कोविड-19 ने इनसान के सामने मुश्किल चुनौती खड़ी की है, जिसका जवाब खोजने में समय लगेगा। कोई नहीं कह सकता कि इस वायरस का जीवन-चक्र अब किस जगह पर और किस तरह से खत्म होगा। बेशक कई तरह की वैक्सीन सामने आ रहीं हैं, पर वैक्सीन इसका निर्णायक इलाज नहीं हैं। इस बात की गारंटी भी नहीं कि वैक्सीन के बाद संक्रमण नहीं होगा। यह भी पता नहीं कि उसका असर कितने समय तक रहेगा।
महामारी से सबसे
बड़ा धक्का करोड़ों गरीबों को लगा है, जो प्रकोपों का पहला निशाना बनते हैं। अफसोस
कि इक्कीसवीं सदी के तीसरे दशक की ओर देख रही दुनिया अपने भीतर की गैर-बराबरी और
अन्याय को नहीं देख पा रही है। इस महामारी ने सार्वजनिक स्वास्थ्य के प्रति दुनिया
के पाखंड का पर्दाफाश किया है।
नए दौर की नई
कहानी
सार्वजनिक स्वास्थ्य को लेकर वैश्विक रणनीति का जिक्र अस्सी के दशक में शुरू हुआ था। फिर नब्बे के दशक में दुनिया ने पूँजी के वैश्वीकरण और वैश्विक व्यापार के नियमों को बनाना शुरू किया। इस प्रक्रिया के केंद्र में पूँजी और कारोबारी धारणाएं ही थीं। ऐसे में गरीबों की अनदेखी होती चली गई। हालांकि उस दौर में वैश्विक गरीबी समाप्त करने और उनकी खाद्य समस्या का समाधान करने के वायदे भी हुए थे, पर पिछले चार दशकों का अनुभव अच्छा नहीं रहा है।
पिछले चार दशकों में गरीब से गरीब देशों की सरकारों ने
स्वास्थ्य सेवाओं को निजी क्षेत्र को सौंपने के चक्कर में अपने बजट कम कर दिए हैं।
ऐसा अनायास नहीं हुआ, यह विश्व बैंक के निर्देशों के तहत हुआ है। सन 1978 में
यूनिसेफ और विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अल्मा-अता
घोषणा की थी-सन 2000 में सबके लिए स्वास्थ्य! यह वह दौर था, जब दुनिया नई वैश्विक अर्थव्यवस्था पर विचार कर रही थी।
संयुक्त राष्ट्र
महासभा ने 1974 में अपने विशेष अधिवेशन में नई अंतर्राष्ट्रीय
अर्थव्यवस्था की घोषणा और
कार्यक्रम का मसौदा पास किया। उत्तर के विकसित देशों ने इस बात को महसूस किया कि
विकासशील देशों की उचित मांगों की अनदेखी करना गलत है। इसलिए उन्होंने आपसी विचार
विमर्श की प्रक्रिया आरम्भ की जिसे उत्तर-दक्षिण संवाद कहा जाता है। अल्मा-अता
घोषणा भी उसी प्रक्रिया का हिस्सा थी।
उस घोषणा में
स्वास्थ्य को मानवाधिकार मानते हुए इस बात का वायदा किया गया था कि दुनिया की नई
सामाजिक-आर्थिक संरचना में प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं की जिम्मेदारी सरकारें
लेंगी। पर अगले दो वर्षों में वैश्विक विमर्श पर कॉरपोरेट रणनीतिकारों ने विजय
प्राप्त कर ली और सन 1980 में विश्व बैंक ने स्वास्थ्य से जुड़े अपने पहले नीतिगत
दस्तावेज में प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं की परिभाषा सीमित कर दी और वह चिकित्सा के
स्थान पर निवारक (प्रिवेंटिव) गतिविधि भर रह गई। उस मोड़ से दुनिया में स्वास्थ्य
सेवाओं के जबर्दस्त निजीकरण की रेस शुरू हो गई।
अस्त-व्यस्त
सेवाएं
सन 2020 में जब
दुनिया को महामारी ने घेरा तो हम पाते हैं कि सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाएं
