरण से जुड़े अनेक विधेयकों को पास नहीं किया जा सका। जीएसटी और डायरेक्ट कोड जैसे काम अधूरे रह गए और आज भी अधूरे पड़े हैं। लोकसभा में पड़े सत्तर के आसपास बिल लैप्स हो गए। इतनी बड़ी संख्या में बिल पहले कभी लैप्स नहीं हुए।

अनुभवों से नहीं सीखे तो सब बेकार है। आज संसद के सामने तकरीबन उतने ही विधेयक पड़े हैं, जितने पिछली संसद में लैप्स हो गए थे। इन कानूनों पर विचार करना राष्ट्रीय हित है और उनकी अनदेखी करना राष्ट्रीय हितों पर कुठाराघात है। क्या जनता इस बात को समझती है? नहीं समझती तो उसे कौन समझाएगा? राजनीतिक दल। पर क्या वे समझदार हैं?

हरिभूमि में प्रकाशित

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