प्रधानमंत्री पद
का एक अनार और ‘इच्छाधारी’ सौ बीमार भारत की इच्छाधारी
राजनीति बड़े रोचक दौर में प्रवेश कर रही है। हालांकि अभी लोकसभा चुनाव तकरीबन एक साल
दूर है, पर तय होने लगा है कि प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी कौन है। दो प्रत्याशी दौड़
में सबसे आगे हैं। नरेन्द्र मोदी और राहुल गांधी। पर कम से कम आधा दर्जन प्रत्याशी
और हैं। इनमें नीतीश कुमार, मुलायम सिंह, मायावती, ममता बनर्जी, शरद पवार, जे जयललिता,
पी चिदम्बरम, एके एंटनी सहित कुछ नाम और हैं। प्रधानमंत्री बनने की इनकी सम्भावनाओं
और कामनाओं के ऐतिहासिक कारण हैं। जुलाई 1979 के पहले कौन कह सकता था कि चौधरी चरण
सिंह प्रधानमंत्री बनेंगे? इसी तरह दिसम्बर 1989 के पहले वीपी सिंह के बारे में, नवम्बर 1990 के पहले
चन्द्रशेखर के बारे में, जून 1991 के पहले पीवी नरसिंहराव के बारे में, जून 1996 के
पहले एचडी देवेगौडा के बारे में और अप्रेल 1997 के पहले इन्द्र कुमार गुजराल के बारे
में कहना मुश्किल था कि वे प्रधानमंत्री बनेंगे, पर बने। वे किसी पार्टी के प्रधानमंत्री
पद के दावेदार नहीं थे। इसी तरह जनवरी 1966 में लाल बहादुर शास्त्री के असामयिक निधन
के बाद इंदिरा गांधी के और अक्टूबर 1984 में इंदिरा गांधी के निधन के बाद राजीव गांधी
के प्रधानमंत्री बनने की परिस्थितियाँ असामान्य थीं। कई बार हालात अचानक मोड़ दे देते
हैं और तमाम तैयारियाँ धरी की धरी रह जाती हैं। इसलिए देश की राजनीति में एक तबका ऐसा
भी है जो विपरीत राजयोग का इंतज़ार करता रहता है। परिस्थितियाँ बनें और राजतिलक हो।
‘अनिच्छा’ की राजनीति
देश को सबसे ज्यादा
प्रधानमंत्री कांग्रेस ने दिए हैं। और इनमें नेहरू गांधी परिवार इस पद का स्वतः दावेदार
होता है। इसी नियम से राहुल गांधी का दावा है। पर अब इसमें एक पेच पैदा हो गया है।
हालांकि राहुल गांधी मीडिया और जनता के साथ ज्यादा संवाद नहीं करते, पर हाल में एक
मौका आ गया जब उन्होंने अपने जीवन की वरीयताओं का विवेचन किया। तभी किसी ने उनसे लगे
हाथ पूछ लिया कि क्या आप प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं? राहुल ने कहा, गलत सवाल।
मेरी प्रथमिकता प्रधानमंत्री बनना नहीं है। तो क्या वास्तव में राहुल प्रधानमंत्री
नहीं बनना चाहते? सच यह है कि वे बनना चाहते तो अगस्त 2011 में
बन जाते जब अन्ना हज़ारे आंदोलन के कारण मनमोहन सिंह की सरकार अर्दब में आ गई थी। पिछले
साल अक्टूबर में तो मनमोहन सिंह ने उन्हें मंत्रिमंडल में शामिल होने का निमंत्रण भी
दिया था। व्यक्तिगत रूप से राहुल ने प्रधानमंत्री बनने की ख्वाहिश कभी ज़ाहिर ही नहीं
की। पर यह वक्तव्य तो बात को एकदम साफ करता है कि वे 2014 में भी प्रधानमंत्री पद के
दावेदार नहीं हैं।
उनके इस बयान का
मतलब क्या है? यही कि वे पद के लालची नहीं हैं। उनकी इच्छा है कि कांग्रेस पार्टी के भीतर
बदलाव हो। इसकी कोई रीति-नीति नहीं है, कोई व्यवस्था नहीं। जयपुर में उन्होंने अपनी
इसी बात को रेखांकित किया था। वे खुद कहते हैं कि मैं ‘हाईकमान संस्कृति’ के खिलाफ हूँ। मैं कुछ लोगों को ताकतवर बनाने
के बजाय ज्यादा से ज्यादा लोगों को ताकतवर बनाना चाहता हूँ। संगठन मेरी प्राथमिकता
है और मैं इसमें बड़े बदलाव की तैयार कर रहा हूँ। वे कहते हैं, ‘आज मैं देखता हूं कि अधिकार के बिना सांसद कैसा महसूस करते हैं। यह स्थिति सभी