अस्त-व्यस्त हैं। निजी क्षेत्र ने मौके का फायदा उठाना शुरू कर दिया। यह केवल भारत
या दूसरे विकासशील देशों की कहानी नहीं है। फ्रांस, इटली,
स्पेन, ब्रिटेन और अमेरिका जैसे धनवान देशों का अनुभव है। अमेरिका के बारे में तो
कहा जाता है कि लोग बीमारी से नहीं इलाज की कीमत से मरते हैं। इंश्योरेंस नहीं हो
तो वहाँ इलाज कराना आसान नहीं है।
अब दो तरह की हैल्थकेयर कंपनियों का विस्तार हो रहा है। एक,
जो हैल्थ सॉल्यूशंस बेचती हैं। जैसे कार्डिनल हैल्थ, जो अमेरिका में राजस्व के
लिहाज से 14वें नंबर की कंपनी है। सन 1971 में यह कंपनी खाद्य सामग्री के थोक
विक्रेता के रूप में बनी थी। सन 1979 में इसमें दवाओं का वितरण शुरू दिया। उसी
दौरान स्वास्थ्य को लेकर वैश्विक रणनीति बदली और इस कंपनी ने औषधियों का
डिस्ट्रीब्यूशन शुरू कर दिया। आज हैल्थकेयर इंडस्ट्री दुनिया में सबसे तेजी से
बढ़ते कारोबारों में एक है। इसमें दवाओं और उपकरणों से लेकर अस्पताल और सहायक
सामग्री का प्रबंधन सब शामिल है। दूसरी हैं बीमा कंपनियाँ। दोनों तरह की ग्लोबल
कंपनियों के साथ अलग-अलग देशों की सहायक कंपनियों की चेन बन गई है।
सबके लिए स्वास्थ्य
भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 23 सितम्बर, 2019 को ‘सबके लिए स्वास्थ्य’ विषय पर संयुक्त राष्ट्र महासभा की उच्चस्तरीय
बैठक में कहा, स्वास्थ्य का मतलब सिर्फ बीमारियों से मुक्त रहना नहीं है। स्वस्थ
जीवन प्रत्येक नागरिक का अधिकार है। इसे सुनिश्चित करने के लिए उन्होंने भारत
सरकार के उपायों का जिक्र किया। उस सभा में दुनिया के 160 देशों के नेताओं ने भी
अपने विचार व्यक्त किए।
उस वक्त कोई नहीं
जानता था कि अगले कुछ महीनों में दुनिया की इस मामले में परीक्षा होने वाली है। उस
उच्चस्तरीय बैठक का विषय था-‘सबके लिए स्वास्थ्य कवरेज: स्वस्थ विश्व के
निर्माण के लिए सबके साथ आगे बढ़ना।’ लक्ष्य था सरकारों और राष्ट्र प्रमुखों से 2030 तक सबके लिए स्वास्थ्य कवरेज के लिए राजनीतिक
प्रतिबद्धता सुनिश्चित कराना।
तेज आर्थिक विकास के बावजूद भारत में
स्वास्थ्य पर प्रति व्यक्ति खर्च दुनिया
के तमाम विकासशील देशों के मुकाबले कम है। इस खर्च में सरकार की हिस्सेदारी और भी
कम है। चीन में स्वास्थ्य पर प्रति व्यक्ति व्यय भारत के मुकाबले 5.6 गुना है तो
अमेरिका में 125 गुना। औसत भारतीय अपने स्वास्थ्य पर जो खर्च करता है, उसका 62
फीसदी उसे अपनी जेब से देना पड़ता है। एक औसत अमेरिकी को 13.4 फीसदी, ब्रिटिश
नागरिक को 10 फीसदी और चीनी नागरिक को 54 फीसदी अपनी जेब से देना होता है।
सार्वजनिक स्वास्थ्य कवरेज पर योजना आयोग द्वारा गठित
उच्चस्तरीय विशेषज्ञ समूह की सिफारिशों के अनुसार स्वास्थ्य पर सार्वजनिक व्यय को
बारहवीं योजना के अंत तक जीडीपी के 2.5 प्रतिशत और 2022 तक कम से कम 3 प्रतिशत तक
बढ़ाना चाहिए। राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति-2017 के
अनुसार सन 2025 तक भारत में स्वास्थ्य पर सार्वजनिक व्यय जीडीपी का 2.5 फीसदी हो
