जयशंकर क्या संशय में थे? या इसे भारतीय डिप्लोमेसी का नया आक्रामक अंदाज़ मानें? डिप्लोमेसी में कोई बात यों ही नहीं
कही जाती. जयशंकर का यह दौरा बेहद व्यस्त रहा. उन्होंने न केवल अमेरिका के नेताओं
से संवाद किया, साथ ही दूसरे देशों के कम से कम 40 महत्वपूर्ण व्यक्तियों के साथ
बैठकें कीं.
यह बात भारत के महत्व को रेखांकित करती हैं. भू-राजनीतिक, सामरिक और आर्थिक परिस्थितियों को
देखते हुए दुनिया को भारत की अहमियत को स्वीकार करना ही होगा, पर अंतर्विरोधों से
भी इनकार नहीं किया जा सकता.
भारतीय कंपनी पर प्रतिबंध
जयशंकर की यात्रा के
फौरन बाद अमेरिका ने पेट्रोलियम का कारोबार करने वाली मुंबई की एक कंपनी पर
प्रतिबंध लगाए हैं, जिसपर आरोप है कि उसने ईरानी पेट्रोलियम खरीद कर चीन को उसकी
सप्लाई की. हाल के वर्षों में यह पहला मौका है, जब अमेरिका ने किसी भारतीय कंपनी
पर प्रतिबंध लगाए हैं.
हमारी विदेश-नीति अमेरिका और रूस के रिश्तों को लेकर ‘तलवार की धार पर’ चलती नज़र आती है. कभी लगता है कि रूस और अमेरिका के बीच संतुलन बैठाने के फेर में नैया डगमगा रही है. दूसरी तरफ भारत के महत्व को रेखांकित करने, गुटों या देशों के दबाव से खुद को मुक्त करने और अपने हितों से जुड़ाव को व्यक्त करने की इस प्रवृत्ति को हम जयशंकर के बयानों में पढ़ सकते हैं.
कशीदगी बाकी
अमेरिका ही नहीं रूस
के साथ भी विसंगतियाँ हैं. दो साल पहले रूस ने अफगानिस्तान को लेकर मॉस्को-वार्ता में
भारत को एकबार बुलाया और फिर नाम काट दिया. जब सवाल पूछे गए तो कहा कि भारत की
भागीदारी अंततः (ईवेंच्युअल) होगी. यह 'अंततः' शब्द महत्वपूर्ण था, जो भारत की
फौरी भागीदारी को नकारता था.
गुट-निरपेक्षता की
नीति पर चलने के बावजूद भारत का रूसी-झुकाव कभी छिपा नहीं रहा, पर अब हालात तेजी से बदले हैं. भारत, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और जापान
का ‘क्वाड’ अब शक्ल ले चुका है, पर यह भी स्पष्ट किया
गया है कि यह केवल सामरिक गठबंधन नहीं है और इसका लक्ष्य चीन नहीं है.
यूक्रेन प्रसंग
रूस ने यूक्रेन के चार इलाकों में जनमत संग्रह
के बाद उन्हें रूस में मिलाने की घोषणा की है. वैसे ही जैसे 2014 में क्राइमिया
प्रायद्वीप पर कब्जा किया था. भारत
ने रूस की इस कार्रवाई का विरोध नहीं किया था.
इस ताज़ा कब्ज़े के विरोध में संरा सुरक्षा
परिषद में लाए गए दस्तावेज को रूस ने वीटो कर दिया. इस प्रस्ताव पर मतदान के समय भारत
ने अनुपस्थित रहने का फैसला किया. भारत के अलावा चीन, ब्राज़ील और गैबॉन ने भी
अनुपस्थित रहने का फैसला किया.
यूक्रेन के संदर्भ में भारतीय मंतव्य बार-बार
उभर रहा है कि हमें लड़ाई पसंद नहीं, पर हम रूस को घेरने में मददगार भी नहीं
बनेंगे. जब तक भारत आत्मनिर्भर नहीं हो जाएगा, या कारोबार और हथियारों के विकल्प
विकसित नहीं कर लेगा, तब तक हमारी नीति कमोबेश यही रहेगी. हमें राष्ट्रीय हितों की
हिफ़ाज़त करनी है.
यूरोप और अमेरिका क्या हमारे इस दृष्टिकोण को
पचा पाएंगे? वे जितना भी दबाव बनाएं, इस बात की संभावना कम है कि रूस को लेकर भारत अपनी नीति से पीछे हटेगा.
मतभेद भी हैं
शिकवे-शिकायतें हैं, तो दोस्ती की बातें भी हैं.