दलों में है, चाहे कांग्रेस हो या बीजेपी। मैं संसद में
720 सांसदों को अधिकार सम्पन्न बनाना चाहता हूं। यानी वे मध्यम श्रेणी के नेताओं को
ताकतवर बनाना चाहते हैं। देश में कुछ ऐसे दल हैं जिसका संचालन एक नेता (बसपा), दो नेता (सपा), पांच या छह नेता (बीजेपी) और 15 से 20 नेता
(कांग्रेस) करते हैं। वे सांसदों और विभिन्न राज्यों के करीब 5000 हजार विधायकों को
अधिकार सम्पन्न बनाना चाहते हैं।
राहुल गांधी कहते
हैं कि तत्काल विवाह की मेरी कोई योजना नहीं है।
‘अगर मेरा विवाह
हुआ और बच्चे हुए तब मैं यथास्थितिवादी हो जाउंगा और चाहूंगा कि मेरे बच्चे मेरा स्थान
लें।’ भारतीय परम्परा से यह आदर्श स्थिति है।
भाई-भतीजावाद से मुक्त होने की यह ऋषि परम्परा है। यदि वे आदर्शवादी है, सत्ता की राजनीति
में दिलचस्पी नहीं रखते तो फिर वे यहाँ क्या कर रहे हैं? एक टिप्पणीकार ने लिखा,
वे एनजीओ खोलकर क्यों नहीं बैठ जाते? उनकी व्यक्तिगत धारणा सत्ता
के व्यामोह से बाहर रहने की है तो क्या वे दूसरे नेताओं की इस प्रवृत्ति को खत्म कर
पाएंगे? सन 2004 में जब सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री बनने के
प्रस्ताव को ठुकराया था, तब भी यही बात कही गई थी कि उन्हें सत्ता का लालच नहीं है।
पर सत्ता केवल लालच का नाम नहीं है। वह जिम्मेदारी भी है। राजनीति दुधारी तलवार है,
उसमें तमाम लोभ-लालच हैं, पर वह करोड़ों लोगों की कामनाओं को पूरा करने वाला मंच भी
है। वह असम्भव को सम्भव बनाने की कला है। हम उससे भागकर नहीं जा सकते।
राहुल गांधी का
प्रधानमंत्री बनना या न बनना क्या उनका निजी मामला है? निजी मामला होता तो इतनी
बड़ी पार्टी के शिखर पर क्यों होते? पार्टी को भी तो उन्हें अपना
नेता बनाने का अधिकार है। शायद इसी बात को व्यक्त करते हुए राहुल गांधी के बयान के
फौरन बाद संदीप दीक्षित का बयान आया कि प्रधानमंत्री पद के लिए वे सबसे डिज़र्विंग
प्रत्याशी हैं। इन बातों में क्या कोई अंतर्विरोध है? या फिर
यह वैसा ही राजनीतिक पाखंड है, जिसका विरोध राहुल गांधी कर रहे हैं। पर सवाल यह है
कि क्या समूची राजनीति पाखंड नहीं है? प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह,
पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी से लेकर भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह और नरेन्द्र मोदी तक
क्या पाखंडों की कतार नहीं है? हम अपनी छवि बनाने के लिए कुछ
कहते और करते हैं और व्यवहार में कुछ और। क्षेत्रीय छत्रपों की ओर बढ़ें तो यह पाखंड
और खुल्लम-खुल्ला दिखाई पड़ता है।
और यह अदम्य ‘इच्छा’
नरेन्द्र मोदी ने
कभी नहीं कहा कि मैं प्रधानमंत्री बनना चाहता हूँ, पर कभी यह भी नहीं कहा कि नहीं बनना
चाहता। हर मौके पर परोक्ष रूप में कहा कि हाँ बनना चाहता हूँ। एक समय तक लगता था कि
पार्टी के भीतर ही उनका विरोध है, पर वे धीरे-धीरे आगे बढ़ते गए। फिर कहा गया कि वे
गुजरात का चुनाव जीते तो प्रधानमंत्री पद के दावेदार बन जाएंगे। पर गुजरात चुनाव उनका
सबसे बड़ा संकट था। ऐसा कहा जा रहा था कि वे जीत भी गए तो मामूली अंतर से जीतेंगे।
पर जीत अच्छी थी, यह देखते हुए कि केशुभाई के रूप में उनके अंतर्विरोध प्रखर हो चुके
