वैश्विक स्वतंत्रता पर नज़र रखने वाले अमेरिकी थिंकटैंक 'फ्रीडम हाउस' की नजर में भारत अब ‘पूर्ण-स्वतंत्र’ नहीं ‘आंशिक-स्वतंत्र देश’ है। हालांकि इस रिपोर्ट से आधिकारिक या औपचारिक रूप से देश पर प्रभाव नहीं पड़ता है, पर प्रतिष्ठा जरूर प्रभावित होती है। इसीलिए भारत सरकार ने शुक्रवार को इस रिपोर्ट में उठाए गए मुद्दों का जवाब दिया है। विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता और वित्तमंत्री निर्मला सीतारमन ने भी इसकी आलोचना की है।
सालाना जारी होने
वाली इस रिपोर्ट में पिछले कुछ वर्षों से भारत की रैंक लगातार गिर रही थी, फिर भी उसे ‘स्वतंत्र’ की श्रेणी में रखा जा
रहा था, पर इस साल की रिपोर्ट
में ‘आंशिक-स्वतंत्र देश’ का दर्जा देकर इस संस्था ने कुछ सवाल खड़े किए हैं।
पिछले तीन साल में भारत को दिए गए अंक 77 से घटकर इस साल 67 पर आ
गए हैं। यह अंक स्वतंत्र देश होने के लिए आवश्यक 70 से तीन अंक नीचे है।
‘आंशिक-स्वतंत्रता’
'फ्रीडम हाउस' के आकलन में दो प्रकार की स्वतंत्रताओं के आधार पर किसी देश की स्वतंत्रता का फैसला होता है। एक राजनीतिक स्वतंत्रता और दूसरे नागरिक स्वतंत्रता। राजनीतिक स्वतंत्रता यानी चुनाव और अन्य व्यवस्थाएं, जिसके लिए इस रेटिंग में 40 अंक रखे गए हैं। इसमें भारत को 34 अंक दिए गए हैं। यानी राजनीतिक स्वतंत्रता में भारत दुनिया के शीर्ष देशों में शामिल है, पर नागरिक स्वतंत्रता में 60 में से 33 अंक मिले हैं। इस प्रकार कुल 67 अंक हैं। इनमें इंटरनेट पर लगी बंदिशें भी शामिल हैं, जो अगस्त 2019 में अनुच्छेद 370 की वापसी के बाद कश्मीर की घाटी में लगाई गई थीं।
रिपोर्ट में सबसे
बड़ी संख्या ‘आंशिक-स्वतंत्र’ देशों की है। इनमें हालांकि भारत का स्थान
अपेक्षाकृत ऊँचा है, क्योंकि
स्वतंत्र-देशों के लिए आवश्यक 70 अंकों से हमारे तीन अंक ही कम हैं, पर 37 अंक पाने वाला
पाकिस्तान भी उसी ‘आंशिक’ श्रेणी में है, जिसमें भारत है। ध्यान दें पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर को 28 अंक और हमारे जम्मू कश्मीर को 27 अंक मिले हैं। दोनों ‘नॉट फ्री’ इलाके हैं।
जम्मू-कश्मीर में जिस साल इंटरनेट पर रोक लगाई गई, तब उसे 28 अंक मिले थे और जब
4-जी की वापसी हुई और जिला विकास परिषद के चुनाव हुए, तब एक अंक और कम हो गया। ऐसा
क्यों?
राजनीतिक
शब्दावली
भारत में सन 2014 के बाद हुए राजनीतिक बदलाव का उल्लेख 'फ्रीडम हाउस' की रिपोर्ट में कई बार हुआ है। देश के कई हिस्सों
में गोरक्षा के नाम मुसलमानों पर हुए हमलों, नागरिकता कानून, नागरिकता रजिस्टर तथा सन 2020 के दिल्ली दंगों का उल्लेख भी है। पर यह मामला 2014 से ही जुड़ा हुआ नहीं है। सन 2002 के गुजरात दंगों के बाद से अंतरराष्ट्रीय
स्तर और खासतौर से अमेरिका में एक लॉबी बीजेपी के खिलाफ भी सक्रिय है। यह सिर्फ
संयोग नहीं है कि नरेंद्र मोदी का वीज़ा जिस समय अमेरिका में रद्द हुआ, उस समय देश में बीजेपी-विरोधी सरकार थी।
सवाल इस संस्था के
राजनीतिक रुख को लेकर है। उसकी शब्दावली देश की आंतरिक राजनीति से प्रभावित लगती
है। ज्यादा बड़े सवाल साथ ही देश की सम्प्रभुता से जुड़े हैं। रिपोर्ट के साथ लगे
भारत के नक्शे से जम्मू-कश्मीर और लद्दाख को गायब करना गम्भीर सवाल खड़े करता है।
उसे देश के नक्शे से छेड़खानी करने का अधिकार किसने दे दिया?
