Thursday, August 29, 2024

यूरोप में बढ़ती भारतीय भूमिका


भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यूक्रेन-यात्रा ने भारतीय विदेश-नीति की स्वतंत्रता को पुष्ट करने के साथ यूरोप में नई भूमिका को भी रेखांकित किया है. यूक्रेन में मोदी ने दृढ़ता से कहा, हम तटस्थ नहीं, युद्ध के विरुद्ध और शांति के पक्ष में हैं. यह बात हमने राष्ट्रपति पुतिन से भी कही है कि यह दौर युद्ध का नहीं है.   

उनके इस दौरे से यूरोप में भारत के दृष्टिकोण को बेहतर और साफ तरीके से समझने का आधार तैयार हुआ है. इससे वैश्विक-राजनीति में भारत का कद ऊँचा होगा और यूक्रेन के साथ हमारे द्विपक्षीय-संबंध सुधरेंगे, जो युद्ध के बाद कटु हो गए थे.

यूक्रेन और रूस के युद्ध पर इस यात्रा के पूरे असर को देखने और समझने के लिए हमें कुछ समय इंतज़ार करना होगा. लड़ाई की जटिलताएं आसानी से सुलझने वाली भी नहीं हैं. पहले इस बात को अच्छी तरह समझ लें कि यह झगड़ा यूक्रेन और रूस के अलावा परोक्षतः अमेरिका और रूस के बीच का भी है.

Sunday, August 25, 2024

लड़ाई का रुख लेबनान की ओर मुड़ा

इसराइल और हिज़बुल्ला के जवाबी हमले

पश्चिम एशिया में इसराइल और उसके विरोधियों के बीच लड़ाई का एक और मोर्चा खुलने का खतरा बढ़ गया है। रविवार को इसराइल के एक सौ से ज्यादा जेट विमानों ने लेबनान में ईरान समर्थक संगठन हिज़बुल्ला के ठिकानों परहमले बोले। जवाब में हिज़बुल्ला ने तीन सौ के ऊपर मिसाइलों और ड्रोनों से इसराइल पर हमले बोले। हिज़बुल्ला ने यह भी कहा है कि फिलहाल उनका इरादा अभी और हमले करने का नहीं है।

पिछले साल 7 अक्टूबर को इसराइल पर हमास के हमले के बाद से इसराइल की उत्तरी सीमा पर लेबनान में हिज़बुल्ला भी सक्रिय हो गया है और इसराइल के सीमावर्ती इलाक़ों पर वह लगातार कार्रवाई कर रहा है। इसराइल भी हिज़बुल्ला के ठिकानों को निशाना बनाता रहा है। अब तक इन हमलों में दर्जनों लोगों की मौत हुई है।

गत 30 जुलाई को हिज़बुल्ला के टॉप कमांडर फवाद शुकर के मारे जाने के बाद से  हिज़बुल्ला की जवाबी कार्रवाई का इंतज़ार था। पर लगता है कि इसबार हमला पहले इसराइल ने किया। उसके नेतृत्व का कहना है कि हिज़बुल्ला हमारे ऊपर हमले की तैयारी कर रहा था, इसलिए हमने पेशबंदी में यह कार्रवाई की है। इसराइल का कहना है कि हमने हिज़बुल्ला की योजनाओं को विफल करते हुए, सुबह-सुबह उस पर हमला किया है।

Friday, August 23, 2024

फिर बजे चुनाव के नगाड़े

चार राज्यों के विधानसभा चुनाव से बदला माहौल


लोकसभा चुनाव के परिणाम आने के बाद से राष्ट्रीय राजनीति की बहस अभी चल ही रही है कि चार राज्यों के विधान सभा चुनाव सिर पर आ गए हैं। राजनीतिक दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण राज्य उत्तर प्रदेश में दस सीटों पर उप चुनाव होने हैं। प्रदेश के नौ विधायकों ने लोकसभा की सदस्यता प्राप्त करके अपने पद से इस्तीफा दे दिया था। प्रदेश की फूलपुर, खैर, गाजियाबाद, मझवाँ, मीरापुर, मिल्कीपुर, करहल, कटेहरी और कुंदरकी यानी नौ सीटें खाली हुई हैं। दसवीं सीट सीसामऊ सपा विधायक इरफान सोलंकी को अयोग्य करार दिए जाने से खाली हुई है। जिन 10 सीटों पर उपचुनाव होना है, उनमें से पाँच पर समाजवादी पार्टी के विधायक थे, भाजपा के तीन और राष्ट्रीय लोक दल तथा निषाद पार्टी के एक-एक। यानी इंडिया गठबंधन और एनडीए की पाँच-पाँच सीटें हैं। अब दोनों गठबंधन अपने महत्व और वर्चस्व को साबित करने के लिए चुनाव में उतरेंगे। उधर बीजेपी के भीतर से बर्तनों के खटकने की आवाज़ें सुनाई पड़ रही हैं। ये चुनाव बीजेपी और इंडिया गठबंधन दोनों को अपनी ताकत आजमाने का मौका देंगे।

