भारत, इसराइल, संयुक्त अरब अमीरात और अमेरिका के विदेश मंत्रियों की हाल में हुई एक वर्चुअल बैठक के दौरान एक नए चतुष्कोणीय फोरम की पेशकश को पश्चिम एशिया में एक नए सामरिक और राजनीतिक ध्रुव के रूप में देखा जा रहा है। राजनयिक क्षेत्र में इसे 'न्यू क्वॉड' या नया 'क्वॉडिलेटरल सिक्योरिटी डायलॉग' कहा जा रहा है। गत 18 अक्तूबर को यह बैठक उस दौरान हुई, जब भारत के विदेशमंत्री एस जयशंकर, इसराइल के दौरे पर थे।
इस बैठक में वे इसराइल के विदेशमंत्री येर
लेपिड के साथ यरुसलम में साथ-साथ बैठे। अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकेन और यूएई
के विदेश मंत्री शेख अब्दुल्ला बिन ज़ायेद अल नाह्यान वर्चुअल माध्यम से इसमें शामिल
हुए। बैठक में एशिया और पश्चिम एशिया में
अर्थव्यवस्था के विस्तार, राजनीतिक सहयोग, व्यापार
और समुद्री सुरक्षा जैसे मुद्दों पर चर्चा हुई। कुल मिलाकर इस समूह का
कार्य-क्षेत्र बहुत व्यापक है।
जिस समय जयशंकर इसराइल की यात्रा पर थे, उसी
समय इसराइल में 'ब्लू फ्लैग 2021' बहुराष्ट्रीय हवाई युद्धाभ्यास चल रहा था। इसराइल के अब तक के सबसे
बड़े इस एयर एक्सरसाइज़ में भारत समेत सात देशों की वायु सेनाओं ने भाग लिया।
इनमें जर्मनी, इटली, ब्रिटेन,
फ़्रांस, ग्रीस और अमेरिका की वायु सेनाएं भी
शामिल थीं। भारतीय वायुसेना के कुछ दस्ते मिस्र के अड्डे पर उतरे थे। इस युद्धाभ्यास
और ‘नए क्वॉड’ के आगमन को
आने वाले समय में पश्चिम एशिया की नई सुरक्षा-प्रणाली के रूप में देखना चाहिए।
पश्चिम पर
निगाहें
एक अरसे से भारतीय विदेश-नीति की दिशा
पूर्व-केन्द्रित रही है। पूर्व यानी दक्षिण-पूर्व और सुदूर पूर्व, जिसे पहले ‘लुक-ईस्ट’ और अब ‘एक्ट-ईस्ट पॉलिसी’ कहा जा रहा
है। पिछले कुछ समय से भारत ने पश्चिम की ओर देखना शुरू किया है। पाकिस्तान और
अफगानिस्तान भी हमारे पश्चिम में हैं। वैदेशिक-संबंधों के लिहाज से यह हमारा ‘समस्या-क्षेत्र’ रहा है। बहुसंख्यक
इस्लामी देशों के कारण कई प्रकार के जोखिम रहे हैं। एक तरफ इसराइल और अरब देशों के
तल्ख-रिश्तों और दूसरी तरफ ईरान और सऊदी अरब के अंतर्विरोधों के कारण काफी सावधानी
बरतने की जरूरत भी रही है।
भारतीय विदेश-नीति को इस बात का श्रेय दिया जा सकता है कि हमने सबके साथ रिश्ते बनाकर रखे। पाकिस्तान की नकारात्मक गतिविधियों के बावजूद। खासतौर से मुस्लिम देशों के संगठन ओआईसी में पाकिस्तान ने भारत के हितों पर चोट करने में कभी कसर नहीं रखी। भारतीय नजरिए से पश्चिम एशिया ‘समस्या-क्षेत्र’ रहा है। एक वजह यह भी थी कि भारत और अमेरिका के दृष्टिकोण में साम्य नहीं था। अमेरिका ने भी पश्चिम-एशिया में भारत को अपने साथ नहीं रखा। पर अब हवा का रुख बदल रहा है। पूर्वी और पश्चिमी दोनों क्वॉड में भारत और अमेरिका साथ-साथ हैं।
अब्राहमिक समझौता
केवल भारत की भूमिका
ही नहीं, पश्चिम एशिया के देशों के आपसी रिश्तों में तेज बदलाव आया है, जिसकी
शुरुआत पिछले साल सितंबर में इसराइल, संयुक्त अरब अमीरात और अमेरिका के बीच हुए एक
वक्तव्य से हुई, जिसे ‘अब्राहमिक
समझौता’ कहा जाता है। पश्चिम एशिया के दृश्य-परिवर्तन
में इस समझौते की महत्वपूर्ण भूमिका थी।
अमेरिका केवल अफगानिस्तान से ही नहीं हटा है,
बल्कि वह इसके पहले सीरिया और इराक से भी हटा है। वह अब हिंद-प्रशांत क्षेत्र पर