आंतरिक शक्ति
इस रिपोर्ट से
हमारे ऊपर सीधे कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा, पर संयुक्त राष्ट्र और मानवाधिकार से जुड़ी संस्थाओं में भारत को निशाने पर
लिया जा सकेगा। ऐसा भी नहीं है कि रिपोर्ट में जिन तथ्यों का उल्लेख किया गया है,
वे पूरी तरह आधारहीन हैं, पर उनसे जो निष्कर्ष निकाले गए हैं,
उनमें कई प्रकार के छिद्र हैं। देश का
मतलब केवल सरकार नहीं है, जनता भी है, जिसके लोकतांत्रिक मंसूबों और हौसलों को भी
तो दर्ज होना चाहिए।
रिपोर्ट में इस
बात का जिक्र तो है कि भारतीय पुलिस ने मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को देशद्रोह के
आरोप में गिरफ्तार किया है, पर
इस बात का जिक्र नहीं है कि देश की अदालतों ने कई मौकों पर देशद्रोह के आरोपों को
लेकर सरकार के विरुद्ध टिप्पणियाँ की हैं। तबलीगी जमात को लेकर आरोप लगे, पर अदालतों ने न केवल पुलिस की आलोचना की,
साथ ही मीडिया को भी लताड़ बताई है।
स्वतंत्र प्रेस
न्यायपालिका,
मानवाधिकार आयोग, अल्पसंख्यक आयोग और महिला आयोग भी हैं। सरकार की आलोचना करने
वाला मीडिया भी है। क्या भारत का पूरा मीडिया ‘गोदी-मीडिया’ है? क्या मीडिया में नागरिक-स्वतंत्रता के सवाल
उठने बंद हो गए हैं? फ्रीडम
हाउस ने सरसरी बातों से गहरे निष्कर्ष निकाले हैं। बेहतर होता कि कुछ वास्तविक
उदाहरण रखे जाते।
सुप्रीम कोर्ट से
लेकर निचली अदालतों तक ने माना है कि सरकार की आलोचना करना देशद्रोह के दायरे में
नहीं आता। दिशा रवि की जमानत ने इस बात की पुष्टि की है। यह भी सच है कि देश में
अनेक कठोर कानून हैं, पर आतंकवादी
गतिविधियों का इतिहास भी है। इन कानूनों का सीधा रिश्ता 2014 के राजनीतिक बदलाव से नहीं है। वे दशकों पहले से
किसी न किसी रूप में लागू हैं। हम उनके दुरुपयोग के खिलाफ लड़ेंगे, पर कट्टरपंथी
हमलों से स्वतंत्रता को बचाना भी है। कट्टरपंथ केवल हिंदू-कट्टरपंथ ही नहीं है।
भारत के बारे में पश्चिमी
दृष्टि सन 1947 के बाद से ही
बन रही है। कश्मीर मामले को संयुक्त राष्ट्र लेकर जाने पर क्या हुआ? विभाजन से जुड़ी ब्रिटिश राजनीति में भी उसके बीज हैं। भारत की गिनती दुनिया
में लोकतांत्रिक देशों के नेता के रूप में की जाती है। खतरा वैश्विक समुदाय के
कमजोर होने का है। 1.30 अरब की
आबादी वाले देश को अलग करके क्या लोकतांत्रिक बिरादरी को खतरा पैदा नहीं होगा? रूस और चीन तो आंशिक-स्वतंत्र भी
नहीं हैं।
दर्जा कम करने के
जो कारण गिनाए गए हैं, उनमें
कोविड-19 के दौरान लागू किया
गया लॉक-डाउन भी है। लॉक-डाउन का उद्देश्य नागरिकों की रक्षा करना था या अधिकारों
को दबाना? क्या लॉक-डाउन भारत
में ही हुआ था, यूरोप के देशों
में नहीं? कुछ स्वयंसेवी
संगठनों को मिलने वाले विदेशी धन को लेकर सख्ती बरते जाने की भी आलोचना की गई है।
नागरिकता कानून में बदलाव देश की संसद ने किया था। एमनेस्टी इंटरनेशनल की सम्पत्ति
पर लगाई गई रोक के संदर्भ में भारत सरकार ने स्पष्ट किया है कि इस संस्था ने सन 2000
में विदेशी धन ग्रहण करने की अनुमति केवल एकबार ली थी। बीस साल से वह
अनुमति नहीं ले रही। क्या उसे भारतीय कानून नहीं मानने का अधिकार मिल गया है?
भारत
के विदेश मंत्रालय की प्रतिक्रिया यहाँ पढ़ें
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