प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शनिवार को भारत
की ओर से ‘ग्लोबल साउथ'
के लिए कुछ पहलों की घोषणाएं की हैं,
वहीं कुछ पर्यवेक्षक बांग्लादेश की परिघटना का हवाला देते हुए कह रहे हैं कि भारत
की भूमिका, दक्षिण एशिया में कमतर हो रही हैं, ऐसे में ‘ग्लोबल साउथ'
को कैसे साध पाएंगे?
चीन के ‘बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव' (बीआरआई) के तहत कई देशों के ‘ऋण-जाल' में
फँसने की चिंताओं के बीच पीएम मोदी ने भारत द्वारा आयोजित तीसरे ‘वॉयस ऑफ ग्लोबल
साउथ' सम्मेलन में ‘कॉम्पैक्ट' (वैश्विक विकास समझौते) की घोषणा की.
शिखर सम्मेलन के समापन सत्र में उन्होंने कहा,
मैं भारत की ओर से एक व्यापक ‘वैश्विक विकास समझौते’ का प्रस्ताव रखना चाहूंगा. इस समझौते की नींव भारत की विकास यात्रा
और विकास साझेदारी के अनुभवों पर आधारित होगी.
भारत की पहल
शिखर सम्मेलन में भारत समेत 123 देशों ने हिस्सा लिया और ग्लोबल साउथ की साझा चिंताओं और
प्राथमिकताओं पर विचार-विमर्श किया. उल्लेखनीय है कि चीन और पाकिस्तान इस सम्मेलन
में शामिल नहीं थे. बांग्लादेश के शासनाध्यक्ष डॉ यूनुस ने इसमें भाग लिया.
सम्मेलन के वैचारिक-पक्ष को विदेशमंत्री डॉ एस जयशंकर
ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में स्पष्ट करते हुए कहा कि इसकी टाइमिंग महत्वपूर्ण है, क्योंकि
इसके बाद न्यूयॉर्क में ‘संयुक्त राष्ट्र का समिट ऑफ द फ्यूचर’ होगा. जिन मुद्दों पर यहां चर्चा हुई
है, उन पर वहाँ भी चर्चा होगी.
फिलहाल यह सम्मेलन भारत की पहल और विकासशील
देशों के बीच उसकी आवाज़ को रेखांकित करता है. चीन भी इस दिशा में सक्रिय है.
ग्लोबल साउथ से ज्यादा इस समय बड़े सवाल दक्षिण एशिया को लेकर पूछे जा रहे हैं.
विस्मृत दक्षिण एशिया
एक विशेषज्ञ ने तो यहाँ तक माना है कि दक्षिण
एशिया जैसी भौगोलिक-राजनीतिक पहचान अब विलीन हो चुकी है. जैसे पश्चिम एशिया या
दक्षिण पूर्व एशिया की पहचान है, वैसी पहचान दक्षिण एशिया की नहीं है. इसका सबसे
बड़ा कारण है भारत-पाकिस्तान गतिरोध.
बांग्लादेश में शेख हसीना के पराभव और आसपास के
ज्यादातर देशों में भारत-विरोधी राजनीतिक ताकतों के सबल होने के कारण पूछा जाने
लगा है कि क्या इस दक्षिण एशिया में भारत का रसूख पूरी तरह खत्म हो गया है? इस इलाके के सर्वाधिक प्रभावशाली देश के रूप में क्या अब चीन स्थापित
हो गया है, या हो जाएगा?
ऐसे सवालों का जवाब देने की घड़ी अब आ रही है.
जवाब संयुक्त राष्ट्र के सुधार कार्यक्रमों और भारतीय अर्थव्यवस्था के बदलते आकार में
छिपे हैं. ये दोनों बातें एक-दूसरे से जुड़ी हुई भी हैं.
नेबरहुड फर्स्ट
2014 में नरेंद्र मोदी ने जब पहली बार भारत के
प्रधानमंत्री के तौर पर शपथ ली थी तो उन्होंने पड़ोसी देशों के शासनाध्यक्षों को
भारत आने का न्योता देकर चौंकाया था. पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ भी
उसमें शामिल हुए थे.