ध्यान दे रहा है। पर वह छोड़कर कहीं चला नहीं जाएगा। यह क्षेत्र उसके लिए
महत्वपूर्ण रहेगा। इसराइल उसका प्रमुख सहयोगी देश है। नई बात यह है कि अब भारत भी
इस क्षेत्र के ‘प्रमुख-प्लेयर’ के
रूप में शामिल हो रहा है। प्रतीक रूप में इसे एक नया दिया गया है ‘इंडो-अब्राहमिक गठबंधन।’
अब्राहमिक समझौते के
निहितार्थ सीमित थे, जबकि भारत के इसमें शामिल हो जाने के बाद इसका जियो-पोलिटिकल
क्षेत्र विस्तार हो गया है। इस सहयोग का सुझाव सबसे पहले वॉशिंगटन में रहने वाले
मिस्री विद्वान मोहम्मद सोलीमान ने दिया था। ‘नए क्वॉड’ का
मतलब है कि भारत और पश्चिम यानी भूमध्य सागर क्षेत्र के देशों के साथ भी रिश्ते
बनाएगा, जहाँ प्राकृतिक गैस के स्रोत हैं। यानी रिश्तों की श्रृंखला में ग्रीस,
तुर्की, साइप्रस, मिस्र, सीरिया, लेबनॉन, जॉर्डन जैसे देश भी शामिल होंगे।
संभावनाओं का क्षेत्र
भारत के लिए पश्चिम एशिया अब ‘समस्याओं की जगह संभावनाओं का क्षेत्र’ बन सकता है। इलाके में अब युद्ध के बजाय सहयोग की बातें हो रही हैं।
क्षेत्रीय देशों को तनाव को दूर करने और अपने पड़ोसियों के साथ जीने की जरूरत है।
इसी विश्वास के कारण यूएई, बहरीन, मोरक्को
और सूडान ने इसराइल के साथ रिश्ते सुधारे हैं। सऊदी अरब के साथ भी संवाद स्थापित
हो गया है। इस साल मई में हमस और इसराइल के टकराव के बीच अरब देशों की प्रतिक्रिया
काफी हद तक संतुलित थी।
अमेरिका यहाँ से हटना चाहता है, तो चीन यहाँ
प्रवेश करना चाहता है। चीन और ईरान के बीच समझौता हुआ है, जिसके तहत वह ईरान में
400 अरब डॉलर से ज्यादा का पूँजी निवेश करेगा। एक तरफ मुस्लिम देशों का नया ब्लॉक
बनाने की बातें हैं, वहीं सऊदी अरब और ईरान के बीच रिश्ते
सुधारने के प्रयास भी हैं। सऊदी अरब अपनी अर्थव्यवस्था को पेट्रोलियम के कारोबार
से बाहर निकाल कर नए रास्ते पर डालना चाहता है। उधर तुर्की ने इस्लामिक देशों का
नेतृत्व करने में दिलचस्पी दिखाई है।
सऊदी अरब और ईरान के बीच भी सम्पर्क स्थापित
हुआ है। जानकारों के अनुसार अमेरिका के नए राष्ट्रपति जो बाइडेन का ईरान के साथ
परमाणु समझौते को दोबारा बहाल करने की कोशिश करना और ईरान में 400 अरब डॉलर के चीनी
निवेश के फ़ैसले के कारण सऊदी अरब के रुख़ में बदलाव है। अमेरिका की कोशिश भी ईरान
से रिश्तों को सुधारने में है। इतना ही नहीं सऊदी और तुर्की रिश्तों में भी बदलाव
आने वाला है। इस प्रक्रिया में भारत की नई भूमिका उभर कर आ रही है और यह भविष्य
में और स्पष्ट नजर आएगी।
इस्लामिक देश
इस्लामिक देशों के बीच
भी भारतीय राजनय ने पैठ जमाई है। मार्च, 2019 में तत्कालीन विदेशमंत्री सुषमा
स्वराज को अबू धाबी के सम्मेलन में शामिल होने का निमंत्रण दिया गया और पाकिस्तान
के विरोध की अनदेखी की गई। पाकिस्तान के विदेशमंत्री ने उस सम्मेलन का बहिष्कार
किया था। हाल में सऊदी अरब,
यूएई और बहरीन के साथ
भारत के रिश्तों में सुधार हुआ है।
ओआईसी में बांग्लादेश
और नाइजर समेत अनेक देश भारत को भी ओआईसी का सदस्य बनाने का समर्थन करते हैं। इसकी
वजह यह है कि भारत में 20 करोड़ के आसपास मुसलमान रहते हैं। यह संख्या पाकिस्तानी
आबादी के आसपास की है। बहरहाल पाकिस्तान नहीं चाहता कि भारत को सदस्य बनाया जाए।
इस्लामिक देशों की