दो राज्यों के चुनाव

चुनाव आयोग ने चार में से फिलहाल दो राज्यों के विधानसभा चुनावों के कार्यक्रम की घोषणा की है। जम्मू-कश्मीर में तीन चरणों में और हरियाणा में एक चरण में मतदान होगा। नतीजे 4 अक्टूबर को आएंगे। सुप्रीम कोर्ट ने जम्मू-कश्मीर में 30 सितंबर तक चुनाव कराने के लिए चुनाव आयोग से कहा था। राज्य में अनुच्छेद 370 की वापसी के बाद यह पहला विधानसभा चुनाव है। जम्मू-कश्मीर में पहले चरण का मतदान 18 सितंबर, दूसरे का 25 सितंबर और तीसरे का 1 अक्तूबर को होगा। उसी दिन हरियाणा में भी वोट पड़ेंगे। वोटों की गिनती 4 अक्टूबर को होगी।

Thursday, August 22, 2024

दक्षिण एशिया में भारत पर बढ़ता दबाव


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शनिवार को भारत की ओर से ‘ग्लोबल साउथ' के लिए कुछ पहलों की घोषणाएं की हैं, वहीं कुछ पर्यवेक्षक बांग्लादेश की परिघटना का हवाला देते हुए कह रहे हैं कि भारत की भूमिका, दक्षिण एशिया में कमतर हो रही हैं, ऐसे में ‘ग्लोबल साउथ' को कैसे साध पाएंगे

चीन के ‘बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव' (बीआरआई) के तहत कई देशों के ‘ऋण-जाल' में फँसने की चिंताओं के बीच पीएम मोदी ने भारत द्वारा आयोजित तीसरे ‘वॉयस ऑफ ग्लोबल साउथ' सम्मेलन में ‘कॉम्पैक्ट' (वैश्विक विकास समझौते) की घोषणा की.

शिखर सम्मेलन के समापन सत्र में उन्होंने कहा, मैं भारत की ओर से एक व्यापक वैश्विक विकास समझौतेका प्रस्ताव रखना चाहूंगा. इस समझौते की नींव भारत की विकास यात्रा और विकास साझेदारी के अनुभवों पर आधारित होगी.

भारत की पहल

शिखर सम्मेलन में भारत समेत 123 देशों ने हिस्सा लिया और ग्लोबल साउथ की साझा चिंताओं और प्राथमिकताओं पर विचार-विमर्श किया. उल्लेखनीय है कि चीन और पाकिस्तान इस सम्मेलन में शामिल नहीं थे. बांग्लादेश के शासनाध्यक्ष डॉ यूनुस ने इसमें भाग लिया.

सम्मेलन के वैचारिक-पक्ष को विदेशमंत्री डॉ एस जयशंकर ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में स्पष्ट करते हुए कहा कि इसकी टाइमिंग महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसके बाद न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र का समिट ऑफ द फ्यूचर होगा. जिन मुद्दों पर यहां चर्चा हुई है, उन पर वहाँ भी चर्चा होगी.

फिलहाल यह सम्मेलन भारत की पहल और विकासशील देशों के बीच उसकी आवाज़ को रेखांकित करता है. चीन भी इस दिशा में सक्रिय है. ग्लोबल साउथ से ज्यादा इस समय बड़े सवाल दक्षिण एशिया को लेकर पूछे जा रहे हैं.

विस्मृत दक्षिण एशिया

एक विशेषज्ञ ने तो यहाँ तक माना है कि दक्षिण एशिया जैसी भौगोलिक-राजनीतिक पहचान अब विलीन हो चुकी है. जैसे पश्चिम एशिया या दक्षिण पूर्व एशिया की पहचान है, वैसी पहचान दक्षिण एशिया की नहीं है. इसका सबसे बड़ा कारण है भारत-पाकिस्तान गतिरोध.

बांग्लादेश में शेख हसीना के पराभव और आसपास के ज्यादातर देशों में भारत-विरोधी राजनीतिक ताकतों के सबल होने के कारण पूछा जाने लगा है कि क्या इस दक्षिण एशिया में भारत का रसूख पूरी तरह खत्म हो गया है? इस इलाके के सर्वाधिक प्रभावशाली देश के रूप में क्या अब चीन स्थापित हो गया है, या हो जाएगा?

ऐसे सवालों का जवाब देने की घड़ी अब आ रही है. जवाब संयुक्त राष्ट्र के सुधार कार्यक्रमों और भारतीय अर्थव्यवस्था के बदलते आकार में छिपे हैं. ये दोनों बातें एक-दूसरे से जुड़ी हुई भी हैं.

