Sunday, November 29, 2015

मोदी क्या कर पाएंगे समावेशी राजनीति?

संसद के शीत सत्र के पहले दो दिन की विशेष चर्चा और शुक्रवार की शाम प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह की मुलाकात के बाद दो बातें स्पष्ट हुईं हैं। एक, भारतीय जनता पार्टी को व्यापक जनाधार बनाने के लिए अपनी रणनीति में सुधार करना होगा। इस रणनीति का आंशिक असर है कि शीत सत्र से उम्मीदें बढ़ गईं हैं। शुक्रवार को संसद में नरेन्द्र मोदी ने इस बात का संकेत दिया कि वे आमराय बनाकर काम करना पसंद करेंगे। उन्होंने देश की बहुल संस्कृति को भी बार-बार याद किया।

देखना होगा कि क्या भारतीय जनता पार्टी की राजनीति में कोई गुणात्मक बदलाव आने वाला है या नहीं। पार्टी को अटल बिहारी वाजपेयी के अनुभव का लाभ उठाना चाहिए। संसद में मोदी के अपेक्षाकृत संतुलित बयान और शाम को सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह के साथ विचार-विमर्श से अच्छे संकेत जरूर मिले हैं, फिर भी कहना मुश्किल है कि संसद का यह सत्र कामयाब होगा। अलबत्ता उम्मीद बँधी है। देशवासी चाहते हैं कि संसदीय कर्म संजीदगी से सम्पादित किया जाना चाहिए। मॉनसून सत्र का पूरी तरह धुल जाना अच्छी बात नहीं थी।



प्रधानमंत्री के कांग्रेस नेताओं की चाय पर चर्चा के संदर्भ में राहुल गांधी का कहना है कि जनता के दबाव में सरकार ने कांग्रेस की तरफ हाथ बढ़ाया है। यह बात सच है, पर सच यह भी है कि जनता ने मॉनसून सत्र में कांग्रेसी रणनीति को पसंद नहीं किया था। अब कांग्रेस जीएसटी विधेयक पर बात करने को तैयार है तो इसके पीछे भी जनता का दबाव है। इससे बड़ा सच यह है कि यह जनता का दबाव ही है जो राजनीति को उच्छृंखल होने से रोकता है। यह दबाव तो हमेशा रहना ही चाहिए और राजनेताओं को उसका आदर करना चाहिए।  

डॉ भीमराव आम्बेडकर की स्मृति में संविधान दिवस की विशेष चर्चा में प्रधानमंत्री के भाषण के अलावा अरुण जेटली, सीताराम येचुरी और गुलाम नबी आजाद के वक्तव्य उल्लेखनीय रहे। राजनीतिक नजरिए से चर्चा के अंत में लोकसभा अध्यक्ष का वह वक्तव्य भी महत्वपूर्ण था, जिसमें भारतीय लोकतंत्र की परिपक्वता का श्रेय डॉ भीमराव आम्बेडकर के अलावा महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू, सरदार वल्लभ भाई पटेल, मौलाना आजाद तथा अन्य महत्वपूर्ण राजनेताओं को दिया गया। इस वक्तव्य का पूरे सदन ने मेज थपथपाकर समर्थन किया। संसदीय राजनीति सहमतियों और असहमतियों से चलती है। इसमें दलीय हितों और राष्ट्रीय हितों का भेद स्पष्ट होना चाहिए। बहरहाल इस बहस को हमारी राजनीति ने कितनी संजीदगी से लिया है यह अब सोमवार के बाद दिखाई पड़ेगा।

संसद हमारा सर्वोच्च विचार केन्द्र है। यहाँ विचार नहीं होगा तो सब निरर्थक है। बेशक शोर भी इस विमर्श का हिस्सा है, पर उसकी भी मर्यादा है। कांग्रेस के नेता आनन्द शर्मा की यह बात ठीक है कि हमारी दृष्टि में केवल एक या दो विधेयकों का पास होना ही महत्वपूर्ण नहीं है। हम यह भी देखना चाहते हैं कि पूरे देश में हो क्या रहा है। पर उन्हें विधेयकों को भी तो प्राथमिकता के क्रम में कहीं रखना होगा। इस सत्र में यदि अटके पड़े और नए विधेयकों पर यथेष्ट विचार होना चाहिए। इसके साथ राष्ट्रीय राजनीति के शेष प्रश्नों पर भी विचार होना चाहिए।

यह सत्र देश के आर्थिक, प्रशासनिक और राजनीतिक स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण है। इसमें जीएसटी और भूमि अधिग्रहण जैसे कानूनों पर निर्णायक फैसला हो सकता है। श्रम सुधार, भ्रष्टाचार और सामान्य प्रशासनिक व्यवस्था से जुड़े कानून भी संसद के सामने हैं। तीन अध्यादेशों को कानून बनवाना है। इनके अलावा पिछले सत्र से आठ बिल लोकसभा में और 11 राज्यसभा में अटके हैं। नए-पुराने मिलाकर कुल 35 विधेयक अब सामने हैं। छुट्टियों को अलग कर दें तो काम के 18 दिन मिलेंगे। इतने समय में सारा काम पूरा हो जाए इसकी जिम्मेदारी सरकार और विपक्ष दोनों की है।

