कोरोना के संकट से उबर रहे देश को अचानक ऊर्जा-संकट ने घेर लिया है। इससे अर्थव्यवस्था को लेकर सवाल खड़े होने लगे हैं। मध्य जुलाई से पैदा हुई कोयले की कमी के कारण उत्तर प्रदेश, गुजरात, पंजाब, महाराष्ट्र, कर्नाटक और आन्ध्र प्रदेश के 135 ताप-बिजलीघरों के सामने संकट की स्थिति पैदा हो गई है। इन बिजलीघरों में 11.4 गीगावॉट (एक गीगावॉट यानी एक हजार मेगावॉट) उत्पादन की क्षमता है। देश में कुल 388 गीगावॉट बिजली उत्पादन की क्षमता है। इनमें से कोयले पर चलने वाले ताप-बिजलीघरों की क्षमता 208.8 गीगावॉट (करीब 54 फीसदी) है। चूंकि औद्योगिक गतिविधियों में बिजली की महत्वपूर्ण भूमिका है, इसलिए इस खतरे को गम्भीरता से लेने की जरूरत है।
राजनीति की गंध
आर्थिक-संकट के अलावा कोयला-संकट के राजनीतिक
निहितार्थ भी हैं। उत्तर प्रदेश, पंजाब, हिमाचल
और उत्तराखंड में चुनाव होने वाले हैं। बिजली की कटौती होगी, तो वोटर का ध्यान इस तरफ जाएगा। पहली नजर में लगा कि यह बात वैसे ही
राजनीतिक-विवाद का विषय बनेगी, जैसा इस साल अप्रेल-मई में
मेडिकल-ऑक्सीजन की किल्लत के कारण पैदा हुआ था। इसकी खुशबू आते ही दिल्ली सरकार के
मुख्यमंत्री और उप-मुख्यमंत्री ने केन्द्र सरकार के खिलाफ आवाज बुलन्द कर दी। मनीष
सिसौदिया ने ऑक्सीजन का ही हवाला दिया।
इन आशंकाओं को केन्द्रीय ऊर्जा मंत्री आरके
सिंह ने 'निराधार' करार
दिया। उन्होंने स्पष्ट किया कि पहले की तरह कोयले का 17 दिन का स्टॉक नहीं है
लेकिन 4 दिन का स्टॉक है। कोयले की यह स्थिति इसलिए है क्योंकि हमारी माँग बढ़ी है
और हमने आयात कम किया है। फिर भी बिजली आपूर्ति बाधित होने का बिल्कुल भी खतरा
नहीं है। कोल इंडिया लिमिटेड के पास 24 दिनों की कोयले की मांग के बराबर 4.3 करोड़
टन का पर्याप्त कोयले का स्टॉक है वगैरह-वगैरह।
सच इन दोनों बातों के बीच में कहीं है। संकट तो
है, शायद उतना गम्भीर नहीं, जितना
समझा जा रहा है। शायद स्थिति पर जल्द नियंत्रण हो जाएगा। पर ऐसा करने के लिए बहुत
से गैर-बिजली उपभोक्ताओं की कोयला-आपूर्ति रुकेगी। इसका असर दूसरे क्षेत्रों पर
पड़ेगा। कोयला मंत्री प्रह्लाद जोशी का कहना है कि बिजलीघरों तक कोयला पहुँचाने की
गति बढ़ाई जा रही है, ताकि उनके पास पर्याप्त स्टॉक बना रहे।
क्यों पैदा हुआ संकट?