नेबरहुड फर्स्ट

2014 में नरेंद्र मोदी ने जब पहली बार भारत के प्रधानमंत्री के तौर पर शपथ ली थी तो उन्होंने पड़ोसी देशों के शासनाध्यक्षों को भारत आने का न्योता देकर चौंकाया था. पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ भी उसमें शामिल हुए थे.

मोदी सरकार पहले दिन से कहती रही है कि भारत की विदेश नीति में पड़ोसी देशों को सबसे ज़्यादा महत्व मिलेगा. इसे 'नेबरहुड फ़र्स्ट' का नाम दिया गया है. मतलब यह कि दूर के देशों की तुलना में भारत, पड़ोसी देशों को ज़्यादा अहमियत देगा.

कोरोना महामारी के समय सहायता पहुँचाने और खासतौर से वैक्सीन देते समय ऐसा दिखाई भी पड़ा. बावजूद इसके दक्षिण एशिया में कारोबारी सहयोग का वैसा माहौल नहीं है, जैसा दक्षिण पूर्व एशिया सहयोग संगठन आसियान में है.

वैश्विक राजनीति

इस दौरान भारत ने अपने आर्थिक और सामरिक-संबंधों के लिए अमेरिका, रूस, जापान और इसराइल जैसे देशों को वरीयता दी. दक्षिण एशिया की तुलवा में उसके पश्चिम एशिया में यूएई, सऊदी अरब और ईरान के साथ रिश्ते बेहतर हैं. मोदी सरकार के पहले छह वर्षों में चीन से रिश्ते सुधारने की कोशिशें भी हुई थीं.

प्रधानमंत्री के रूप में मोदी के नेपाल (अगस्त, 2014), श्रीलंका (मार्च, 2015) और बांग्लादेश (जून, 2015) में गर्मजोशी से स्वागत किया गया था. पाकिस्तान के साथ भी कुछ समय तक यह गर्मजोशी रही, पर जनवरी 2016 में पठानकोट हमले के बाद वह बात खत्म हो गई और फरवरी 2019 में पुलवामा और बालाकोट जैसी घटनाओं के बाद बड़े युद्ध की आशंकाओं ने जन्म भी दिया.

अगस्त, 2019 में जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 की वापसी ने दोनों देशों के रिश्तों को ऐसा सीलबंद किया है कि उसके खुलने का अबतक इंतज़ार है. पाकिस्तान ने तो औपचारिक रूप से भारत के साथ व्यापारिक रिश्ते बंद ही कर रखे हैं.

श्रीलंका और मालदीव

भारी आर्थिक संकट के दौर में भारत ने श्रीलंका की काफी मदद की थी, वहां की सरकार ने भी दिल्ली की टेढ़ी निगाहों को नज़रंदाज़ किया और चीन के जासूसी जहाज को अपने बंदरगाह पर लंगर डालने की अनुमति दी थी. ऐसा ही मालदीव में हुआ, जहाँ इंडिया आउट जैसा अभियान चला.

इस आंदोलन के सहारे भारत-समर्थक सरकार को सत्ता से हटा कर राष्ट्रपति बने मोहम्मद मुइज़्ज़ू ने अपने देश से भारतीय सैन्यकर्मियों को हटाया और चीनी जासूसी जहाज को लंगर डालने की अनुमति दी, जबकि श्रीलंका तक ने उस जहाज को आने से रोक दिया है.

नेपाल में नए संविधान को लागू करने के दौरान भारत के मौन समर्थन से चलाए गए 'आर्थिक नाकेबंदी' कार्यक्रम को लेकर जो बदमज़गी पैदा हुई थी, वह दोनों देशों की सीमा को लेकर विवाद में बदल चुकी है. नेपाल ने अपने नए आधिकारिक नक्शे के रूप में उस कड़वाहट को स्थायी रूप दे दिया है.

इस क्षेत्र का सबसे शांत देश भूटान सामरिक, विदेशी और आर्थिक, लगभग तमाम मामलों में भारत पर निर्भर है, उसने भी अकेले अपने दम पर चीन के साथ सीमा पर बातचीत शुरू कर दी है. केवल बातचीत ही शुरू नहीं की है, बल्कि राजनयिक स्तर पर रिश्ते बनाने की शुरुआत भी कर दी है.

हसीना का पराभव

इतने देशों के साथ कड़वाहट के बावज़ूद भारत-बांग्लादेश रिश्ते बेहतर स्थिति में थे. अब वहाँ शेख हसीना को अपदस्थ होना पड़ा है और वहाँ ऐसी राजनीतिक शक्तियाँ सक्रिय हो गई हैं, जिन्हें भारत का मित्र नहीं कहा जा सकता.

