Sunday, December 13, 2020

किसान आंदोलन : गतिरोध टूटना चाहिए

किसान आंदोलन से जुड़ा गतिरोध टूटने का नाम नहीं ले रहा है। सरकार और किसान दोनों अपनी बात पर अड़े हैं। सहमति बनाने की जिम्मेदारी दोनों की है। जब आप आमने-सामने बैठकर बात करते हैं, गतिरोध तभी टूटता है पर कई दौर की वार्ता के बाद भी बात वहीं की वहीं है। किसानों का कहना है कि बात तो करने को हम तैयार हैं, पर पहले आप तीन कानूनों को वापस लें। उन्होंने अपने आंदोलन का विस्तार करने की घोषणा की है, जिसमें हाइवे जाम करना, रेलगाड़ियों को रोकना और टोल प्लाजा पर कब्जा करने का कार्यक्रम भी शामिल है। फिलहाल किसानों का तांता लगा हुआ है, एक वापस जाता है, तो दस नए आते हैं।

केंद्र सरकार ने किसानों को लिखित रूप से देने का आश्वासन किया है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य जारी रहेगा। सरकार ने कानून में बदलाव की पेशकश की है, ताकि सरकारी और प्राइवेट मंडियों के बीच समानता रहे। बाहर से आने वाले व्यापारियों पर भी शुल्क लगाने की बात मान ली गई है। व्यापारियों का पंजीकरण होगा और विवाद खड़े होने पर अदालत जाने का अवसर रहेगा। पर किसानों की एक ही माँग है कि तीनों कानूनों को वापस लो।

हमारे मन में किसान की छवि क्या है? बड़े भूस्वामी, छोटी जोत वाले या खेत मजदूर? आंदोलन में किसकी आवाज है? देश में करीब 75 फीसदी छोटा किसान है। तकरीबन 35 करोड़ लोग भूमिहीन हैं। सन 2011 की जनगणना के अनुसार जहाँ दस साल में किसानों की संख्या में 86 लाख की गिरावट आई, वहीं खेत मजदूरों की तादाद में 3.70 करोड़ का इजाफा हुआ। पिछले 15 साल में छोटे और सीमांत किसानों की संख्या में 2.7 करोड़ का इजाफा हुआ है। अब इनकी संख्या 12 करोड़ 60 लाख हो गई है। खेती में अब बड़ी संख्या में लगभग मजदूर जैसे लोग रह गए हैं और थोड़े से बड़ी जोत वाले भूस्वामी।

समर्थन मूल्य

भारत में उत्पादकता विश्व स्तर की नहीं है। उसपर मिलने वाला लाभ कम हो रहा है। उपज का ठीक मूल्य दिलाने और बाजार में कीमतों को गिरने से रोकने के लिए कृषि लागत और मूल्य आयोग की सिफारिशों पर सरकार फसल बोने के पहले समर्थन मूल्य (एमएसपी) की घोषणा करती है। देश में 23 कृषि उत्पादों पर सरकार समर्थन मूल्य घोषित करती है। इनमें सात अनाज, पाँच दलहन, आठ तिलहन के अलावा जटा वाले और छिले नारियल, कपास, जूट और तम्बाकू शामिल हैं।

किसानों की मुख्य माँग है फसलों का समर्थन मूल्य फसल की लागत में पचास फीसदी मुनाफा जोड़कर तय किया जाए। एमएस स्वामीनाथन आयोग ने लागत मूल्य से 50 फीसदी ज्यादा खरीद मूल्य रखने का सुझाव दिया था, पर लागत मूल्य को परिभाषित नहीं किया था। कृषि लागत और मूल्य आयोग ने तीन प्रकार के लागत मूल्य बनाए हैं। इनमें बीज, खाद, पानी+किसान का श्रम+जमीन का किराया शामिल किया था। अभी यह चर्चा ही अनिर्णीत है कि उस लागत में क्या-क्या शामिल किया जाए। जैसे बीज के अलावा जुताई के लिए डीज़ल (ट्रैक्टर), मजदूरी, खाद और कीटनाशक, हर माह खुदाई, गुड़ाई और फिर पूरे परिवार की मेहनत।