मोदी सरकार पहले दिन से कहती रही है कि भारत की
विदेश नीति में पड़ोसी देशों को सबसे ज़्यादा महत्व मिलेगा. इसे 'नेबरहुड फ़र्स्ट' का नाम दिया गया है. मतलब यह कि दूर के
देशों की तुलना में भारत, पड़ोसी देशों को ज़्यादा अहमियत देगा.
कोरोना महामारी के समय सहायता पहुँचाने और
खासतौर से वैक्सीन देते समय ऐसा दिखाई भी पड़ा. बावजूद इसके दक्षिण एशिया में
कारोबारी सहयोग का वैसा माहौल नहीं है, जैसा दक्षिण पूर्व एशिया सहयोग संगठन
आसियान में है.
वैश्विक राजनीति
इस दौरान भारत ने अपने आर्थिक और
सामरिक-संबंधों के लिए अमेरिका, रूस, जापान और इसराइल जैसे देशों को वरीयता दी.
दक्षिण एशिया की तुलवा में उसके पश्चिम एशिया में यूएई, सऊदी अरब और ईरान के साथ
रिश्ते बेहतर हैं. मोदी सरकार के पहले छह वर्षों में चीन से रिश्ते सुधारने की
कोशिशें भी हुई थीं.
प्रधानमंत्री के रूप में मोदी के नेपाल (अगस्त,
2014), श्रीलंका (मार्च, 2015) और
बांग्लादेश (जून, 2015) में गर्मजोशी से स्वागत किया गया था.
पाकिस्तान के साथ भी कुछ समय तक यह गर्मजोशी रही, पर जनवरी 2016 में पठानकोट हमले
के बाद वह बात खत्म हो गई और फरवरी 2019 में पुलवामा और बालाकोट जैसी घटनाओं के
बाद बड़े युद्ध की आशंकाओं ने जन्म भी दिया.
अगस्त, 2019 में जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370
की वापसी ने दोनों देशों के रिश्तों को ऐसा सीलबंद किया है कि उसके खुलने का अबतक
इंतज़ार है. पाकिस्तान ने तो औपचारिक रूप से भारत के साथ व्यापारिक रिश्ते बंद ही
कर रखे हैं.
श्रीलंका और मालदीव
भारी आर्थिक संकट के दौर में भारत ने श्रीलंका
की काफी मदद की थी, वहां की सरकार ने भी दिल्ली की टेढ़ी
निगाहों को नज़रंदाज़ किया और चीन के जासूसी जहाज को अपने बंदरगाह पर लंगर डालने
की अनुमति दी थी. ऐसा ही मालदीव में हुआ, जहाँ ‘इंडिया आउट’ जैसा अभियान चला.
इस आंदोलन के सहारे भारत-समर्थक सरकार को सत्ता
से हटा कर राष्ट्रपति बने मोहम्मद मुइज़्ज़ू ने अपने देश से भारतीय सैन्यकर्मियों
को हटाया और चीनी जासूसी जहाज को लंगर डालने की अनुमति दी, जबकि श्रीलंका तक ने उस
जहाज को आने से रोक दिया है.
नेपाल में नए संविधान को लागू करने के दौरान
भारत के मौन समर्थन से चलाए गए 'आर्थिक नाकेबंदी' कार्यक्रम को लेकर जो
बदमज़गी पैदा हुई थी, वह दोनों देशों की सीमा को लेकर विवाद में बदल चुकी है.
नेपाल ने अपने नए आधिकारिक नक्शे के रूप में उस कड़वाहट को स्थायी रूप दे दिया है.
इस क्षेत्र का सबसे शांत देश भूटान सामरिक,
विदेशी और आर्थिक, लगभग तमाम मामलों में भारत पर निर्भर
है, उसने भी अकेले अपने दम पर चीन के साथ सीमा पर
बातचीत शुरू कर दी है. केवल बातचीत ही शुरू नहीं की है, बल्कि राजनयिक स्तर पर
रिश्ते बनाने की शुरुआत भी कर दी है.
हसीना का पराभव
इतने देशों के साथ कड़वाहट के बावज़ूद
भारत-बांग्लादेश रिश्ते बेहतर स्थिति में थे. अब वहाँ शेख हसीना को अपदस्थ होना
पड़ा है और वहाँ ऐसी राजनीतिक शक्तियाँ सक्रिय हो गई हैं, जिन्हें भारत का मित्र
नहीं कहा जा सकता.
