पिछले महीने तक कांग्रेस पार्टी का पंजाब-संकट स्थानीय परिघटना लगती थी, जिसके निहितार्थ केवल उसी राज्य तक सीमित थे। पर अब लगता है कि यह संकट बड़ी शक्ल लेने वाला है और सम्भव है कि यह पार्टी के एक और बड़े विभाजन का आधार बने। इस वक्त दो बातें साफ हैं। एक, पार्टी का नेतृत्व किसके पास है, यह अस्पष्ट है। लगता है कि कमान राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के हाथों में है, पर औपचारिक रूप से उनके पद उन्हें हाईकमान साबित नहीं करते।
दूसरे पार्टी के वरिष्ठ नेता नाराजगी व्यक्त
करने लगे हैं। असंतुष्टों का एक तबका तैयार होता जा रहा है। कुछ लोगों ने अलग-अलग
कारणों से पार्टी छोड़ी भी है। ज्यादातर की दिलचस्पी अपने करियर में है। इनमें खुशबू सुन्दर, ज्योतिरादित्य सिंधिया, जितिन प्रसाद, सुष्मिता
देव, लुईज़िन्हो फलेरो, ललितेश
त्रिपाठी, अभिजीत मुखर्जी वगैरह शामिल हैं।
पार्टी टूटेगी?
अभी तक मनीष तिवारी, गुलाम नबी आजाद, कपिल
सिब्बल और आनन्द शर्मा की आवाजें ही सुनाई पड़ती थीं, पर अब शशि थरूर और पी
चिदम्बरम जैसे नेताओं की व्यथा कुछ कह रही है। लगता है कि पंजाब की जमीन से पार्टी
के विभाजन की शुरुआत होने वाली है, जो देशव्यापी होगा।
पंजाब में नवजोत सिद्धू ने अपनी पाकिस्तान-परस्ती को कई बार व्यक्त किया और उन्हें ऊपर से प्रश्रय मिला या झिड़का नहीं गया। इसके विपरीत कैप्टेन अमरिंदर सिंह मानते हैं कि पंजाब जैसे सीमावर्ती राज्य में राष्ट्रीय हितों को सबसे ऊपर रखा जाना चाहिए। वैचारिक स्तर पर पार्टी की लाइन स्पष्ट नहीं है। जो लाइन है, वह बीजेपी के विरोध की लाइन है। यह देखे बगैर कि बीजेपी की लाइन क्या है और क्यों है।
कन्हैया का स्वागत
हाल में जब कन्हैया कुमार को पार्टी में शामिल
किया जा रहा था, तब पार्टी के वरिष्ठ नेता मनीष तिवारी ने ट्वीट किया कि कुछ
कम्युनिस्ट नेताओं के कांग्रेस में शामिल होने की खबरें हैं। ऐसे में शायद 1973
में लिखी गई किताब 'कम्युनिस्ट्स इन कांग्रेस' को फिर से पढ़ा जाना चाहिए। चीजें जितनी बदलती हैं, उतनी ही बदस्तूर भी रहती हैं। मैंने आज इसे फिर पढ़ा है।
मनीष तिवारी की बात कांग्रेस में कोई क्यों
सुनेगा? वे जी-23 वाले हैं, जिन्हें हाईकमान पसंद नहीं
करती। आज कांग्रेस अपने आप को ज्यादा से ज्यादा वामपंथी साबित करने की कोशिश कर
रही है, जबकि कम्युनिस्ट पार्टी और कांग्रेस के बीच दोस्ती और दुश्मनी का लम्बा
इतिहास है।
साम्यवादी सफरमैना
मनीष तिवारी जिस किताब का जिक्र कर रहे हैं, वह
कुमारमंगलम थीसिस से जुड़ी है। कम्युनिस्ट पार्टी से कुछ महत्वपूर्ण नेता
सोच-समझकर इस पार्टी में शामिल हुए थे, ताकि इसकी वैचारिक धारा को बदला जा सके।
उन्हें सफरमैना या फैलो ट्रैवलर कहा गया। सफरमैना सेना में वे सिपाही होते हैं, जो
सबसे आगे होते हैं और दुश्मन के इलाके में जमीन पर बारूदी पलीते बिछाते हैं और
अपनी सेना के लिए रास्ता बनाते हैं।
राहुल गांधी ने हाल में कई बार कहा है कि हम
वामपंथी हैं। पर यह कभी स्पष्ट नहीं किया कि इस वामपंथ का मतलब क्या है। क्या वे
