चीन के सरकारी अंग्रेजी अखबार 'ग्लोबल टाइम्स' के कुछ लेखों ने भारत में पाठकों का ध्यान खींचा है। इस हफ्ते यह तीसरा लेख है जिसपर मेरा ध्यान गया है। इसके लेखक गौरव त्यागी हैं जो भारतीय मूल के हैं, जो चीन में ही रहते हैं। उनके बारे में मुझे ज्यादा जानकारी नहीं है, पर उनके लेख की टोन बताती है कि वे चीन को व्यापारिक परामर्श दे रहे हैं। इसका शीर्षक है 'चीनी कम्पनियों को भारत में निवेश करने के बजाय आंतरिक साधनों पर ध्यान देना चाहिए।' यह लेख 18 अक्तूबर को प्रकाशित हुआ है।इसमें 'भारतीय अधिकारियों को भौंकने दो' जैसे शब्द संदोह पैदा करते हैं। हैरत होती है कि इतना सतही किस्म का लेख इस तरह की भाषा के साथ चीन के राष्ट्रीय मीडिया में जगह बनाए। हो सकता है कि यह वास्तव में किसी भारतीय ने लिखा हो, पर मुझे संदेह है। इस लेख में गहराई नहीं है और सतही सी जानकारी या खामखयाली पर आधारित लगता है। फिर भी इसे पढ़िए। इससे यह जरूर समझ में आता है कि विदेशी पाठकों को सम्बोधित करने वाले चीन के सरकारी मीडिया का रुख क्या है और क्यों है। लेख के मुख्य अंशों का हिन्दी अनुवाद नीचे पेश हैः-
हाल में भारतीय मीडिया और सोशल मीडिया में चीनी उत्पादों के बॉयकॉट की बातें काफी प्रकाशित हुई हैं, पर मुझपर यकीन कीजिए मुझे भारतीय समझ से वाकिफ हूँ। यह सिर्फ लफ्फाजी है। कई वजह से भारतीय उत्पाद, चीनी माल से टक्कर नहीं ले सकते।
एक बात साफ है कि भारत इंफ्रास्ट्रक्चर के मामले में पिछड़ा है। पूरे देश को जोड़ने के लिए अब भी सड़कों और राजमार्गों की जरूरत है। भारत बिजली और पानी की भारी किल्लत है। सबसे खराब यह कि देश के हरेक सरकारी विभाग में ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार भरा पड़ा है। देश के राजनेता बजाय चीन से रिश्ते बेहतर करने के पश्चिमी देशों पर निहाल हो रहे हैं। अमेरिका किसी का दोस्त नहीं है। चूंकि अमेरिका को चीन के विकास और उसके वैश्विक शक्ति बनने से ईर्ष्या है, इसलिए वह भारत को इस्तेमाल कर रहा है।
भारत में काफी पैसा है, पर ज्यादातर धन राजनेताओं, नौकरशाहों और कुछ क्रोनी कैपिटलिस्टों के पास केन्द्रत है। भारतीय पैसे वाले देश में उपलब्ध रकम को खर्च नहीं करना चाहते, जो कि कर दाताओं का पैसा है। इसका इस्तेमाल भारतीय सत्ता प्रतिष्ठान अपने निजी उपभोग पर करता है। इस वजह से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 'मेक इन इंडिया' जैसी अव्यावहारिक योजना शुरू की है। इसकी वजह यह है कि भारतीय व्यवस्था चाहती है कि विदेशी कम्पनियाँ भारत में पैसा लगाएं।
इस वक्त दुनिया तेज बदलाव देख रही है। पूरी दुनिया में ऑटोमेशन ने काफी रोजगार खत्म कर दिए हैं। आयात-निर्यात कम हो रहा है। ऐसे में चीनी कम्पनियों के लिए अपनी पूँजी को भारतीय निर्माण परियोजनाओं में लगाना आत्मघाती होगा। भारत में श्रमजीवी वर्ग न तो बहुत मेहनती है और न कार्य कुशल। देश में तमाम मजदूर संघ हैं। उनकी निगाहें इस बात पर रहती हैं कि कम से कम काम करके फैक्ट्री के मालिक से ज्यादा से ज्यादा पैसा खींच लिया जाए।
बहरहाल भारतीय कारोबारी चीन जाकर वहाँ से बड़ी मात्रा में माल खरीदकर लाने और उसे भारत में बेचने का काम कर रहे हैं। यह मॉडल चीन के माफिक भी है। इसलिए इसे रोककर वहां निर्माण केन्द्र बनाने पर पूँजी लगाकर उसे बर्बाद करने का क्या तुक है?
