Sunday, October 25, 2015

लंगड़ाकर क्यों चलती है हमारी राज-व्यवस्था?

अमेरिका का छोटा सा संविधान है, भारत के संविधान का चौथाई भी नहीं। पर वहाँ की राजनीतिक-प्रशासनिक पिछले सवा दो सौ साल से भी ज्यादा समय से बगैर विघ्न-बाधा के चल रही है। संविधान सभा में जब बहस चल रही थी तब डॉ भीमराव आम्बेडकर ने कहा था कि राजनीति जिम्मेदार हो तो खराब से खराब सांविधानिक व्यवस्था भी सही रास्ते पर चलती है, पर यदि राजनीति में खोट हो तो अच्छे से अच्छा संविधान भी गाड़ी को सही रास्ते पर चलाने की गारंटी नहीं दे सकता। पिछले 68 साल में भारतीय सांविधानिक व्यवस्था ने कई मोड़ लिए। इसमें दो राय नहीं कि हमारे पास दुनिया का सर्वश्रेष्ठ संविधान है। पर संविधान से ज्यादा महत्वपूर्ण है वह राजनीतिक संस्कृति जो व्यवस्था का निर्वाह करती है। ऐसी व्यवस्था में शासन के सभी अंगों के बीच समन्वय और संतुलन होता है। हमारे यहाँ इनके बीच अकसर टकराव पैदा हो जाता है। 

हाल में संविधान में संशोधन करके बनाए गए न्यायिक नियुक्ति आयोग या एनजेएसी कानून को रद्द करने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद वित्तमंत्री अरुण जेटली के बयान से जो खलिश पैदा हो गई थी उसे शुक्रवार को उन्होंने दूर करने की कोशिश की। उन्होंने कहा कि उनका आशय न्यायपालिका और संसद के बीच किसी प्रकार के टकराव की वकालत करना नहीं था। सुप्रीम कोर्ट के फैसले का पूरी तरह पालन होगा। एनजेएसी की समाप्ति के बाद न्यायाधीशों की नियुक्ति वाली कॉलेजियम व्यवस्था बहाल हो गई है। बावजूद इसके यह बहस अब फिर से चलेगी। पर सवाल केवल न्यायिक प्रणाली में सुधार का ही नहीं है।

संसद के दोनों सदनों ने न्यायिक नियुक्ति आयोग की स्थापना और उसे संवैधानिक दर्जा देने वाले विधेयकों को लगभग सर्वानुमति से स्वीकार किया था। राजनीतिक स्तर पर यह सर्वानुमति अब नजर नहीं आती है। न्यायपालिका और विधायिका के मतभेद की पृष्ठपीठिका इसके पहले से तैयार हो चुकी थी। यह मसला न्यायपालिका और सरकार के परामर्श से सुलझाया जाना चाहिए था। ऐसा नहीं हो सका। बहरहाल समस्याएं सामने आईं हैं तो समाधान भी आएंगे। निर्भर इस बात पर करेगा कि हमारी सामाजिक व्यवस्था कितनी पुष्ट है।

न्यायाधीशों की नियुक्ति का सवाल न्यायिक सुधार के वृहत्तर सवाल से जुड़ा है। न्याय-व्यवस्था की स्वतंत्रता का सवाल भी इससे बाबिस्ता है। हमें नहीं भूलना चाहिए कि हाल के वर्षों में भ्रष्टाचार से जुड़े कुछ मामलों में न्यायिक सक्रियता के कारण ही कार्रवाई हो पाई। इतना ही नहीं चुनाव सुधार से जुड़े अनेक कानून केवल सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद ही लागू हो पाए।

देश अपने बदलाव के सबसे महत्वपूर्ण दौर से गुजर रहा है। सवाल केवल न्यायिक सुधारों का नहीं है। जीवन के हर क्षेत्र में सुधार का दौर चल रहा है। इनमें आर्थिक सुधार सबसे महत्वपूर्ण है। उसके लिए कानूनों में बदलाव की जरूरत है। इस बदलाव के लिए राजनीतिक सर्वानुमति की जरूरत है। संसद के पिछले सत्र में हमने देखा कि राजनीतिक असहमति के कारण किस तरह से संसदीय गतिरोध कायम हो गया। हम व्यवस्था के रूप में शासन के तीनों अंगों की स्वायत्तता के सिद्धांत को मानते हैं, पर तीनों के अंतर्विरोध भी कायम हैं। सवाल केवल आर्थिक-व्यवस्था से जुड़े कानूनों का ही नहीं है। देश में बड़ी संख्या में कानून ऐसे हैं, जिनकी जरूरत नहीं है या उनमें बदलाव की जरूरत है। इन पर विचार करने के लिए संसद को समय चाहिए।

हम जबर्दस्त अधूरेपन के शिकार है। कानूनी बदलाव के साथ जुड़ा है प्रशासनिक सुधार का काम। यह अधूरापन केवल सरकार में नहीं समूची राजनीति में है। आजादी के बाद से देश में प्रशासनिक सुधार के दो आयोग बनाए गए। इनकी सिफारिशें लागू करना बड़ी चुनौती है। लोकपाल की नियुक्ति को लेकर पिछले लगभग पचास साल से जद्दोजहद चल रही है। सन 2011 में चले आंदोलन के बाद यूपीए सरकार ने चलते-चलाते इसका कानून पास कर दिया, पर लोकपाल की नियुक्ति अभी तक अटकी पड़ी है। सुप्रीम कोर्ट ने पूर्व आईपीएस अधिकारी प्रकाश सिंह की याचिका पर आठ साल पहले सरकार को निर्देश दिया था कि वह पुलिस सुधार का काम करे। ज्यादातर राज्य सरकारों की दिलचस्पी इसमें नहीं है।