क्या यह बात भारत की विदेश नीति के दोषों की ओर
इशारा कर रही है या ऐसी वैश्विक-परिस्थितियों की ओर इशारा कर रही हैं, जिनमें
चीन-अमेरिका और यूरोपीय देशों की भूमिका है? या यह मानें कि दक्षिण एशिया के
सामाजिक-सांस्कृतिक इतिहास और इस क्षेत्र की भू-राजनीतिक संरचना के कारण इस इलाके
के देश भारत की केंद्रीयता को स्वीकार करने में हिचकते हैं?
पहले यह स्वीकार करना होगा कि दक्षिण एशिया
दुनिया का सबसे कम एकीकृत क्षेत्र है. यहां एक देश से दूसरे देश में आवाजाही या
अंतरराष्ट्रीय सीमा संबंध जितने कठिन और जटिल हैं, उतना
दुनिया के किसी और इलाक़े में नहीं हैं.
कारोबार की बात करें तो ग़रीब अफ़्रीकी देशों
के बीच जितना आपसी व्यापार होता है उसकी तुलना में भी दक्षिण एशिया के देशों का
आपसी व्यापार नहीं होता है, जबकि इस क्षेत्र में 200
करोड़ से ज़्यादा लोग रहते हैं.
भारत की केंद्रीयता
इन देशों के केंद्र में भारत जैसा देश है, जो
इस समय दुनिया की सबसे तेज गति से विकसित होती अर्थव्यवस्था है. फिर भी इस इलाके
में एकीकरण की भावना गायब है. दक्षिण एशिया सहयोग संगठन (दक्षेस) संभवतः दुनिया का
सबसे निष्क्रिय संगठन है. दक्षिण एशिया में पाकिस्तान के साथ निरंतर टकराव के कारण
भारत ने दक्षेस के स्थान पर बंगाल की खाड़ी से जुड़े पाँच देशों के संगठन
बिम्स्टेक पर ध्यान देना शुरू किया है.
भारत के पड़ोस के राजनीतिक माहौल पर एक नज़र
डालें. 2021 में म्यांमार और अफगानिस्तान में सत्ता परिवर्तन हुए. 2022 में
पाकिस्तान में इमरान सरकार का पराभव हुआ. उसी साल श्रीलंका में भीड़ ने राष्ट्रपति
गोटाबाया राजपक्षा को भागने को मज़बूर किया. 2023 में मालदीव में सत्ता परिवर्तन
हुआ.
नेपाल में लगातार राजनीतिक अस्थिरता चल रही है.
और अब बांग्लादेश में सत्ता परिवर्तन हुआ है. यह सब शांतिपूर्ण और सुव्यवस्थित
लोकतांत्रिक तरीके से हुआ होता, तब अलग बात थी. इस बात का श्रेय भारत को मिलना
चाहिए, जिसने इस इलाके में अराजकता को फैसले से रोक रखा है.
अराजक राजनीति
दक्षिण एशिया की आर्थिक बदहाली की वजह को खोजने
के लिए भारत की नीतियों के अलावा इन सभी देशों की आंतरिक-परिस्थितियों पर भी नज़र
डालनी चाहिए. हमारे सभी पड़ोसी देशों में जबर्दस्त उथल-पुथल चल रही है, जिसकी
अभिव्यक्ति लगातार बदलते रिश्तों के रूप में होती है. इसके सबसे अच्छे उदाहरण
श्रीलंका और मालदीव हैं.
जिस समय बांग्लादेश की उथल-पुथल की खबरें आ रही
थी, हमारे विदेशमंत्री एस जयशंकर मालदीव के दौरे पर थे. वहां उन्हें राष्ट्रपति
मोहम्मद मुइज़्ज़ू का जैसा दोस्ताना रवैया
दिखा, वह भी विस्मय की बात थी.
पिछले एक साल में मालदीव को भी कई प्रकार के अनुभव
हुए हैं, पर भारत ने धैर्य के साथ परिस्थितियों के अनुरूप खुद को बदला और लगता है
कि उसे सफलता मिली है. और अब ऐसा ही बांग्लादेश में भी देखने को मिल सकता है.