उस कमान अर्थव्यवस्था के समर्थक हैं, जिसे 1991 के नीतिगत परिवर्तन के बाद बिसरा
दिया गया था? सांस्कृतिक और सामाजिक धरातल पर भी
उनके विचार स्पष्ट नहीं हैं। कभी वे जनेऊधारी ब्राह्मण होते हैं और कभी
ब्राह्मणवाद के विरोधी।
मिसगाइडेड मिसाइल
पंजाब में विवाद अनायास खड़ा नहीं हुआ है। साफ
है कि कैप्टेन अमरिंदर सिंह जैसे बड़े नेता को हाशिए पर डालने की कोशिश सायास थी
और सिद्धू को इसमें मोहरा बनाया गया। सिद्धू ने खुद को चक्रवर्ती सम्राट और अमरिंदर
सिंह की जगह आए मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी को अपना सिपाही मान लिया। कुछ देर
के लिए फिर विवाद खड़ा हुआ, पर सिद्धू जी को समझ में आ गया कि ऊपर वाले ने उन्हें
सीमित स्वायत्तता दी थी।
सवाल है कि पार्टी के ऊपर वालों ने क्या कुछ
सोच-विचारकर पंजाब में बदलाव किया है? देखना होगा कि
आगे अब होता क्या है। अमरिंदर सिंह
जो नई पार्टी बनाने की सोच रहे हैं, वह पंजाब-केन्द्रित
होगी या राष्ट्रीय स्तर पर नई कांग्रेस खड़ी होगी? कुछ
लोग कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक की उम्मीद कर रहे हैं, पर उस बैठक में क्या होगा? अगस्त 2020 में जब पहली बार जी-23 के पत्र का विवाद उछला था, तब कार्यसमिति
की बैठक में क्या हुआ था?
जाने वाले जाएं
बैठक का निष्कर्ष था कि भाजपा से हमदर्दी रखने
वालों का यह काम है। उसके बाद से राहुल गांधी इशारों में कई बार कह चुके हैं कि
भाजपा से हमदर्दी रखने वाले जाएं और उससे लड़ने वालों का स्वागत है। शायद उसी
स्वागत नीति के तहत उन्होंने कन्हैया कुमार के लिए दरवाजे खोले हैं, पर वरिष्ठ
नेताओं के रूप में रोशनी देने वाली खिड़कियों को बन्द करने का फैसला किया है।
पंजाब के नए
मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी के फैसलों से नाराज नवजोत सिद्धू ने पहले इस्तीफा
दिया और बाद में दोनों के बीच समझौता हो गया। पर इससे संदेश क्या गया? क्या सिद्धू किसी परिवर्तनकारी राजनीति को लेकर सामने आए हैं?
मोटे तौर पर समझ में आता है कि कैप्टेन को बाहर
करने के लिए बहानों की तलाश थी। सिद्धू जी ने खुद को कुछ ज्यादा वजनदार समझ लिया।
बाद में उन्हें अपने वजन का सही अंदाज़ हो गया। पर क्या पार्टी ने अमरिंदर के वजन
को सही आँका था?
पार्टी का पुनरोदय
कई बार संकटों से भी समाधान निकलते हैं। क्कया कांग्रेस का वर्तमान संकट सायास उठाया गया जोखिम है? कहा जा रहा है कि पार्टी विचारधारा और संगठन के
स्तर पर नई शक्लो-सूरत के साथ सामने आने वाली है। इस शक्लो-सूरत को प्रशांत किशोर
की सहायता से तैयार किया गया है। नौजवान छवि और वामपंथी जुमलों से भरे क्रांतिकारी
विचार के साथ पार्टी मैदान में उतरने वाली है। कन्हैया कुमार के शामिल होने से भी
इसका आभास होता है। अब तक की प्रगति को देखते हुए लगता नहीं कि पार्टी ने यह जोखिम खुद रचा है। सवाल यह भी है कि क्या अपनों को धक्का देकर और बाहर वालों का स्वागत करके कोई
पार्टी अपने प्रभाव को बढ़ा सकेगी?