दिलचस्पी अब आर्थिक, तकनीकी और वैज्ञानिक सहयोग को बढ़ाने में
है। इसके लिए जरूरी है कि झगड़ों को दूर किया जाए। सन 2019 में सऊदी अरब के शहजादा
मोहम्मद बिन सलमान ने भारत और पाकिस्तान की यात्रा की। उन्होंने इस बात का ध्यान
रखा कि पाकिस्तान के बाद भारत की यात्रा के रूप में उस कार्यक्रम को न देखा जाए, इसलिए पाकिस्तान से पहले वे वापस अपने देश गए और फिर
भारत आए।
इस्लामिक देशों की
दिलचस्पी भारत की भावी वैश्विक भूमिकाओं को लेकर है। खासतौर से सऊदी अरब और
संयुक्त अरब अमीरात के रिश्ते भारत के साथ सुधरे हैं। नरेंद्र
मोदी भारत के अकेले प्रधानमंत्री हैं, जिन्होंने इसराइल और फलस्तीन के अलग-अलग
दौरे किए हैं।
व्यापक उद्देश्य
भारतीय विदेश-नीति को
अपनी स्वतंत्र-दृष्टि को भी कायम रखना है। हम किसी के पिछलग्गू देश नहीं हैं। भू-राजनीति
के लिहाज से इन गठबंधनों के पीछे भारतीय विदेश-नीति की झलक है। प्रकट रूप से भारत
ने चीन के विरुद्ध सामरिक गठबंधन का समर्थन नहीं किया है, पर यह भी स्पष्ट है कि
वह हमारा प्रतिस्पर्धी है। इस अंतर्विरोध को व्यक्त होना चाहिए। हिंद-प्रशांत
क्षेत्र में ‘क्वॉड’ सामरिक गठबंधन नहीं है, बल्कि उसका
दायरा बढ़ा दिया गया है। इस ‘क्वॉड’ के
विकास में एक दशक से ज्यादा का विमर्श शामिल है और अब भी उसकी भौतिक रूपरेखा
अस्पष्ट है।
भारत रूस के ईस्टर्न इकोनॉमिक फोरम में और
चीन-नीत शंघाई सहयोग संगठन में भी शामिल है। नरेंद्र मोदी सितंबर 2019 में ईस्टर्न इकोनॉमिक फोरम के सालाना
अधिवेशन में शामिल होने के लिए रूस के व्लादीवोस्तक गए थे। उन्हें सम्मेलन में
मुख्य अतिथि बनाया गया था। यह फोरम रूस के सुदूर पूर्व इलाके में विदेशी निवेश और
एशिया-प्रशांत क्षेत्र में आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा देने के लिए गठित किया गया
है।
पश्चिम एशिया का ‘क्वॉड’ अभी अवधारणा के स्तर
पर ही है। उसका विकास होने में समय लगेगा, पर इसमें भारत की बढ़ती उपस्थिति को
देखा जा सकता है। भारत के सामने इस समय एक तरफ चीन की बढ़ती आक्रामकता है वहीं
अफगानिस्तान की अस्थिरता से चिंता भी है। मध्य एशिया के देशों के साथ संपर्क कायम
रखने की मनोकामना भी है।
बढ़ती आर्थिक
गतिविधियों के बरक्स हमें समुद्री और जमीनी रास्तों की जरूरत है। ईरान और
अफगानिस्तान की जरूरत मध्य एशिया के देशों से जुड़ने के लिए रास्तों के कारण है।
इन दोनों देशों के साथ हमने ‘उत्तर-दक्षिण कॉरिडोर’ का समझौता किया है। भारत की विदेश-नीति में यह बेहद
महत्वपूर्ण मोड़ है। अब हम पश्चिम एशिया में अलग-अलग देशों के साथ द्विपक्षीय
सहयोग की जगह बहुपक्षीय समझौतों में शामिल होने जा रहे हैं।
भारत की ऊर्जा
आवश्यकताओं के लिए पश्चिम एशिया जहाँ महत्वपूर्ण है, वहीं तकनीकी, वैज्ञानिक और
सांस्कृतिक दृष्टि से भी इस इलाके का भारत के लिए महत्व है। लाखों की संख्या में
भारत के प्रवासी कामगार खाड़ी देशों में रोजगार पाते हैं। भारत ने यूएई के साथ
वैज्ञानिक और तकनीकी सहयोग के समझौते किए हैं। यूएई के अंतरिक्ष कार्यक्रम में भी
भारत की भागीदारी है। सऊदी अरब और यूएई समेत पश्चिम एशिया के देश पेट्रोलियम के
बाद की आर्थिक संभावनाओं को देख रहे हैं। इन देशों ने भारत में पूँजी निवेश की
घोषणाएं की हैं।
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