थे। कांग्रेस पार्टी की तैयारी बेहतर थी। और एंटी इनकम्बैंसी तो थी ही। पर भले ही आँकड़ों
में कुछ हो एक तरह से मोदी की यह सबसे बड़ी जीत थी। और इसीलिए उनका शपथ-ग्रहण समारोह
एक प्रकार से लोकसभा चुनाव-2014 का प्रस्थान बिन्दु बना। इसके बाद दिल्ली के श्रीराम
स्कूल ऑफ कॉमर्स में उनके भाषण ने राजनीति के मोदी-पंथ का प्रोमो
पेश किया। कॉरपोरेट
जगत के प्रिय-पात्र वे पहले ही बन चुके हैं। अब वे कांग्रेस को दीमक कहते हैं और मनमोहन
सिंह को नाइट वॉचमैन। उनके पास रेडीमेड लोकप्रिय जुम्ले हैं और इमेज दुरुस्त करने वाली
सुगठित मशीनरी उनके लिए काम कर रही है। सबसे बड़ी बात यह है कि वे कांग्रेस के नेताओं
को प्रोवोक करने में सफल साबित हो रहे हैं। भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी
में मोदी ने कांग्रेस पार्टी को 'दीमक'
कहा जो देश को खोखला कर रही है। उन्होंने बीजेपी
को मिशन वाली और कांग्रेस को कमीशन वाली पार्टी कहा। इस पर भड़के मणिशंकर अय्यर ने
कहा, "मोदी साँप हैं, बिच्छू हैं। और ऐसा गंदा आदमी की हमारी आलोचना करता है तो हम इसे अपनी प्रशंसा
मानते हैं।” बहरहाल मोदी ऐसी फुलझड़ियाँ छोड़ने में माहिर हैं, जो उन्हें लगातार खबरों
में बनाए रखती हैं। मोदी ने मणिशंकर अय्यर को ही नहीं प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को
भड़का दिया, जिन्होंने राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर हुई बहस का जवाब
देते हुए भाजपा के लिए कुछ कटु शब्द बोले जो उनकी शैली से बाहर के थे। इस पर मीडिया
में ‘द माउस दैट रोअर्ड’ (चूहा, जो गरजा)
जैसे शीर्षकों के साथ प्रतिक्रिया सामने आई। अंततः इन सब बातों का लाभ मोदी को मिला।
जितना फायदा वे अमेरिका के वार्टन स्कूल के कार्यक्रम में बोलकर उठाते, उससे ज्यादा
फायदा उनके कार्यक्रम के रद्द होने से उन्हें मिला।
मोदी आज भी भाजपा
के प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी नहीं हैं, पर पार्टी की कार्यकारिणी की हाल में हुई
बैठक नए पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह की नियुक्ति की पुष्टि के लिए हुई थी, पर लगता
था कि उन्हें प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी बनाने की पुष्टि हो गई है। गुजरात चनाव
के पहले मोदी के बारे में यह बात विश्वास के साथ नहीं कही जा सकती थी। अलबत्ता सन
2011 में अमेरिकी संसद की कांग्रेशनल रिसर्च सर्विस ने अनुमान ज़ाहिर किया था कि
2014 का चुनाव राहुल और मोदी के बीच होगा। इस रिपोर्ट के अनुसार राहुल में अब भी आत्मविश्वास
नज़र नहीं आता। बहरहाल अब कम से कम बीजेपी के भीतर मोदी को रोकना आसान नहीं होगा। ऐसा
है तो अब एनडीए के समीकरणों की ओर भी देखना होगा। क्या अब जेडीयू अलग होगा? इस बार के केन्द्रीय बजट
में बिहार के लिए की गई व्यवस्थाओं के कारण अनुमान लगाया जा रहा है कि कांग्रेस और
जेडीयू की नजदीकियाँ बढ़ेंगी। पर यह इतना सरल नहीं है। जेडीयू मूलतः कांग्रेस विरोध
की पार्टी है। वह कांग्रेस के साथ जाएगी तो उसे अपने समर्थकों को जवाब देना होगा। दूसरे
लालू यादव और रामविलास पासवान क्या करेंगे? तीसरे बिहार पैकेज
मिल भी जाए तो क्या उससे नीतीश कुमार की लोकप्रियता बढ़ जाएगी क्या? चौथे, बीजेपी के साथ रहने के भी कुछ फायदे थे। क्या कांग्रेस उतने राजनीतिक
फायदे दे पाएगी? या क्या देना चाहेगी?