ब्लिंकेन ने पाकिस्तान की सहायता को लेकर अपनी सफाई पेश की, साथ ही कहा कि दुनिया
में सिर्फ दो देश ही ऐसे हैं, जो इस सदी का रुख तय कर सकते हैं. वे हैं अमेरिका और
भारत, पर इसका मतलब यह नहीं कि हमारे मतभेद नहीं हैं. हम हर विषय पर गहराई से
बातें करते हैं और उन रास्तों पर आगे बढ़ते हैं, जिनपर हमारी सहमति है.
विदेशी मामलों को लेकर भारत में जब बात होती है,
तो ज्यादातर पाँच देशों के इर्द-गिर्द बातें होती हैं. एक, पाकिस्तान, दूसरा चीन. फिर अमेरिका, रूस और ब्रिटेन. इन देशों के आपसी रिश्ते हमें प्रभावित करते हैं.
देश की आंतरिक राजनीति भी इन रिश्तों के करीब घूमने लगती है.
नाटकीय बदलाव
पिछले बीसेक वर्षों में सबसे नाटकीय बदलाव अमेरिका
के साथ रिश्तों में आया है. 2008 के न्यूक्लियर डील के साथ ही बाद हिंद-प्रशांत
क्षेत्र में चतुष्कोणीय सुरक्षा यानी क्वाड को लेकर भारत, अमेरिका,
जापान और ऑस्ट्रेलिया के बीच सहमति बनी. मालाबार युद्धाभ्यास में अमेरिका,
भारत और जापान के साथ ऑस्ट्रेलिया के शामिल हो जाने के बाद यह सहयोग पूरा हो गया.
भारत-अमेरिका के बीच ‘टू प्लस टू वार्ता’ टलती
रही, पर अंततः सितंबर 2018 में शुरू हो गई. लेमोआ, कोमकासा और बेका जैसे समझौते
हुए. पश्चिम एशिया में अमेरिका की सेंट्रल कमांड में अब भारतीय मिलिटरी अटैशे भी
शिरकत करते हैं.
एटमी धमाके
तीन दशक पहले भारत और अमेरिका के बीच सामरिक
समझौतों की सम्भावना मुश्किल लगती थी, पर नब्बे के दशक
में सोवियत संघ के विघटन के बाद और 1998 में नाभिकीय परीक्षण के कारण ऐसे हालात
बने, जिन्होंने हमें अमेरिका के साथ रक्षा-सहयोग
करने को प्रेरित किया.
नब्बे का दशक और इक्कीसवीं सदी का प्रारम्भ
भारतीय विदेश-नीति के लिए बहुत महत्वपूर्ण रहा है. नब्बे की शुरुआत कश्मीर में
पाकिस्तान के आतंकी हमलों से हुई थी. इसके कुछ वर्ष बाद ही भारत और इसरायल के
राजनयिक संबंध स्थापित हुए. इसी दौर में नई आर्थिक नीति के भारत सहारे तेज आर्थिक
विकास की राह पर बढ़ा था.
वह दौर तीन महत्वपूर्ण कारणों से याद रखा जाएगा.
पहला, नाभिकीय परीक्षण, दूसरा करगिल प्रकरण और तीसरा भारत और
अमेरिका के बीच नए सामरिक रिश्ते. भारत के एटमी परीक्षण के बाद जब अमेरिका, यूरोप
और जापान ने भारत पर पाबंदियाँ लगा दीं, तब तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी
वाजपेयी ने राष्ट्रपति बिल क्लिंटन को एक पत्र लिखा.
चीन को देखो…
वाजपेयी ने लिखा, हमारी सीमा पर एटमी ताकत से
लैस एक देश बैठा है, जो 1962 में हमला कर भी चुका है. हालांकि उसके साथ हमारे
रिश्ते सुधरे हैं, पर अविश्वास का माहौल तो है ही. इस देश ने हमारे एक और पड़ोसी
को एटमी ताकत बनने में मदद की है. अमेरिका ने भी व्यापक फलक पर सोचना शुरू किया. अमेरिकी
प्रशासन ने इस पत्र को सोच-समझकर लीक किया.
भारत ने निर्भीक विदेश-नीति की दिशा में बड़ा
कदम जरूर उठाया था, पर उसके जोखिम कम न थे. तूफान में फँसी नैया को किनारे लाने का
विकल्प था, अमेरिका से रिश्तों को सुधारना. मुश्किल काम था नाभिकीय परीक्षण के बाद
भारत को वैश्विक राजनीति की मुख्यधारा में वापस लाना.
अमेरिका और जापान के साथ हमारे रिश्ते बहुत
खराब हो गए थे, जिसके कारण न केवल उच्चस्तरीय तकनीक
में हम पिछड़ गए, बल्कि आर्थिक प्रतिबंधों के कारण
परेशानियाँ खड़ी हो गई थीं. अंतरराष्ट्रीय संगठनों में हमारी स्थिति कमजोर हो गई.