क्या यह बात भारत की विदेश नीति के दोषों की ओर इशारा कर रही है या ऐसी वैश्विक-परिस्थितियों की ओर इशारा कर रही हैं, जिनमें चीन-अमेरिका और यूरोपीय देशों की भूमिका है? या यह मानें कि दक्षिण एशिया के सामाजिक-सांस्कृतिक इतिहास और इस क्षेत्र की भू-राजनीतिक संरचना के कारण इस इलाके के देश भारत की केंद्रीयता को स्वीकार करने में हिचकते हैं?

पहले यह स्वीकार करना होगा कि दक्षिण एशिया दुनिया का सबसे कम एकीकृत क्षेत्र है. यहां एक देश से दूसरे देश में आवाजाही या अंतरराष्ट्रीय सीमा संबंध जितने कठिन और जटिल हैं, उतना दुनिया के किसी और इलाक़े में नहीं हैं.

कारोबार की बात करें तो ग़रीब अफ़्रीकी देशों के बीच जितना आपसी व्यापार होता है उसकी तुलना में भी दक्षिण एशिया के देशों का आपसी व्यापार नहीं होता है, जबकि इस क्षेत्र में 200 करोड़ से ज़्यादा लोग रहते हैं.

भारत की केंद्रीयता

इन देशों के केंद्र में भारत जैसा देश है, जो इस समय दुनिया की सबसे तेज गति से विकसित होती अर्थव्यवस्था है. फिर भी इस इलाके में एकीकरण की भावना गायब है. दक्षिण एशिया सहयोग संगठन (दक्षेस) संभवतः दुनिया का सबसे निष्क्रिय संगठन है. दक्षिण एशिया में पाकिस्तान के साथ निरंतर टकराव के कारण भारत ने दक्षेस के स्थान पर बंगाल की खाड़ी से जुड़े पाँच देशों के संगठन बिम्स्टेक पर ध्यान देना शुरू किया है.

भारत के पड़ोस के राजनीतिक माहौल पर एक नज़र डालें. 2021 में म्यांमार और अफगानिस्तान में सत्ता परिवर्तन हुए. 2022 में पाकिस्तान में इमरान सरकार का पराभव हुआ. उसी साल श्रीलंका में भीड़ ने राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षा को भागने को मज़बूर किया. 2023 में मालदीव में सत्ता परिवर्तन हुआ.

नेपाल में लगातार राजनीतिक अस्थिरता चल रही है. और अब बांग्लादेश में सत्ता परिवर्तन हुआ है. यह सब शांतिपूर्ण और सुव्यवस्थित लोकतांत्रिक तरीके से हुआ होता, तब अलग बात थी. इस बात का श्रेय भारत को मिलना चाहिए, जिसने इस इलाके में अराजकता को फैसले से रोक रखा है. 

अराजक राजनीति

दक्षिण एशिया की आर्थिक बदहाली की वजह को खोजने के लिए भारत की नीतियों के अलावा इन सभी देशों की आंतरिक-परिस्थितियों पर भी नज़र डालनी चाहिए. हमारे सभी पड़ोसी देशों में जबर्दस्त उथल-पुथल चल रही है, जिसकी अभिव्यक्ति लगातार बदलते रिश्तों के रूप में होती है. इसके सबसे अच्छे उदाहरण श्रीलंका और मालदीव हैं.

जिस समय बांग्लादेश की उथल-पुथल की खबरें आ रही थी, हमारे विदेशमंत्री एस जयशंकर मालदीव के दौरे पर थे. वहां उन्हें राष्ट्रपति मोहम्मद मुइज़्ज़ू  का जैसा दोस्ताना रवैया दिखा, वह भी विस्मय की बात थी.

पिछले एक साल में मालदीव को भी कई प्रकार के अनुभव हुए हैं, पर भारत ने धैर्य के साथ परिस्थितियों के अनुरूप खुद को बदला और लगता है कि उसे सफलता मिली है. और अब ऐसा ही बांग्लादेश में भी देखने को मिल सकता है.

कुछ दूसरी बातों की ओर भी हमें ध्यान देना होगा. भारत के साथ इन देशों के क्षेत्रफल, सैनिक और आर्थिक शक्ति तथा वैश्विक प्रभाव में भारी अंतर है. केवल पाकिस्तान ही एक बड़ा देश है, जो ऐतिहासिक और सामाजिक कारणों से भारत के साथ अच्छे रिश्ते बनाने से घबराता है.