पंजाब में यह सब किसके इशारे पर हुआ? इससे पार्टी की कैसी छवि बनी? क्या यही
नौजवान छवि है? पार्टी क्या चाहती है कि पुराने नेता छोड़कर
जाएं? ऐसा वैचारिक टकराव 1964 से 1969 के बीच हुआ था।
सवाल है कि क्या पार्टी के भीतर इस समय 1969 जैसा
इंडीकेट-सिंडीकेट माहौल है? वस्तुतः अब उससे उलट स्थितियाँ हैं।
1969 जैसे हालात
राहुल गांधी को परिवर्तन के ध्वज-वाहक के रूप
में देश देख रहा होता तब बात थी। पर क्या ऐसा है? 1969
में इंदिरा गांधी की जो छवि थी, वैसी छवि उनकी नहीं है। उनकी अगली परीक्षा उत्तर
प्रदेश में होगी। वहाँ के परिणाम काफी बातें साफ कर देंगे। पंजाब की परिघटना का
असर यूपी और देश की राजनीति पर निश्चित रूप से पड़ेगा।
कैप्टेन अमरिंदर इस समय बुरी तरह आहत हैं,
इसलिए वे प्राणपण से कांग्रेस के विरोध में जुटेंगे। हाल में कांग्रेस के पंजाब
प्रभारी हरीश रावत ने कहा कि कांग्रेस ने कैप्टेन का किसी तरह से अपमान नहीं किया।
पर कैप्टेन ने महसूस किया। सिद्धू जैसे अनुभवहीन और गैर-कांग्रेसी को इतनी ऊँचाई
तक पहुँचाना ही बताता है कि पार्टी ने पंजाब में सावधानी नहीं बरती। इन बातों के
दुष्परिणाम होने ही है।
अमरिंदर की पार्टी
प्रेक्षकों का अनुमान
है कि अमरिंदर सिंह अगले 15 दिन के अंदर नई राजनीतिक
पार्टी का ऐलान कर सकते हैं। उन्होंने कांग्रेस छोड़ने की घोषणा कर ही दी है। कयास
थे कि वे भारतीय जनता पार्टी में शामिल होंगे, पर उन्होंने कहा कि मैं बीजेपी शामिल नहीं हो रहा हूँ।
सिद्धू की पाकिस्तान-परस्ती को वे निशाना बनाएंगे। ऐसा संकेत भी है कि सिद्धू के
कुछ बयानों की वजह से पंजाब के हिन्दू वोटर का मन कांग्रेस से हट रहा है।
सिद्धू अपनी छवि को सिख परस्त बनाने की कोशिश
कर रहे हैं। वे बरगारी की घटना को बार-बार इसीलिए उठा रहे थे। पंजाब में पंथिक सिख
वोटर अकाली दल के साथ और हिन्दू वोटर कांग्रेस के साथ रहता है। हालांकि कांग्रेस का
आधार सिखों और हिन्दुओं दोनों में है, लेकिन 'पंथिक'
मुद्दों पर सिद्धू का अतिशय ध्यान
देना कांग्रेस के लिए समस्या पैदा करेगा, क्योंकि इसमें वह अकाली दल का मुकाबला
नहीं कर सकता।
फिलहाल कांग्रेस की सबसे बड़ी विफलता अपने लिए
अध्यक्ष तय नहीं कर पाने की है। दो साल से ज्यादा समय हो गया, जब राहुल गांधी ने
इस पद से इस्तीफा दिया है। नए अध्यक्ष की नियुक्ति में हो रही देरी पार्टी के
भ्रमों, संशयों और संदेहों को बढ़ाती जा रही है। पंजाब एक उदाहरण है। राजस्थान और
छत्तीसगढ़ भी अभी लाइन में हैं।
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