मैं गांसू प्रांत में स्थित हूँ। यहाँ वेतन चीन के दूसरे इलाकों, जैसे पेइचिंग, शंघाई और शेनजेन के मुकाबले कम है। इस प्रांत में काफी जमीन उपलब्ध है और काफी बड़ी संख्या में पढ़े-लिखे श्रमजीवी मौजूद हैं। चीन के दूसरे व्यापारिक केन्द्रों के मुकाबले गांसू में जीवन निर्वाह सस्ता है।
चीनी फोन कम्पनियों को भारत में कारखाने लगाने के बजाय अपना समय, साधन और पैसा गांसू में निर्माण व्यवस्था स्तापित करने में लगाना चाहिए। भारतीय अधिकारियों को चीन के साथ बढ़ते व्यापार घाटे को लेकर भौंकने दो। इसमें कुछ कर नहीं सकते।
अंग्रेजी में मूल लेख पढ़ें यहाँ विस्मय की बात है कि यह लेख अब यहाँ से गायब है।
हाल में भारतीय मीडिया और सोशल मीडिया में चीनी उत्पादों के बॉयकॉट की बातें काफी प्रकाशित हुई हैं, पर मुझपर यकीन कीजिए मुझे भारतीय समझ से वाकिफ हूँ। यह सिर्फ लफ्फाजी है। कई वजह से भारतीय उत्पाद, चीनी माल से टक्कर नहीं ले सकते।
एक बात साफ है कि भारत इंफ्रास्ट्रक्चर के मामले में पिछड़ा है। पूरे देश को जोड़ने के लिए अब भी सड़कों और राजमार्गों की जरूरत है। भारत बिजली और पानी की भारी किल्लत है। सबसे खराब यह कि देश के हरेक सरकारी विभाग में ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार भरा पड़ा है। देश के राजनेता बजाय चीन से रिश्ते बेहतर करने के पश्चिमी देशों पर निहाल हो रहे हैं। अमेरिका किसी का दोस्त नहीं है। चूंकि अमेरिका को चीन के विकास और उसके वैश्विक शक्ति बनने से ईर्ष्या है, इसलिए वह भारत को इस्तेमाल कर रहा है।
भारत में काफी पैसा है, पर ज्यादातर धन राजनेताओं, नौकरशाहों और कुछ क्रोनी कैपिटलिस्टों के पास केन्द्रत है। भारतीय पैसे वाले देश में उपलब्ध रकम को खर्च नहीं करना चाहते, जो कि कर दाताओं का पैसा है। इसका इस्तेमाल भारतीय सत्ता प्रतिष्ठान अपने निजी उपभोग पर करता है। इस वजह से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 'मेक इन इंडिया' जैसी अव्यावहारिक योजना शुरू की है। इसकी वजह यह है कि भारतीय व्यवस्था चाहती है कि विदेशी कम्पनियाँ भारत में पैसा लगाएं।
इस वक्त दुनिया तेज बदलाव देख रही है। पूरी दुनिया में ऑटोमेशन ने काफी रोजगार खत्म कर दिए हैं। आयात-निर्यात कम हो रहा है। ऐसे में चीनी कम्पनियों के लिए अपनी पूँजी को भारतीय निर्माण परियोजनाओं में लगाना आत्मघाती होगा। भारत में श्रमजीवी वर्ग न तो बहुत मेहनती है और न कार्य कुशल। देश में तमाम मजदूर संघ हैं। उनकी निगाहें इस बात पर रहती हैं कि कम से कम काम करके फैक्ट्री के मालिक से ज्यादा से ज्यादा पैसा खींच लिया जाए।
बहरहाल भारतीय कारोबारी चीन जाकर वहाँ से बड़ी मात्रा में माल खरीदकर लाने और उसे भारत में बेचने का काम कर रहे हैं। यह मॉडल चीन के माफिक भी है। इसलिए इसे रोककर वहां निर्माण केन्द्र बनाने पर पूँजी लगाकर उसे बर्बाद करने का क्या तुक है?
मैं गांसू प्रांत में स्थित हूँ। यहाँ वेतन चीन के दूसरे इलाकों, जैसे पेइचिंग, शंघाई और शेनजेन के मुकाबले कम है। इस प्रांत में काफी जमीन उपलब्ध है और काफी बड़ी संख्या में पढ़े-लिखे श्रमजीवी मौजूद हैं। चीन के दूसरे व्यापारिक केन्द्रों के मुकाबले गांसू में जीवन निर्वाह सस्ता है।
चीनी फोन कम्पनियों को भारत में कारखाने लगाने के बजाय अपना समय, साधन और पैसा गांसू में निर्माण व्यवस्था स्तापित करने में लगाना चाहिए। भारतीय अधिकारियों को चीन के साथ बढ़ते व्यापार घाटे को लेकर भौंकने दो। इसमें कुछ कर नहीं सकते।
अंग्रेजी में मूल लेख पढ़ें यहाँ विस्मय की बात है कि यह लेख अब यहाँ से गायब है।
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