पाकिस्तान की भूमिका

पाकिस्तानी शासक मानते हैं कि भारत के साथ रिश्ते बेहतर बनाने का मतलब है विभाजन की निरर्थकता को स्वयंसिद्ध मान लेना. उनके अंतर्विरोध लगातार टकराव के रूप में व्यक्त होते हैं, जो उनके लिए ही घातक साबित होते हैं. पाकिस्तान की आर्थिक बदहाली में इसी नज़रिए का हाथ है.

भारत और पाकिस्तान के रिश्ते सुधरेंगे, तो दक्षिण एशिया का न केवल रूपांतरण होगा, बल्कि उस भू-राजनीतिक पहचान का महत्व भी रेखांकित हो सकेगा, जो हजारों वर्षों में विकसित हुई है. इस बात को स्वीकार करना होगा कि भारतीय भूखंड का सांप्रदायिक आधार पर हुआ कृत्रिम राजनीतिक-विभाजन तमाम समस्याओं के लिए जिम्मेदार है.

अमेरिका समेत ज्यादातर पश्चिमी देशों ने भारत के उभार को स्वीकार नहीं किया, बल्कि उसके स्थान पर चीन को महत्व दिया. वहीं भारतीय राजव्यवस्था ने खुली अर्थव्यवस्था को अपनाने में कम से कम चीन-चार दशक की देरी की. अब चीन हमारे पड़ोस में बड़े निवेश करने की स्थिति में है, जिससे उसे सामरिक लाभ भी मिलता है.

हिंदू-देश की छवि

दक्षिण एशिया का इतिहास भी रह-रहकर बोलता है. शक्तिशाली-भारत की पड़ोसी देशों के बीच नकारात्मक छवि बनाई गई है. मालदीव और बांग्लादेश का एक तबका भारत को हिंदू-देश के रूप में देखता है. पाकिस्तान की पूरी व्यवस्था ही ऐसा मानती है और भारत को दुश्मन की तरह पेश करती है.

इन देशों में प्रचार किया जाता है कि भारत में मुसलमान दूसरे दर्ज़े के नागरिक हैं. श्रीलंका में भारत को बौद्ध धर्म विरोधी हिंदू-व्यवस्था माना जाता है. हिंदू-बहुल नेपाल में भी भारत-विरोधी भावनाएं बहती हैं. वहाँ मधेशियों, श्रीलंका में तमिलों और बांग्लादेश में हिंदुओं को भारत-हितैषी माना जाता है.

दूसरी तरफ चीन ने इन देशों को बेल्ट रोड इनीशिएटिव (बीआरआई) और इंफ्रास्ट्रक्चर में भारी निवेश का लालच दिया है. पाकिस्तान और चीन ने भारत-विरोधी भावनाओं को बढ़ाने में कसर नहीं छोड़ी है.

चीनी सहयोग

कुछ पर्यवेक्षकों को लगता है कि भारत को चीन के साथ मिलकर अपने पड़ोस के साथ रिश्ते बेहतर बनाने चाहिए. शायद मोदी सरकार का पहला इरादा ऐसा ही था, पर 2020 के गलवान प्रकरण के बाद इस रास्ते पर बढ़ना देश की आंतरिक राजनीति के दृष्टिकोण से व्यावहारिक नहीं रहा. 

दक्षिण एशिया का आर्थिक और लोकतांत्रिक विकास तभी संभव है, जब भारत की केंद्रीयता को स्वीकार किया जाएगा. यदि भारत के विरुद्ध चीनी-पाकिस्तानी कार्ड खेले जाते रहेंगे. तब तक इस इलाके में स्थिरता आ भी नहीं पाएगी. यह बात पड़ोसी देशों की समझ में भी आनी चाहिए.

आवाज़ द वॉयस में प्रकाशित

Wednesday, August 21, 2024

लेटरल एंट्री: यानी दूध के जले…


भारत सरकार ने मिड-लेवल पर सरकार में विशेषज्ञों को शामिल करने की पार्श्व-प्रवेश योजना (लेटरल एंट्री) से फौरन पल्ला झाड़ लिया है, पर यह बात अनुत्तरित छोड़ दी है कि क्यों तो इस भर्ती का विज्ञापन दिया गया और उतनी ही तेजी से क्यों उसे वापस ले लिया गया? केंद्रीय लोकसेवा आयोग (यूपीएससी) ने मिड-लेवल पर 45 विशेषज्ञों की सीधी भर्ती के लिए 17 अगस्त को विज्ञापन निकाला था, जिसे तीसरे ही दिन वापस ले लिया गया। विज्ञापन के अनुसार 24 केंद्रीय मंत्रालयों में संयुक्त सचिव, डायरेक्टर और उप सचिव के पदों पर 45 नियुक्तियाँ होनी थीं।

