काफी समय तक लगता था कि भारतीय विदेश-नीति की नैया रूस और अमेरिका के बीच संतुलन बैठाने के फेर में डगमग हो रही है। अब पहली बार लग रहा है कि हमारा झुकाव अमेरिका की तरफ है। विदेशी मामलों को लेकर भारत में ज्यादातर पाँच देशों के इर्द-गिर्द बातें होती हैं। एक, पाकिस्तान, दूसरा चीन, फिर अमेरिका, रूस और ब्रिटेन। पिछले कुछ वर्षों से फ्रांस इस सूची में छठे देश के रूप में जुड़ा है। हाल में क्वाड समूह की शक्ल साफ होते-होते इसमें जापान और ऑस्ट्रेलिया के नाम भी शामिल हो गए हैं।
लम्बे अरसे तक हम गुट-निरपेक्षता की राह चलते रहे, पर उस राह में भी हमारा झुकाव रूस की ओर था। सच यह है कि भारत की विदेश-नीति स्वतंत्र थी और भविष्य में भी स्वतंत्र ही रहेगी। अपने हितों के बरक्स हमें फैसले करने ही चाहिए। अमेरिका के साथ जो विशेष रिश्ते बने हैं, उनके पीछे वैश्विक घटनाक्रम है। पिछले साल 'बेसिक एक्सचेंज एंड कोऑपरेशन एग्रीमेंट फॉर जियो-स्पेशियल कोऑपरेशन’(बेका) समझौता होने के बाद ये रिश्ते ठोस बुनियाद पर खड़े हो गए हैं। अमेरिका अपने रक्षा सहयोगियों के साथ चार बुनियादी समझौते करता है। भारत के साथ ये चारों समझौते हो चुके हैं।
तीन दशक पहले भारत और अमेरिका के बीच सामरिक समझौतों की सम्भावना मुश्किल लगती
थी, पर नब्बे के दशक में सोवियत संघ के विघटन के बाद और 1998 में नाभिकीय परीक्षण
के कारण ऐसे हालात बने, जिन्होंने हमें अमेरिका के साथ रक्षा-सहयोग करने को प्रेरित
किया। नब्बे का दशक और इक्कीसवीं सदी का प्रारम्भ भारतीय विदेश-नीति के लिए बहुत
महत्वपूर्ण रहा है। नब्बे के दशक की शुरुआत कश्मीर में पाकिस्तान के आतंकी हमलों
से हुई थी। इसके कुछ वर्ष बाद ही भारत और इसरायल के राजनयिक संबंध स्थापित हुए।
इसी दौर में नई आर्थिक नीति के भारत सहारे तेज आर्थिक विकास की राह पर बढ़ा था।
वह दौर तीन महत्वपूर्ण कारणों से याद रखा जाएगा। पहला है भारत का नाभिकीय
परीक्षण, दूसरा करगिल प्रकरण
और तीसरा भारत और अमेरिका के बीच नए सामरिक रिश्ते, जिनकी बुनियाद में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी। सबसे
मुश्किल काम था नाभिकीय परीक्षण के बाद भारत को वैश्विक राजनीति की मुख्यधारा में
वापस लाना। खासतौर से अमेरिका और जापान के साथ हमारे रिश्ते बहुत खराब हो गए थे, जिसके कारण न केवल
उच्चस्तरीय तकनीक में हम पिछड़ गए, बल्कि आर्थिक प्रतिबंधों के कारण परेशानियाँ खड़ी हो गई थीं। अंतरराष्ट्रीय
संगठनों में हमारी स्थिति कमजोर हो गई।
नाभिकीय परीक्षण करके भारत ने निर्भीक विदेश-नीति की दिशा में सबसे बड़ा कदम
उठाया था। उस कदम के जोखिम भी बहुत बड़े थे। ऐसे नाजुक मौके में तूफान में फँसी
नैया को किनारे लाने का एक विकल्प था कि अमेरिका के साथ रिश्तों को सुधारना। आज जापान
और अमेरिका भारत के महत्वपूर्ण मित्र देशों के रूप में उभरे हैं। भारत को अत्याधुनिक
तकनीक के लिए भी अमेरिकी मदद चाहिए।
नई सहस्राब्दी में जसवंत सिंह और अमेरिकी उप-विदेश मंत्री स्ट्रोब टैलबॉट के
बीच दो साल में सात 14 बार मुलाक़ातें हुई। अमेरिका की दिलचस्पी चीन के बढ़ते
प्रभाव को रोकने में है। भारत को भी चीन से खतरा है। इसलिए यह सहयोग दोनों देशों
के हितों की रक्षा का आधार बना।
सन 1998 के नाभिकीय परीक्षणों के बाद दोनों देशों के संबंध बहुत खराब हो गए
थे। अमेरिकी प्रतिबंधों के कारण हमारे तेजस विमान के विकास में बाधाएं पड़ीं और
अंतरिक्ष अनुसंधान के कार्यक्रम भी प्रभावित हुए। दूसरी तरफ दोनों के बीच उस दौरान
गंभीर विचार-विमर्श भी हुआ और शीत युद्धोत्तर विश्व की वास्तविकताओं के
परिप्रेक्ष्य में अपनी भूमिकाओं को समझने की कोशिश भी की गई। राष्ट्रपति जॉर्ज बुश
जूनियर के कार्यकाल में आधुनिक भारत-अमेरिका रक्षा-संबंधों की बुनियाद पड़ी।
इसमें दो बातों की बड़ी भूमिका थी। एक, अमेरिका पर 9/11 को हुए आतंकी हमले और चीन के उदय ने
अमेरिकी प्रतिष्ठान को सोचने पर मजबूर कर दिया। उसी दौर में भारत-अमेरिका रक्षा
समझौता और फिर उसके बाद नाभिकीय समझौता हुआ। बुश के बाद बराक ओबामा और डोनाल्ड
ट्रंप उसी रणनीति पर चले और जो बाइडेन भी उसपर चलेंगे।
कुछ लोगों का विचार है कि अमेरिका मानवाधिकार के सवाल उठाकर भारत के साथ
रिश्तों को पुनर्परिभाषित करेगा, पर वे अंतरराष्ट्रीय सम्बन्धों के प्रेरक सिद्धांतों
को समझ नहीं पा रहे हैं। उन्हें देखना होगा कि बदलते वैश्विक परिप्रेक्ष्य में
भारत की भूमिका क्या है और उसकी भावी दिशा क्या है। दूसरी तरफ भारत में इस समय ऐसी
सरकार है, जो राजनीतिक जोखिम उठाकर बड़े फैसले कर सकती है। क्वाड में शामिल होना
ऐसा ही एक फैसला है। इस फैसले के राजनीतिक निहितार्थ कुछ समय बाद सामने आएंगे। भारत
ब्रिक्स और शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) का सदस्य भी है। इन दोनों संगठनों पर चीन और
रूस का असर है।
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