एक राजनीतिक कार्यकर्ता को गिरफ्तार करके ले जाते सैनिक
पड़ोसी देश म्यांमार
एकबार फिर से अस्थिरता का शिकार हुआ है। सेना ने फिर से सत्ता पर कब्जा कर लिया
है। पिछले पाँच साल में धीमी गति से जो लोकतांत्रिक प्रक्रियाएं शुरू हुईं थीं,
उन्हें धक्का लगा है। दुनिया के लोकतांत्रिक देशों ने सैनिक शासकों से कहा है कि वे
सांविधानिक भावना का सम्मान करें और लोकतांत्रिक संस्थाओं को अपना काम करने दें।
सवाल है कि यह कौन तय करेगा कि जो हो रहा है, वह सही है या नहीं। और इस संकट का समाधान कैसे होगा? सेनाध्यक्ष मिन
आंग लैंग ने पिछले हफ्ते संविधान को भंग
करने की धमकी दी थी। पिछले नवंबर में हुए चुनाव के आधार पर नवगठित संसद का अधिवेशन
1 फरवरी से होने वाला था। उसे रोककर और देश की सर्वोच्च नेता आंग सान सू ची तथा राष्ट्रपति विन
म्यिंट और दूसरे नेताओं को हिरासत में लेकर सैनिक शासकों
ने अपने इरादों को स्पष्ट कर दिया है।
आंग सान सू ची की
नेशनल लीग फ़ॉर डेमोक्रेसी (एनएलडी) ने नवंबर में हुए चुनाव में भारी जीत हासिल की
थी लेकिन सेना का कहना है कि चुनाव-प्रक्रिया में धांधली हुई थी। राजधानी नेपीटाव
और मुख्य शहर यांगोन में सड़कों पर सैनिक तैनात कर दिए गए हैं। टेलीफ़ोन और इंटरनेट
सेवाएं काट दी गई हैं। यहाँ तक कि सरकारी मीडिया का प्रसारण भी बंद है। मलेशिया के सांसद और आसियान सांसदों के मानवाधिकार समूह के अध्यक्ष चार्ल्स
सैंटियागो ने कहा है कि पिछले नवंबर में देश की जनता ने सैनिक शासन को खारिज कर
दिया है। उन्हें अब संसद को अपना काम करने का मौका देना चाहिए। उन्होंने आसियान
देशों से अनुरोध किया है कि वे अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके हालात को ठीक रास्ते
पर लाएं। म्यांमार आसियान का सदस्य है।
म्यांमार का कथित लोकतंत्र यों भी चूं-चूं का मुरब्बा है। वहाँ
सेना की ही राजनीतिक सत्ता है। संसद की एक चौथाई सीटें सेना के लिए आरक्षित हैं। वर्तमान ‘दोहरी या संकर
प्रणाली’ खासी अलोकतांत्रिक है। व्यावहारिक शक्ति ‘तात्मादाव’ यानी सेना के पास है। संविधान की रचना भी 2008
में सेना ने ही की थी। इसमें सेना ने लोकतांत्रिक रूपांतरण का एक रोडमैप दिया था,
जिसकी परिणति फिर से फौजी शासन में हुई है। वहाँ की कथित लोकतांत्रिक व्यवस्था में
सेना और जनता के चुने हुए प्रतिनिधि मिल-जुलकर सरकार चलाते हैं। संसद के दोनों
सदनों में 25 प्रतिशत सीटें सेना के लिए आरक्षित होती हैं। सेना समर्थक राजनीतिक
दल ‘यूनियन
सॉलिडैरिटी एंड डेवलपमेंट पार्टी’ (यूएसडीपी) को अलग से खुलकर खेलने के अधिकार
प्राप्त हैं। सेना को आपातकाल की घोषणा करने का अधिकार भी है।
बहरहाल आंग सान
सू ची और दूसरे राजनेताओं को हिरासत में लेना ख़तरनाक और उकसाने वाला कदम है। पिछले साल 8 नवंबर को घोषित
चुनाव परिणामों में आंग सान सू ची की नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी (एनएलडी) ने सेना
समर्थक यूएसडीपी पर भारी जीत हासिल की थी। इस चुनाव को तमाम पर्यवेक्षकों ने आंग
सान सू ची सरकार के पक्ष में जनमत संग्रह के रूप में देखा था। सन 2011 में सैनिक शासन
ख़त्म होने के बाद से यह दूसरा चुनाव था।
सेना ने इन
चुनावी नतीजों पर सवाल खड़े किए थे और सुप्रीम कोर्ट में राष्ट्रपति और चुनाव आयोग
के अध्यक्ष के ख़िलाफ़ शिकायत की गई।
चुनाव आयोग ने इन
सभी आरोपों का खंडन किया है। एनएलडी ने संसद के दोनों सदनों में 397 सीटें जीतीं, जो सरकार बनाने के लिए जरूरी बहुमत के आंकड़े 322 से काफी अधिक थी। सेना समर्थित मुख्य विपक्षी दल ‘यूनियन
सॉलिडैरिटी एंड डेवलपमेंट पार्टी’ (यूएसडीपी) को 28 और अन्य दलों को 44 सीटें
मिलीं। यूएसडीपी ने चुनाव में धोखाधड़ी का आरोप लगाया और परिणामों को स्वीकार करने
से इनकार कर दिया, लेकिन चुनाव आयोग ने उसके आरोप और मतदान फिर से
कराने की मांग को खारिज कर दिया।
दो नाव में सवार कभी भी डूब सकता है
ReplyDelete