नरेंद्र मोदी के शपथ ग्रहण समरोह में दक्षिण भारत के तीन राज्यों के मुख्यमंत्री भाग नहीं ले रहे हैं। ये हैं केरल, कर्नाटक और तमिलनाडु। तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता ने सम्भवतः ओडिशा के नवीन पटनायक और बंगाल की मुख्यमंत्री नवीन पटनायक के साथ कोई अनौपचारिक मोर्चा बना लिया है। शपथ ग्रहण के साथ शुरू हुई राजनीति ही भविष्य की दिशा तय करेगी। फिलहाल एनडीए सरकार संख्याबल में कमजोर नहीं है। पर बेहतर लोकतंत्र के लिए बेहतर विपक्ष भी जरूरी है। ऐसा विपक्ष जो देश हित समझता हो। उसे केवल केंद्र सरकार का विरोधी ही नहीं होना चाहिए, बल्कि जनता के हित को समझने वाला भी होना चाहिए। भविष्य बताएगा कि इस बार कैसा विपक्ष तैयार होकर आया है।
इस चुनाव में देश
को एक स्थिर और मजबूत सरकार का मिलना जितना शुभ लक्षण है उतना ही एक बिखरे और
अनमने विपक्ष का उभर कर आना परेशान करता है. यह परेशानी केवल संख्या को लेकर नहीं
है. विपक्ष का गुणात्मक ह्रास भी हुआ है. फिलहाल ऐसा लगता है कि राजनेताओं ने
जय-पराजय को व्यक्तिगत रूप से लिया है. उसे जनता की मनोकामनाओं से नहीं जोड़ा. चुनाव
में कम से कम तीन ताकतों की पराजय ध्यान खींचती है. पहली है कांग्रेस, जो आज़ादी
के बाद से भारत की अवधारणा को मूर्त करने वाली पार्टी रही है. दूसरी पराजय वामपंथी
पार्टियों की है. इन पार्टियों की देश के औद्योगिक और खेत मजदूरों के हितों की
लड़ाई में अग्रणी भूमिका रही. इनका नेतृत्व अपेक्षाकृत साफ-सुथरा रहा, फिर भी ये
पार्टियाँ देश की मुख्यधारा में सबसे आगे कभी नहीं रहीं. पर इस चुनाव में तो उनके
अस्तित्व का संकट पैदा हो गया है. तीसरी ताकत है आम आदमी पार्टी, जिसका उदय जितनी
तेजी से हुआ, पराभव उससे भी ज्यादा तेज गति से होता नजर आता है.