महत्वाकांक्षाएं
अभी और भी हैं
राहुल गांधी ने
जब कहा कि प्रधानमंत्री पद मेरी वरीयता में नहीं है, तब एक अनुमान लगाया गया कि कहीं
ऐसा तो नहीं कि वे सोनिया गांधी की परम्परा में चलना चाहते हों। यानी वे भी अपना मनमोहन
खोजें। ऐसा हुआ तो कौन बनेगा नया मनमोहन? कुछ लोगों ने नाम सुझाया पी चिदम्बरम। एके एंटनी
सीनियर हैं, अच्छी छवि है। वे भी बन सकते हैं। नाम तो अभी और भी है, पर क्या ऐसा होगा? पिछले साल उत्तर प्रदेश में जीत हासिल करने के बाद मुलायम सिंह यादव ने घोषणा
कर दी कि लोकसभा चुनाव समय से पहले हो सकते हैं। उन्हें और ममता बनर्जी को उम्मीद है
कि लोकसभा चुनाव में उनका प्रदर्शन बेहतर होगा। ऐसी उम्मीद मायावती को भी है। और मोदी-ऊर्जा
से संचालित भाजपा को भी उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, दिल्ली और राजस्थान में बेहतर नतीज़ों
की उम्मीद है। दस-दस, बीस-बीस सासंदों वाली पार्टियों के नेता प्रधानमंत्री पद के दावेदार
हैं। पर क्या यह सम्भव है? जिस देश में मधु कोड़ा मुख्यमंत्री
बनने में सफल हुए हों, वहाँ कुछ भी सम्भव है। हम चरण सिंह से लेकर देवेगौडा और गुजराल
तक ‘विपरीत राजयोग’ के प्रसंग देख चुके
हैं। हालांकि ऊपर गिनाई एक भी गैर-कांग्रेस, गैर-भाजपा सरकार पूरे एक साल भी नहं चल
पाई, पर सपने अपनी जगह हैं। लालकिले के प्राचीर से एक बार देश को सम्बोधित करने का
सपना। यों भी राजनीति असम्भव को सम्भव बनाने का काम करती है। हो सकता है, इस बार ऐसा
ही हो।
राज माया में प्रकाशित
इच्छाधारी सर्प हैं, हटे दृश्य वीभत्स |
ReplyDeleteनाग नाथ को नाथ ले, साँप नाथ का वत्स |
साँप नाथ का वत्स, अघासुर पड़ा अघाया |
हुई मुलायम देह, बहुत भटकाई माया |
मनुज वेश में आय, वोट की मांगे भिक्षा |
सुगढ़ सलोनी देह, वोट देने की इच्छा ||
utkrishtatam.....
ReplyDeleteI always spent my half an hour to read this webpage's content all the time along with a cup of coffee.
ReplyDeleteVisit my webpage - Continued
pramod jee to kya aap esse kuch adhik ya naya ya viprit hone ki chahat rakhte hai ..jo kuch ho raha hai .wo kuch nahi hona chahiye .lekin 1947-48 me mp ke bastar me jo hua ya us tarah ya us raste par chalte huye hamne yah desh banaya ....imli ropoge to aam ke phal kaise lagenge ....rahul... modi....rajnath ...ya koi aur bhoot ke nath thoda aur pahle jao na aur agar nahi ja sakte to kuch aur bad ka injaar karo na joshi jee..pradhan mantriyon ke chakkar me padte padate ho is desh me ab tak sirf pradhan mantri ya mantri jane hai. aur har ke sath upja hai garibi bharstachar anachar durachar aur bazar jisme roj bikne ka entjar karte hai hamare jaise log ....ab tak kisi ne kharida nahi pucha bhi nahi u din ka intjar karo joshi ji jab yahan ke har khet me sirf bazar laga hoga koi khet aisa nahi bachega jisme upjaya ja sake sirf bazaro ka kya karoge ..
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