फ्रांस की संसद ने बुर्का पहनने पर पाबंदी लगाने का प्रस्ताव पास कर दिया है। हालांकि अभी यह कानून नहीं बना है। उसके लिए सितम्बर में इस प्रस्ताव को उच्च सदन यानी सीनेट से भी पास कराना होगा, पर इस कदम को जिस तरह का समर्थन प्राप्त है उससे लगता है कि यह प्रस्ताव आसानी से पास हो जाएगा।
इस कदम का मतलब कई तरह से लगाया जा रहा है। पहली नज़र में इसे इस्लाम विरोधी या मुसलमानों से छेड़खानी करने वाला कदम माना जा रहा है। यों फ्रास की संवैधानिक व्यवस्था से ताल्लुक रखने वाले जानते हैं कि यह देश गहराई से सेक्युलर है। यहाँ 1905 से लागू संवैधानिक व्यवस्था ने धर्म और राज-व्यवस्था को पूरी तरह अलग कर रखा है। यहाँ जनगणना में व्यक्ति के धर्म को दर्ज नहीं किया जाता। इस वजह से कहा नहीं जा सकता कि फ्रास में कितने व्यक्ति किस धर्म को मानते हैं। यह एक बात है। दूसरी बात यह कि यहाँ बहुसंख्यक ईसाई रहते हैं। इसलिए यह अंदेशा है कि सेक्युलरिज्म की आड़ में मुसलमानों की पहचान को ही निशाना बनाया गया है। फ्रांस के बाद अब ब्रिटेन में भी बुर्के पर पाबंदी की माँग उठ रही है।
क्या बुर्का पहनना इस्लाम की बुनियादी ज़रूरत है? शालीन लिबास पहनना सभ्यता की पहली निशानी है। आधुनिकता की आड़ में नंगेपन का जैसा बोलबाला है, वह समझ में नहीं आता। पर क्या फ्रांस के कानून के पीछे नंगेपन की संस्कृति के दर्शन होते हैं? परिधान कैसा पहना जाय यह व्यक्ति का बुनियादी अधिकार है। पर बुर्का पहनना भी क्या बुनियादी अधिकार की सीमा का उल्लंघन नही है? यों तमाम मुसलमान स्त्रियाँ बुर्के का समर्थन करतीं हैं। उन्हें बुर्का पहनने में आपत्ति नहीं है। हो सकता है कोई महिला समर्थक न हो, तो क्या उसे अपनी बात कहने का अधिकार है? बुनियादी बात यह है कि पहली माँग उनकी तरफ से ही आनी चाहिए। साथ ही उन्हें आश्वस्त होना चाहिए कि बुर्के पर पाबंदी के पीछे कोई दुर्भावना नहीं है। इक्कीसवीं सदी के समाज को डेढ़ हजार साल पुराने नज़रिए से न देखें।
बुर्के पर पाबंदी लगने पर कट्टरपंथियों की ओर से विरोध के स्वर उठेंगे। इससे कट्टरपंथ को मजबूती मिलेगी। सारी दुनिया में कट्टरपंथ की आँधी है। खासकर पाकिस्तान में इसका उभार है। चौक डॉट कॉम में मुहम्मद गिल का लेख लेख पठनीय है। हमें लगता है कि इस्लामी दुनिया में सब कट्टरपंथी ही बसते हैं। ऐसा नहीं है। आयशा उमर का यह लेख आपको अपनी राय बदलने को प्रेरित कर सकता है।
दरअसल इस्लाम के बारे में इतनी निगेटिव दृष्टि है कि हम सोच नहीं पाते कि उनमें समझदारी की बातें भी करने वाले हैं। बेशक वे कम हैं, पर हैं ज़रूर । इसी 14 जुलाई के पाकिस्तानी अखबार डॉन में छपा इरफान हुसेन का यह लेख पढ़ें। हाल में नवभारत टाइम्स में युसुफ अंसारी ने एक लेख लिखा जिसमे कहने की कोशिश की गई थी कि मुसलमानों की प्रगतिशील बातों को मीडिया में जगह नहीं मिलती। देखें युसुफ किरमानी का लेख। मैं यहाँ कट्टरपंथी बातें नहीं दे रहा। उन्हें आप कहीं से भी पढ़ सकते हैं। मेरा उद्देश्य केवल इतना है कि मुलमानों के भीतर जो समझदार तबका है उसे मज़बूत किया जाना चाहिए। ऐसे विचारों के बारे में जानकारी बढ़ाएं।
दरअसल इस्लाम के बारे में इतनी निगेटिव दृष्टि है कि हम सोच नहीं पाते कि उनमें समझदारी की बातें भी करने वाले हैं। बेशक वे कम हैं, पर हैं ज़रूर । इसी 14 जुलाई के पाकिस्तानी अखबार डॉन में छपा इरफान हुसेन का यह लेख पढ़ें। हाल में नवभारत टाइम्स में युसुफ अंसारी ने एक लेख लिखा जिसमे कहने की कोशिश की गई थी कि मुसलमानों की प्रगतिशील बातों को मीडिया में जगह नहीं मिलती। देखें युसुफ किरमानी का लेख। मैं यहाँ कट्टरपंथी बातें नहीं दे रहा। उन्हें आप कहीं से भी पढ़ सकते हैं। मेरा उद्देश्य केवल इतना है कि मुलमानों के भीतर जो समझदार तबका है उसे मज़बूत किया जाना चाहिए। ऐसे विचारों के बारे में जानकारी बढ़ाएं।