इन 45 पदों में संयुक्त सचिवों के दस पद वित्त मंत्रालय के अधीन डिजिटल अर्थव्यवस्था, फिनटेक, साइबर सुरक्षा और निवेश और गृह मंत्रालय के अधीन राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनडीएमए) जैसे मामलों से जुड़े थे, जिनमें तकनीकी विशेषज्ञता की जरूरत होती है। इन पदों को सिंगल काडर पद कहा गया था, जिनमें आरक्षण की व्यवस्था नहीं थी।

सरकार का कहना है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हमेशा सामाजिक न्याय के पक्षधर रहे हैं, पर व्यावहारिक सच यह है कि जैसे दूध का जला, छाछ भी फूँककर पीता है वैसे ही लोकसभा चुनाव में धोखा खाने के बाद भारतीय जनता पार्टी कोई राजनीतिक जोखिम मोल नहीं लेगी। पर विज्ञापन जारी करते वक्त सरकार ने इस खतरे पर विचार नहीं किया होगा। लेटरल एंट्री का विरोध केवल कांग्रेस ने ही नहीं किया है, एलजेपी जैसे एनडीए के सहयोगी दल ने भी किया। अभी तो यह तीसरा दिन ही था। देखते ही देखते विरोधी-स्वरों के ऊँचे होते जाने का अंदेशा था।

Tuesday, August 13, 2024

बांग्लादेश का नया निज़ाम और भारत से रिश्ते


बांग्लादेश में डॉ मुहम्मद यूनुस ने अंतरिम सरकार के मुख्य सलाहकार पद की शपथ लेने के बाद देश की कमान संभाल ली है. उन्हें मुख्य सलाहकार कहा गया है, पर व्यावहारिक रूप से यह प्रधानमंत्री का पद है. उनके साथ 13 अन्य सलाहकारों ने भी शपथ ली है. पहले दिन तीन सलाहकार शपथ नहीं ले पाए थे. शायद इन पंक्तियों के प्रकाशित होने तक ले चुके होंगे.

इन्हें प्रधानमंत्री या मंत्री इसलिए नहीं कहा गया है, क्योंकि संविधान में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है. देश में अब जो हो रहा है, उसे क्या कहेंगे, यह कुछ समय बाद स्पष्ट होगा. पर ज्यादा बड़े सवाल सांविधानिक-संस्थाओं से जुड़े हैं, मसलन अदालतें.   

पूर्व प्रधानमंत्री खालिदा ज़िया को राष्ट्रपति के आदेश से रिहा कर दिया गया. क्या यह संविधान-सम्मत कार्य है? इसी तरह एक अदालत ने मुहम्मद यूनुस को आरोपों से मुक्त कर दिया. क्या यह न्यायिक-कर्म की दृष्टि से उचित है? ऐसे सवाल आज कोई नहीं पूछ रहा है, पर आने वाले समय में पूछे जा सकते हैं.  

न्यायपालिका

आंदोलनकारियों की माँग है कि सुप्रीम कोर्ट के जजों को बर्खास्त किया जाए. यह माँग केवल सुप्रीम कोर्ट तक सीमित रहने वाली नहीं है. अदालतें, मंडलों और जिलों में भी हैं और शिकायतें इनसे भी कम नहीं हैं.

सरकारी विधिक अधिकारियों यानी कि अटॉर्नी जनरल वगैरह को राजनीतिक पहचान के आधार पर नियुक्त किया जाता है. बड़ी संख्या में विधिक अधिकारियों ने इस्तीफा दे दिया है, पर अदालतों और जजों का क्या होगा?

डॉ यूनुस की सरकार को कानून-व्यवस्था कायम करने के बाद राजनीति, अर्थव्यवस्था और विदेश-नीति को सुव्यवस्थित करना होगा. हमारे पड़ोसी पाकिस्तान, अफगानिस्तान, नेपाल, मालदीव, श्रीलंका और बांग्लादेश कमोबेश मिलती-जुलती समस्याओं के शिकार हैं. यही हाल पड़ोसी देश म्यांमार का भी है.

इन सभी देशों में क्रांतियों ने यथास्थिति को तोड़ा तो है, पर सब के सब असमंजस में हैं. इन ज्यादातर देशों में मालदीव और बांग्लादेश के इंडिया आउट जैसे अभियान चले थे. और अब सब भारत की सहायता भी चाहते हैं. 

Friday, August 9, 2024

देस-परदेस: पश्चिम एशिया के आकाश पर युद्ध के बादल


हमास के प्रमुख इस्माइल हानिये और हिज़बुल्ला के टॉप कमांडर फवाद शुकर की हत्याओं के बाद दो तरह की बातें हो रही हैं. इसराइल और ईरान के बीच सीधी लड़ाई होने का खतरा पैदा हो रहा है. हानिये की हत्या कहीं और हुई होती, तब शायद बात दूसरी होती, पर तेहरान में हत्या होने से लगता है कि ईरान को सायास लपेट लिया गया है.