सामान्यतः मॉनसून के महीनों में कोयलों खदानों
में उत्पादन प्रभावित होता है। ग्रिड प्रबन्धन के लिहाज से अक्तूबर का महीना
मुश्किल होता है। इस साल मॉनसून देर तक रहा है, इसका
असर भी उत्पादन पर है। इसके विपरीत इस साल बिजली की माँग भी पहले से ज्यादा रही
है। सामान्यतः अप्रेल-मई के महीनों में कोयले का भंडार जमा कर लिया जाता है,
ताकि वर्षा के दौरान कमी न होने पाए, पर
इस साल अप्रेल-मई में कोविड-19 की दूसरी लहर अपने सबसे रुद्र रूप में चल रही थी,
इसलिए भंडारण पर भी विपरीत प्रभाव पड़ा।
दूसरी तरफ अंतरराष्ट्रीय बाजार में कोयले की
कीमत बढ़ने के कारण भारत ने कोयले का आयात कम कर दिया। ऐसा ही गैस के साथ हुआ। इस
समय चीन से लेकर यूरोप तक दुनिया भर में कोयले और गैस की किल्लत है।
विदेशी कोयला आएगा
बहरहाल केंद्र सरकार ने ताप बिजलीघरों को 15 फीसद तक विदेशी कोयले की अनुमति देने का फैसला किया है। इससे बिजली महंगी होगी और फिर उसके दूरगामी परिणाम होंगे। विदेशी कोयले का मूल्य हाल ही में 60 से 200 डॉलर प्रति टन तक बढ़ा है। चूंकि अभी तक ज्यादातर बिजली घरों में विदेशी कोयले का इस्तेमाल नहीं होता, इसलिए वर्तमान संकट का बिजली की दर पर असर नहीं पड़ा था, पर अब विदेशी कोयले के इस्तेमाल की अनुमति के बाद उसमें वृद्धि हो सकती है।
कोयला संकट के पीछे कुछ दूसरे कारण भी हैं।
मसलन बिजलीघरों के पास कोयला कम्पनियों का करीब 18,000 करोड़ रुपया बकाया है। निजी
क्षेत्र की कोयला खानों में इस कारण उत्पादन ठप हो जाने की वजह से भी देश को करीब
20 करोड़ टन कोयले का आयात करना पड़ रहा है। चूंकि इसी समय चीन भी विदेशी कोयला
खरीद रहा है, इसलिए उसकी कीमत भी बढ़ रही है। देखा जाए तो इस
संकट के पीछे व्यवस्थागत असमंजस भी हैं।
अकुशलता
देश में कोयला उत्पादन की सबसे बड़ी सार्वजनिक
क्षेत्र की कम्पनी कोल इंडिया लिमिटेड है, जो देश की जरूरत
के 80 फीसद कोयले की पूर्ति करती है। उसकी कार्यकुशलता बढ़ाने के लिए तकनीक के
आधुनिकीकरण की जरूरत है। इसके साथ ही निजी क्षेत्र के प्रवेश के बाद कई प्रकार की
लालफीताशाही और कानूनी विवादों के कारण भी विलम्ब होता है। पिछले कई वर्षों से
कोयला उत्पादन तकरीबन स्थिर है। सन 2015 में कोल इंडिया ने 2020 तक अपने उत्पादन
को 100 करोड़ टन तक पहुँचाने का लक्ष्य रखा था, पर
पिछले तीन साल से वह 60 करोड़ टन के आसपास ही टिका हुआ है। देश का कुल उत्पादन
73-73 करोड़ टन के आसपास है। बहरहाल जब ऐसे संकट आते हैं, तब
व्यवस्थागत झमेले भी सामने आते हैं।
वस्तुस्थिति यह है कि देश में जरूरत भर का
कोयला-भंडार उपलब्ध है। उसका या तो पर्याप्त उत्पादन नहीं हुआ या वह बिजलीघरों तक
पहुँच नहीं पाया। केंद्रीय ऊर्जा मंत्री ने एक से ज्यादा बार कहा है कि कोयले की
कोई कमी नहीं है। तब विदेशी कोयले की आयात की अनुमति क्यों? शायद
फौरी तौर पर कमी को दूर करने के लिए, ताकि ऊर्जा का
गम्भीर संकट पैदा न हो। पर संकट का यह एक छोटा पहलू है। हमें अंततः कोयले पर
आधारित ताप-बिजली का परित्याग करना होगा। सवाल है क्यों और कैसे?