कुछ दूसरी बातों की ओर भी हमें ध्यान देना
होगा. भारत के साथ इन देशों के क्षेत्रफल, सैनिक और आर्थिक
शक्ति तथा वैश्विक प्रभाव में भारी अंतर है. केवल पाकिस्तान ही एक बड़ा देश है, जो
ऐतिहासिक और सामाजिक कारणों से भारत के साथ अच्छे रिश्ते बनाने से घबराता है.
पाकिस्तान की भूमिका
पाकिस्तानी शासक मानते हैं कि भारत के साथ
रिश्ते बेहतर बनाने का मतलब है विभाजन की निरर्थकता को स्वयंसिद्ध मान लेना. उनके
अंतर्विरोध लगातार टकराव के रूप में व्यक्त होते हैं, जो उनके लिए ही घातक साबित
होते हैं. पाकिस्तान की आर्थिक बदहाली में इसी नज़रिए का हाथ है.
भारत और पाकिस्तान के रिश्ते सुधरेंगे, तो
दक्षिण एशिया का न केवल रूपांतरण होगा, बल्कि उस भू-राजनीतिक पहचान का महत्व भी
रेखांकित हो सकेगा, जो हजारों वर्षों में विकसित हुई है. इस बात को स्वीकार करना
होगा कि भारतीय भूखंड का सांप्रदायिक आधार पर हुआ कृत्रिम राजनीतिक-विभाजन तमाम
समस्याओं के लिए जिम्मेदार है.
अमेरिका समेत ज्यादातर पश्चिमी देशों ने भारत
के उभार को स्वीकार नहीं किया, बल्कि उसके स्थान पर चीन को महत्व दिया. वहीं
भारतीय राजव्यवस्था ने खुली अर्थव्यवस्था को अपनाने में कम से कम चीन-चार दशक की
देरी की. अब चीन हमारे पड़ोस में बड़े निवेश करने की स्थिति में है, जिससे उसे
सामरिक लाभ भी मिलता है.
हिंदू-देश की छवि
दक्षिण एशिया का इतिहास भी रह-रहकर बोलता है. शक्तिशाली-भारत
की पड़ोसी देशों के बीच नकारात्मक छवि बनाई गई है. मालदीव और बांग्लादेश का एक
तबका भारत को हिंदू-देश के रूप में देखता है. पाकिस्तान की पूरी व्यवस्था ही ऐसा
मानती है और भारत को दुश्मन की तरह पेश करती है.
इन देशों में प्रचार किया जाता है कि भारत में
मुसलमान दूसरे दर्ज़े के नागरिक हैं. श्रीलंका में भारत को बौद्ध धर्म विरोधी हिंदू-व्यवस्था
माना जाता है. हिंदू-बहुल नेपाल में भी भारत-विरोधी भावनाएं बहती हैं. वहाँ
मधेशियों, श्रीलंका में तमिलों और बांग्लादेश में हिंदुओं
को भारत-हितैषी माना जाता है.
दूसरी तरफ चीन ने इन देशों को बेल्ट रोड
इनीशिएटिव (बीआरआई) और इंफ्रास्ट्रक्चर में भारी निवेश का लालच दिया है. पाकिस्तान
और चीन ने भारत-विरोधी भावनाओं को बढ़ाने में कसर नहीं छोड़ी है.
चीनी सहयोग
कुछ पर्यवेक्षकों को लगता है कि भारत को चीन के
साथ मिलकर अपने पड़ोस के साथ रिश्ते बेहतर बनाने चाहिए. शायद मोदी सरकार का पहला
इरादा ऐसा ही था, पर 2020 के गलवान प्रकरण के बाद इस रास्ते पर बढ़ना देश की
आंतरिक राजनीति के दृष्टिकोण से व्यावहारिक नहीं रहा.
दक्षिण एशिया का आर्थिक और लोकतांत्रिक विकास
तभी संभव है, जब भारत की केंद्रीयता को स्वीकार किया जाएगा. यदि भारत के विरुद्ध
चीनी-पाकिस्तानी कार्ड खेले जाते रहेंगे. तब तक इस इलाके में स्थिरता आ भी नहीं
पाएगी. यह बात पड़ोसी देशों की समझ में भी आनी चाहिए.
आवाज़ द वॉयस में प्रकाशित