दूसरी बात इस हत्या से जुड़ी पेचीदगियाँ हैं. इतने सुरक्षित इलाके में हत्या हुई कैसे? इसराइल ने भी की, तो कैसे? ईरान की सरकारी फ़ारस समाचार एजेंसी के अनुसार, जिस जगह पर इस्माइल हनिये रह रहे थे, वहाँ बिल्डिंग के बाहर से शॉर्टरेंज प्रक्षेपास्त्र या प्रोजेक्टाइल दाग़ा गया, जिसमें सात किलो का विस्फोटक लगा था.

यह बयान ईरानी रिवॉल्यूशनरी गार्ड्स का है. इसमें कहा गया है कि इस अभियान की योजना और इसका कार्यान्वयन इसराइली सरकार ने किया था, जिसे अमेरिकी सरकार का समर्थन मिला हुआ है.

बढ़ती पेचीदगियाँ

पेचीदगी अमेरिकी मीडिया स्रोतों की इस खबर से भी बढ़ी है कि हत्या के लिए, जिस विस्फोटक का इस्तेमाल हुआ है, वह करीब दो महीने पहले उस कक्ष में लगा दिया गया था, जिसमें हानिये ठहरे थे. उसे रिमोट की मदद से दागा गया.

इसराइल ने इस सिलसिले में कोई आधिकारिक बयान जारी नहीं किया है. अमेरिका ने कहा है कि इस हमले से हमारा कोई लेना-देना नहीं है. हनिये तेहरान में कहाँ रुके थे, इस बारे में न तो आधिकारिक जानकारी उपलब्ध है और न उनकी मौत के बारे में इस बयान से ज्यादा कोई अधिक विवरण सामने आया है.

Wednesday, August 7, 2024

शेख हसीना का पराभव और अराजकता भारत के लिए अशुभ संकेत


बांग्लादेश एकबार फिर से 2007-08 के दौर में वापस आ गया है. प्रधानमंत्री शेख हसीना को अपने कार्यकाल के आठवें महीने में ही न केवल इस्तीफा देना पड़ा है, देश छोड़कर भी जानापड़ा है. वे दिल्ली आ गई हैं, पर शायद यह अस्थायी मुकाम है.

पहले सुनाई पड़ रहा था कि संभवतः वे लंदन जाएंगी, पर अब सुनाई पड़ रहा है कि ब्रिटेन को कुछ हिचक है. फिलहाल उनकी सुरक्षा की जिम्मेदारी भारत पर है. उनके पराभव से बांग्लादेश की राजनीति में किस प्रकार का बदलाव आएगा, इसका पता नहीं, पर इतना साफ है कि दक्षिण एशिया के निकटतम पड़ोसी देशों में भारत के सबसे ज्यादा दोस्ताना रिश्ते उनके साथ थे.

अब हमें उनके बाद के परिदृश्य के बारे में सोचना होगा. इसके लिए बांग्लादेश के राजनीतिक दलों के साथ संपर्क बनाकर रखना होगा. कम से कम उन्हें भारत-विरोधी बनने से रोकना होगा.

आशा थी कि शेख हसीना के नेतृत्व में देश एक स्थिर और विकसित लोकतंत्र के रूप में उभर कर आएगा, पर वे ऐसा कर पाने में सफल नहीं हुईं. देश का राजनीतिक भविष्य अभी अस्पष्ट है, पर फिलहाल कुछ समय तक यह सेना के हाथ में रहेगा.

सेना के हाथ में सत्ता बनी रही, तो उससे नई समस्याएं पैदा होंगी और यदि असैनिक सरकार आई, तो उसे लोकतांत्रिक-पारदर्शिता और कट्टरपंथी आक्रामकता के बीच से गुजरना होगा. आंदोलन के एनजीओ टाइप छात्र नेता जैसी बातें कर रहे हैं, उन्हें देखते हुए लगता है कि भविष्य की राह आसान नहीं है.

व्यवस्था या अराजकता?

देश के विभिन्न स्थानों और प्रतिष्ठानों में शेख मुजीबुर रहमान की तस्वीरों और प्रतिमाओं को तोड़ा गया, अवामी लीग के कार्यालय में आग लगाई गई. सोमवार की दोपहर, बीएनपी, जमाते इस्लामी आंदोलन सहित विभिन्न राजनीतिक दलों के शीर्ष नेता और नागरिक समाज के प्रतिनिधि ढाका छावनी से एक सशस्त्र बल वाहन में राष्ट्रपति के निवास बंगभवन गए.

राष्ट्रपति, सेना प्रमुख के साथ बंगभवन में हुई इस बैठक में अंतरिम सरकार को लेकर कई फैसले किए गए. बैठक के बाद बीएनपी महासचिव मिर्जा फखरुल इस्लाम आलमगीर ने कहा कि संसद जल्द ही भंग कर दी जाएगी और अंतरिम सरकार की घोषणा की जाएगी.