जसवंत-टैलबॉट वार्ताएं
नई सहस्राब्दी में जसवंत सिंह और अमेरिकी
उप-विदेश मंत्री स्ट्रोब टैलबॉट के बीच दो साल में 14 बार मुलाक़ातें हुईं. आज अमेरिका
की दिलचस्पी चीन के बढ़ते प्रभाव को रोकने में है. भारत की तरह जापान को भी अब चीन
से खतरा नज़र आता है. इसलिए हितों की रक्षा के नए आधार तैयार हुए.
भारत और अमेरिका के बीच उस दौरान गंभीर
विचार-विमर्श हुआ और शीत युद्धोत्तर विश्व की वास्तविकताओं के परिप्रेक्ष्य में
अपनी भूमिकाओं को समझने की कोशिश भी की गई. राष्ट्रपति जॉर्ज बुश जूनियर के
कार्यकाल में आधुनिक भारत-अमेरिका रक्षा-संबंधों की बुनियाद पड़ी.
अमेरिका पर 9/11 को हुए आतंकी हमले और चीन के
उदय ने अमेरिकी प्रतिष्ठान को सोचने पर मजबूर कर दिया. उसी दौर में भारत-अमेरिका
रक्षा समझौता और फिर उसके बाद नाभिकीय समझौता हुआ. बुश के बाद बराक ओबामा और
डोनाल्ड ट्रंप उसी रणनीति पर चले और काफी हद तक जो बाइडेन भी उसपर चल रहे हैं.
रिश्तों में रुकावटें
कुछ लोगों का विचार है कि अमेरिका मानवाधिकार
के सवाल उठाकर भारत के साथ रिश्तों को पुनर्परिभाषित करेगा, पर
वे अंतरराष्ट्रीय संबंधों के प्रेरक सिद्धांतों को नहीं समझते हैं. बदलते वैश्विक
परिप्रेक्ष्य में भारत की भूमिका और उसकी दिशा को देखना होगा. भारत में इस समय ऐसी
सरकार है, जो राजनीतिक जोखिम उठाकर बड़े फैसले कर सकती है.
दो बातें रुकावट डालती हैं. डेमोक्रेटिक पार्टी
मोदी सरकार की आलोचक है. भारत के नागरिकता कानून की आलोचना उसके वरिष्ठ नेताओं ने
की. कश्मीर से अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी बनाए जाने पर डेमोक्रेट सांसद प्रमिला
जयपाल ने संसद में भारत-विरोधी प्रस्ताव रखा. इसी वजह से दिसंबर 2019 में अमेरिका
के दौरे पर गए एस जयशंकर ने तब प्रमिला जयपाल से मिलने से इनकार कर दिया था.
आओ हमारे साथ…
यूक्रेन पर रूसी आक्रमण के बाद अमेरिका चाहता
था कि भारत उस हमले की निंदा करे. अमेरिकी नागरिकों, मीडिया और नेताओं का नज़रिया
रहता है कि जो हमारे साथ नहीं है, वह हमारा विरोधी है.
उन्हें समझना होगा कि भारत उनका मित्र है,
पिछलग्गू नहीं. जयशंकर ने इसी बात को रेखांकित किया है और अमेरिकी मीडिया पर भी
प्रहार किया है. ये बातें उन्होंने अनायास नहीं कहीं. इतना अनुभवी डिप्लोमैट हल्की
बातें नहीं बोलता.
भारत ने अमेरिका और यूरोप को समझाने का प्रयास
किया है कि उन्हें भारत की दृष्टि को समझना होगा. इस साल मई में नरेंद्र मोदी ने यूरोप
की यात्रा के दौरान जर्मनी, फिर डेनमार्क, कोपेनहेगन के इंडिया-नॉर्डिक
शिखर सम्मेलन और फ्रांस में इसी बात को समझाया. यूरोप ने उसे समझा.
भारत ने रूसी हमले की स्पष्ट शब्दों में निंदा
नहीं की है, पर परोक्ष रूप से इस हमले को निरर्थक और
अमानवीय भी माना. फिर समरकंद में मोदी ने पुतिन से कहा कि यह ज़माना लड़ाइयों का नहीं
है.
जयशंकर की ताज़ा अमेरिका यात्रा के दौरान
अमेरिकी विदेशमंत्री ब्लिंकेन ने मोदी की इस बात की तारीफ की. उन्होंने यह समझाने
का प्रयास भी किया कि पाकिस्तान को चीनी गोदी में जाने से रोकने के लिए हमें भी
कुछ करना होता है.
भारतीय नागरिकों के लिए अमेरिकी वीज़ा और
कारोबार से जुड़े तमाम मसले अनसुलझे पड़े हैं. यूक्रेन प्रकरण और उसके पहले
कोविड-19 ने काफी रुकावटों डाली हैं. उम्मीद है कि उन्हें सुलझाने की कोशिशों अब
तेज होंगी.
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