पिछले दिनों फिल्म अभिनेता सलमान खान को सज़ा सुनाए जाने से पहले बड़ी संख्या में लोगों का कहना था हमें अपनी न्याय-व्यवस्था पर पूरा भरोसा है। सज़ा घोषित होते ही उन्होंने कहा, हमारा विश्वास सही साबित हुआ। पर फौरन ज़मानत मिलते ही लोगों का विश्वास डोल गया। निष्कर्ष है कि गरीब के मुकाबले अमीर की जीत होती है। क्या इसे साबित करने की जरूरत है? न्याय-व्यवस्था से गहराई से वाकिफ सलमान के वकीलों ने अपनी योजना तैयार कर रखी थी। इस हुनर के कारण ही वे बड़े वकील हैं, जिसकी लम्बी फीस उन्हें मिलती है। व्यवस्था में जो उपचार सम्भव था, उन्होंने उसे हासिल किया।

हमें इसके पीछे अन्याय की गंध आती है तो उसके पीछे का कारण पूरी व्यवस्था में छिपा है। उसे खोज निकालना और ठीक करना इतना आसान नहीं, जितना नजर आता है। संविधान की प्रस्तावना लिख देने भर से सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय की स्थापना नहीं हो जाती। कानून के सामने समता का सिद्धांत, केवल सिद्धांत नहीं, व्यावहारिक होना चाहिए। पर आज के हालात में एक गरीब व्यक्ति क्या न्याय प्राप्त करने की स्थिति मैं है? गलती केवल न्याय-व्यवस्था की है या पूरी समाज-व्यवस्था की?

केन्द्रीय विधि और न्याय मंत्री डीवी सदानंद गौडा ने हाल में राज्यसभा में कहा कि देश में विभिन्न अदालतों में लंबित मुकदमों की संख्या को देखते हुए राष्ट्रीय मुकदमा नीति की जरूरत है, जिसका मसौदा तैयार किया जा रहा है। निचली अदालतों से लेकर उच्चतम न्यायालय तक लटके मुकदमों की संख्या में पिछले तीन चार वर्षों में कमी आ रही है, लेकिन बड़ी संख्या में नए मुकदमे भी दर्ज हो रहे हैं। अभी निचली अदालतों में लगभग ढाई करोड़ और सर्वोच्च न्यायालय में लगभग 40 लाख मुकदमे लंबित हैं। मोटे तौर पर हमारे देश में तीन करोड़ मामले अदालतों में हैं।

सार्वजनिक स्वास्थ्य, शिक्षा, चुनाव प्रणाली, प्रशासन और न्याय-व्यवस्था में सुधार हमारी बुनियादी ज़रूरत है। ऐसा नहीं है तो यह सामाजिक व्यवस्था का दोष है। दुर्भाग्य से ये पाँचों जिंस पैसे से खरीदी जा रही हैं। पुलिस का एक सिपाही सब्जी का ठेला लगाने वाले या रिक्शा चलाने वाले की रोज़ी-रोटी रोक सकता है। यह अन्याय है, जिसे आप हर रोज़ देखते हैं। सबसे बड़ी खामी है न्याय में लम्बा विलम्ब। न्याय प्रणाली खराब होने के लिए अदालतों को जिम्मेदार ठहराया जाता है, लेकिन कानून बनाने का जिम्मा विधायिका का है और बुनियादी सुविधाएं जुटाना कार्यपालिका का काम है। विधायिका और कार्यपालिका की कमजोरी के कारण व्यवस्था में असंतुलन भी पैदा हुआ है।

इन सब क्षेत्रों में सुधार के लिए राजनीति में सुधार होना चाहिए। विडंबना है कि ज्यादातर राजनीतिक दलों के भीतर आंतरिक लोकतंत्र नहीं है। वे हाईकमान प्रणाली पर चलते हैं। उनके फैसले किसी डिक्टेटर के हाथ में हैं। ज्यादातर चुनाव बड़े आदर्शों के नाम पर लड़े जाते हैं, पर वोटर को जातीय, साम्प्रदायिक और क्षेत्रीयता के नाम पर लुभाने की कोशिश की जाती है। इसे कौन सुधारेगा? हाल के वर्षों में देखने में आ रहा है कि तकरीबन दस फीसदी मतदाता संकीर्ण सवालों से प्रभावित नहीं होते। हमारी आशा की किरण वही दस फीसदी हैं। उनकी तादाद बढ़नी चाहिए। वे सामने आएंगे तो व्यवस्थागत सुधार भी हो जाएंगे।

हरिभूमि में प्रकाशित

1 comment:

  1. Anonymous3:59 PM

    Yeh lekh anay sabhi leading hindi akhbaro mai chchapna chahiye. Vistrit jaankaari ke liye dhanyvad

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