Monday, August 5, 2024

फिर से चौराहे पर बांग्लादेश


बांग्लादेश एकबार फिर से 2007-08 के दौर में वापस आ गया है। ऐसा लगता था कि शेख हसीना के नेतृत्व में देश लोकतांत्रिक राह पर आगे बढ़ेगा, पर वे ऐसा कर पाने में सफल हुईं नहीं। हालांकि इस देश का राजनीतिक भविष्य अभी अस्पष्ट है, पर लगता है कि फिलहाल कुछ समय तक यह सेना के हाथ में रहेगा। उसके बाद लोकतंत्र की वापसी कब होगी और किस रूप में होगी, फिलहाल कहना मुश्किल है। यह अभी तक स्पष्ट नहीं है कि सेना बैरक में कब लौटेगी, कर्फ्यू पूरी तरह से नहीं हटाया गया है, इंटरनेट पूरी तरह से वापस नहीं आया है और शैक्षणिक संस्थान बंद हैं।

शेख हसीना और उनके सलाहकारों ने भी राजनीतिक रूप से गलतियाँ की हैं। राजनीतिक पर्यवेक्षक मानते हैं कि उन्होंने पिछले 16 वर्षों में लोकतांत्रिक-व्यवस्था को मजबूत करने की कोशिश नहीं की और जनमत को महत्व नहीं दिया। अवामी लीग जनता के मुद्दों को नजरंदाज़ करती रही। आरक्षण विरोधी आंदोलन को 'सरकार विरोधी आंदोलन' माना गया। उसे केवल कोटा सुधार आंदोलन के रूप में नहीं देखा। शेख हसीना के बेटे और उनके आईटी सलाहकार सजीब वाजेद जॉय ने सेना और न्याय-व्यवस्था से यह सुनिश्चित करने का आह्वान किया है कि कोई भी अनिर्वाचित देश में नहीं आनी चाहिए। सवाल है कि क्या निकट भविष्य में चुनाव संभव है? भारत की दृष्टि से यह परेशानी का समय है।

Saturday, August 3, 2024

मोदी3.0: उत्साह के बावजूद आशंकाएं

गत 9 जून को, नरेंद्र मोदी ने लगातार तीसरी बार भारत के प्रधान मंत्री के रूप में शपथ लेकर एक कीर्तिमान बनाया था, जो 1962 में जवाहर लाल नेहरू के दौर के बाद पहली बार स्थापित हुआ है। उसके एक दिन बाद, उन्होंने अपनी सरकार के चार प्रमुख विभागों-रक्षा, गृह, वित्त और विदेश के मंत्रियों को उनके पुराने पदों पर फिर से नियुक्त करके न केवल निरंतरता का, बल्कि दृढ़ता का संदेश भी दिया। विरोधी इसे बैसाखी पर टिकी सरकार बता रहे हैं, पर नरेंद्र मोदी तकरीबन उसी सहज तरीके से काम कर रहे हैं, जैसे करते आए थे।

भारतीय जनता पार्टी के पास 240 सीटें हैं, जिनसे भले ही पूर्ण बहुमत साबित नहीं होता है, पर 1984 के बाद यह किसी भी एक पार्टी को प्राप्त तीसरा सबसे बड़ा जनादेश है। तीनों जनादेश नरेंद्र मोदी के नाम हैं। हालांकि कांग्रेस पार्टी ने इस चुनाव-परिणाम को मोदी की पराजय बताया है, पर सच यह है कि पिछले तीन लोकसभा परिणामों में कांग्रेस को प्राप्त सीटों को एकसाथ जोड़ लें, तब भी वे इन 240 सीटों के बराबर नहीं हैं।

आक्रामक-विपक्ष

बावजूद इसके, मानना यह भी होगा कि मोदी की पार्टी को उम्मीद के मुताबिक सीटें नहीं मिलीं। कम से कम उत्तर प्रदेश, बंगाल और महाराष्ट्र में उसे अपमानित भी होना पड़ा है। यानी वोटर ने किसी को कुछ ढील दी और दूसरे को कुछ कसा। कुल मिलाकर बीजेपी देश के 29 में से 13 प्रदेशों में सत्ता में है, और उसके सहयोगी दल छह प्रांतों में शासन कर रहे हैं। बेशक केंद्र में सरकार पहले की तुलना में कुछ कमजोर है, पर वैसी लाचार नहीं है, जैसी मनमोहन सिंह अपनी सरकार को बताते थे। उनके ही आर्थिक सलाहकार कौशिक बसु ने उनके दौर को पॉलिसी पैरेलिसिस बताया था।