सबसे बड़ी चुनौती जीएसटी विधेयक को राज्यसभा से पास कराने की है। भूमि अधिग्रहण विधेयक संयुक्त समिति के पास है। ह्विसिल ब्लोवर संरक्षण, भ्रष्टाचार रोकथाम, बैंकरप्सी कोड, रियल एस्टेट रेग्युलेशन, फैक्ट्री संशोधन और आरबीआई एक्ट जैसे कई महत्वपूर्ण विधेयक अटके पड़े हैं, जिनका अर्थव्यवस्था से सीधा रिश्ता है। इनमें से ज्यादातर कानून यूपीए सरकार के समय से प्रस्तावित हैं। इनपर फैसला होना ही चाहिए। देश की प्रशासनिक-आर्थिक व्यवस्था के स्वास्थ्य कि जिम्मेदारी राजनीति पर ही तो है। 

विधेयकों पर विचार के बाद राजनीतिक मसले सामने आएंगे। इनमें सहिष्णुता को लेकर चल रही राष्ट्रीय बहस सबसे महत्वपूर्ण है। इसके बाद खाद्य वस्तुओं की कीमतें, कानून-व्यवस्था की स्थिति, बाढ़, सूखा, पाकिस्तान से रिश्ते, नेपाल के साथ बढ़ती तल्खी और विदेश नीति के दूसरे मामले हैं। सीपीएम नेता सीताराम येचुरी ने राज्यसभा में और कांग्रेस के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ने लोकसभा में असहिष्णुता पर चर्चा का नोटिस दिया है। येचुरी चाहते हैं कि नियमावली 168 के तहत इसपर चर्चा हो और सदन ‘देश में व्याप्त असहिष्णुता के माहौल की निंदा का प्रस्ताव’ पास करे। राज्यसभा में प्रस्ताव पास होने से सरकार की किरकिरी होगी। इसकी पेशबंदी भी शुरू हो गई है।

प्रधानमंत्री ने शुक्रवार की शाम को लोकसभा में जो वक्तव्य दिया उसमें संविधान की सर्वोच्चता और भारतीय समाज की बहुलता का खासतौर से उल्लेख किया गया। उन्होंने खासतौर से जवाहर लाल नेहरू का नाम भी लिया। यह समझदारी की निशानी है। यह परिपक्वता दोनों और से दिखाई पड़नी चाहिए। हाल में मणिशंकर अय्यर ने एक पाकिस्तानी चैनल पर मोदी के खिलाफ जो बातें कहीं वे भी ठीक नहीं थीं। कश्मीर के बारे में हमारी राष्ट्रीय नीति को लेकर दुविधा नहीं होनी चाहिए। कम से कम इस मामले में राजनीतिक दलों को एक स्वर से बोलना चाहिए। असहमतियाँ जीवंत लोकतंत्र की निशानी हैं, पर कुछ सवालों पर राष्ट्रीय आमराय भी होनी चाहिए।

दो दिन की विशेष चर्चा में डॉ. आम्बेडकर और नेहरू के योगदान को लेकर अनावश्यक कटुता देखने को मिली। हालांकि अंत में लोकसभा अध्यक्ष के वक्तव्य से मामला सुलझ गया, पर उसके पहले विवाद खुलकर सामने आ ही गया। सीताराम येचुरी ने संविधान दिवस मनाए जाने के औचित्य पर सवाल खड़ा किया। वहीं गुलाम नबी आजाद ने केंद्र सरकार पर इतिहास का पुनर्लेखन करने की कोशिशों का आरोप लगाया। उन्होंने कहा कि संविधान के निर्माण में पं. नेहरू का भी इतना ही महत्वपूर्ण योगदान था, फिर उन्हें इसके श्रेय से क्यों वंचित किया जा रहा है?  

नेहरू की विरासत को लेकर बहस फिर से चल निकली है। हाल में नेहरू मेमोरियल को लेकर विवादास्पद बातें हुईं। दूसरी ओर सरकार आम्बेडकर और पटेल की छवि को स्थापित करने की कोशिश कर रही है। इसे सहज रूप से लिया जाना चाहिए। कांग्रेस ने भी तो नेहरू को स्थापित किया था। राष्ट्रीय महापुरुषों और नायकों के नाम राजनीति के साथ बदलते रहे हैं। उत्तर प्रदेश में बसपा सरकार बनने के बाद अनेक संस्थाओं के नाम दलित महापुरुषों पर रखे गए। इसमें गलत क्या हुआ? यह भी समय की माँग थी। पर यह राजनीति किसी नाम को मिटाने की नहीं होनी चाहिए।

दो दिन की चर्चा में धर्म निरपेक्षता, मौलिक अधिकार, संघवाद और संवैधानिकता से जुड़े अनेक प्रश्न उठे जिनपर देशभर में मीडिया के मार्फत चर्चा होनी चाहिए। इस सत्र का सबसे महत्वपूर्ण पहलू था प्रधानमंत्री का वक्तव्य जिसमें उन्होंने समावेशी, समन्वयकारी, न्याय की राह पर चलने की बात कही है। देश को इसकी सख्त जरूरत है। 
हरिभूमि में प्रकाशित

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