जाएगा। पर सन 2019-20 के राष्ट्रीय और राज्यों के बजटों पर नजर डालें, तो यह व्यय
जीडीपी के 1.6 फीसदी के आसपास था।
पिछले साल के केंद्रीय बजट में
स्वास्थ्य के लिए धनराशि का आबंटन कुल बजट का 2.4 फीसदी था, जो चालू वित्त वर्ष के
बजट में घटकर 2.3 फीसदी हो गया। यह रकम जीडीपी की 0.3 फीसदी है। इन आँकड़ों की
भाषा के बजाय सीधे-सीधे समझना है, तो यह समझिए की अब सरकार स्वास्थ्य सेवा प्रदाता
नहीं, सेवा की ग्राहक है। स्वास्थ्य सेवाओं का जिम्मा निजी क्षेत्र के पास है।
सरकार नागरिकों के लिए ‘स्ट्रैटेजिक पर्चेजिंग’ करती है। ऐसा संरचनात्मक बदलाव ज्यादातर देशों में हो रहा है।
औषधियों के शोध और विकास का काम अब
निजी क्षेत्र के जिम्मे है। सिद्धांततः इस बात में कोई खामी नहीं है, पर निजी कंपनियाँ सामाजिक कल्याण के उदात्त इरादों से नहीं चलतीं। वे
अपने मुनाफे और कमाई के लिए काम करती हैं। यह जिम्मेदारी नियामक संस्थाओं की है कि
वे सामाजिक कल्याण को सुनिश्चित करें। पर राष्ट्रीय और वैश्विक स्तर पर प्रभावशाली
और ताकतवर नियामक संस्थाएं नजर नहीं आती हैं। ऐसी संस्थाएं, जो पूँजी के दबाव या
लोभ का सामना कर सकें।
वैश्विक स्वास्थ्य से जुड़ा विश्व स्वास्थ्य संगठन
(डब्लूएचओ) अपेक्षाकृत कमजोर संस्था है। यहाँ ताकत के जोर पर नीतिगत बदलाव कराना
आसान है। इस महामारी के दौरान हमने देखा कि इस संगठन के इस्तेमाल को लेकर चीन और
अमेरिका के बीच रस्साकशी हुई और अमेरिका ने इसके साथ अपना नाता तोड़ लिया। संयुक्त
राष्ट्र से लेकर विश्व स्वास्थ्य संगठन तक सबको अपने खर्च को चलाने के लिए पैसा
चाहिए।
अंततः सारी बातें दुनिया पर छाई जबर्दस्त असमानता से जुड़ी
हैं। संयुक्त राष्ट्र सन 2015 के लिए गरीबी और कई तरह की असमानताओं को दूर करने से
जुड़े अपने लक्ष्यों को पूरा करने में विफल रहा। अब सन 2030 तक के संधारणीय विकास
के नए लक्ष्य तय किए गए हैं। इन लक्ष्यों को लेकर अब आने वाले समय की बहसों में
कोविड-19 जैसी महामारी का जिक्र भी जरूर होगा। इस महामारी ने दुनिया को अपने
गरीबों की अनदेखी न करने और पूँजी की स्वार्थी दौड़ को रोकने की सलाह दी है। स्वास्थ्य
विशेषज्ञों का कहना है कि कोविड-19 से बचाव का सबसे बड़ा तरीका है हाथों को धोना।
उधर यूनिसेफ का कहना है कि दुनिया की 40 फीसदी आबादी के पास पानी और साबुन से हाथ
धोने की व्यवस्था भी नहीं है। हम उनसे मास्क पहनने को कह रहे हैं, जिनके पास रोटी
खरीदने के लिए पैसा नहीं है।
पिछले नौ महीनों के हमारे अनुभव अच्छे हैं और खराब भी। निजी
स्तर पर तमाम प्रेरक प्रसंग हैं, पर गरीबों की मदद करने के लिए सामने आए लोगों या स्वास्थ्यकर्मियों
को मेडल देने या उनकी शहादत का यशोगान करने से समस्या का समाधान नहीं होगा। जब तक
दुनिया में निःशुल्क बुनियादी स्वास्थ्य सेवाएं अपनी पूरी गुणवत्ता के साथ हरेक
व्यक्ति को उपलब्ध नहीं हैं, तब तक सब बेकार है। आप ताली बजाएं या थाली।
कुछ तो बजेगा ही। सुन्दर विश्लेषण।
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