जलवायु परिवर्तन
दुनिया के सामने ज्यादा बड़ी चुनौती जलवायु
परिवर्तन की है, जिसके लिए कार्बन-उत्सर्जन के लक्ष्य
निर्धारित किए जा रहे हैं। नवंबर में ब्रिटेन के ग्लासगो शहर में जलवायु परिवर्तन
पर होने वाले कॉप26 शिखर सम्मेलन में भारत से पूछा जाएगा कि ग्रीनहाउस गैसों के
उत्सर्जन में कटौती करने का आपका लक्ष्य क्या है। खबरें हैं कि भारत कहेगा कि अगले
कुछ दशकों तक देश की ऊर्जा ज़रूरतों के लिए कोयले का इस्तेमाल जारी रहेगा।
भारत उन देशों में शामिल है जो संयुक्त राष्ट्र
में कोयले जैसे जीवाश्म ईंधनों पर पूरी तरह से रोक लगाने के ख़िलाफ़ हैं। चीन और
अमेरिका के बाद दुनिया में भारत कार्बन उत्सर्जन करने वाला तीसरा सबसे बड़ा देश
है। चीन के बाद कोयले का वह दूसरा सबसे बड़ा उपभोक्ता है। देश की कुल बिजली में 70
फीसद से ज़्यादा कोयले से बनती है। कोयला उद्योग करीब 40 लाख लोगों को रोज़गार
देता है। अधिकतर कोयला भंडार झारखंड, छत्तीसगढ़ और
ओडिशा राज्यों में हैं। इन इलाक़ों में अर्थव्यवस्था का आधार कोयला है, जो स्थानीय समुदायों की जीवन-रेखा है। यह क्षेत्र देश के सबसे ग़रीब
इलाकों में शामिल है।
आर्थिक-विकास की चुनौती
अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा समिति के अनुसार, भारत में अगले 20 साल में ऊर्जा की ज़रूरत दुनिया में सबसे ज्यादा
होगी। इसके बरक्स देश ने 2030 तक अपनी बिजली आपूर्ति का 40 फीसद हिस्सा अक्षय और
परमाणु ऊर्जा से हासिल करने का लक्ष्य रखा है, पर
वैश्विक-मंच पर हम बड़ा वायदा करने की स्थिति में नहीं हैं। देश के सामने तेज
आर्थिक विकास के लक्ष्य हैं, जिन्हें पूरा करने के लिए अगले कुछ
दशकों तक ऊर्जा के उत्पादन का मुख्य स्रोत कोयला ही रहेगा। भारत ने अभी तक स्पष्ट
नहीं किया है कि ‘ज़ीरो कार्बन उत्सर्जन’ के लक्ष्य को हासिल करने के लिए क्या
करेंगे और कब करेंगे।
ऐसा लगता है कि भारत ‘नेट जीरो’ लक्ष्य से पूरी तरह असहमत
नहीं होगा, पर वह उसके पहले विकसित देशों से विकासशील देशों के लिए करीब 100
अरब डॉलर की सालाना वित्तीय सहायता की पेशकश करेगा, ताकि वे जरूरी तकनीक हासिल कर
सकें और इसके विपरीत प्रभावों का सामना कर सकें।
संकट केवल भारत में ही नहीं है। चीन में इससे
भी ज्यादा बड़ा संकट है। वहाँ अनेक कारखानों में उत्पादन ठप हो गया है। यह संकट
खासतौर से जियांग्सू, झेजियांग और ग्वांग्डोंग में सबसे
ज्यादा है, जो औद्योगिक क्षेत्र हैं। चीनी अर्थव्यवस्था का
करीब एक तिहाई योगदान इन क्षेत्रों से आता है। इसके बावजूद चीन ने कहा है कि वह
2060 तक कार्बन मुक्त हो जाएगा। सवाल है कि इस लक्ष्य वह कैसे पूरा करेगा? फिलहाल हमें अपने लक्ष्यों को देखना चाहिए।
हरिभूमि में प्रकाशित
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