एपीएमसी

देश में कृषि क्षेत्र राज्यों के अधीन है। उपज का लाभकारी मूल्य नहीं मिलना आज की समस्या नहीं है। स्वतंत्रता के पहले से सरकार किसानों की उपज खरीद रही थी। सत्तर के दशक में एग्रीकल्चर प्रोड्यूस मार्केटिंग रेग्युलेशन एक्ट के तहत कृषि विपणन समितियां (एपीएमसी) बनी थीं। एपीएमसी कानून के कारण कृषि बाजारों में व्यवस्था लाने और बिचौलियों के हाथों किसानों का शोषण रोकने की दिशा में अच्छे काम हुए, पर यह व्यवस्था समय और जरूरत के हिसाब से विकसित नहीं हो पाई।

कई राज्यों ने एपीएमसी मंडियों में वसूले जाने वाले शुल्क बहुत ज्यादा बढ़ा दिए। ग्रामीण विकास निधि, कृषि कल्याण उपकर, विकास उपकर वगैरह लगा दिए गए। सरकारी खरीद में भी आढ़तिया चार्ज है। मंडी में जो भी उत्पाद बिकते हैं, उसे पहले किसानों से आढ़ती खरीदते हैं। सरकार को भी गेहूं या धान खरीदना हो तो पहले किसानों से आढ़ती खरीदेंगे, फिर खाद्य निगम। आढ़तियों का वृहत तंत्र है। इन्हें राजनेताओं का संरक्षण मिलता है।

किसानों को अपने उत्पाद की जो कीमत मिलती है और ग्राहकों को थाली में खाने के लिए जो कीमत देनी पड़ती है, उसके फर्क को ‘फार्म-टु-फोर्क’ (खेत से थाली के बीच) कीमत वृद्धि कहा जाता है। एक रिपोर्ट कहती है कि यह वृद्धि भारत में 65 प्रतिशत तक है, जबकि उत्तरी यूरोप के देशों में 10 फीसदी और इंडोनेशिया जैसे विकासशील देशों में 25 फीसदी तक होती है।

किसान अपनी पैदावार केवल एपीएमसी चैनल से ही बेचने के लिए बाध्य हैं। उन्हें अन्य स्थलों पर बेचने की छूट नहीं मिलती है। खरीदार को अनिवार्य रूप से एपीएमसी मंडी का रास्ता ही पकड़ना होता है। बावजूद इसके समूचे कृषि कारोबार का एक छोटा हिस्सा ही इन मंडियों का है। इसके बाहर भी अनाज धड़ल्ले से बिकता है। ऐसा कारोबार एपीएमसी कानून का उल्लंघन है। फिर भी दबे-छिपे यह काम होता है। नया कानून एपीएमसी बाजारों के बाहर होने वाली खरीद-फरोख्त को संस्थागत दर्जा देगा।

तीन कानून

अब इन तीन कानूनों पर नजर डालें। कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) अधिनियम-2020 में एक ऐसा इकोसिस्टम बनाने का प्रावधान है जहां किसानों और व्यापारियों को मंडी से बाहर फ़सल बेचने की आज़ादी होगी। कृषक (सशक्तिकरण व संरक्षण) क़ीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर क़रार अधिनियम-2020 कृषि उत्पादों की बिक्री, फ़ार्म सेवाओं,कृषि बिजनेस फ़र्मों, प्रोसेसर्स, थोक विक्रेताओं, बड़े खुदरा विक्रेताओं और निर्यातकों के साथ किसानों को जोड़ने के लिए सशक्त करता है। अनुबंधित किसानों को गुणवत्ता वाले बीजों, तकनीक और फ़सल स्वास्थ्य की निगरानी, ऋण की सुविधा और फ़सल बीमा की सुविधा उपलब्ध कराई जाएगी।

तीसरे, आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक-2020 के तहत अनाज, दलहन, तिलहन, खाद्य तेल, प्‍याज़ आलू को आवश्यक वस्तुओं की सूची से हटाने का प्रावधान है। माना जा रहा है कि इस विधेयक के प्रावधानों से किसानों को सही मूल्य मिल सकेगा क्योंकि बाज़ार में स्पर्धा बढ़ेगी। सिद्धांततः नई व्यवस्था मंडी समितियों को खत्म नहीं कर रही है, बल्कि एक वैकल्पिक व्यवस्था को जन्म दे रही है। एपीएमसी में बदलाव राज्यों की विधानसभाएं ही करेंगी, क्योंकि कृषि बाजार एवं हाट राज्य सूची में आते हैं। इन कानूनों में कहीं भी सरकारी खरीद बंद करने या न्यूनतम समर्थन मूल्य खत्म करने की बात नहीं है। केवल अंदेशा है कि सरकार उसे खत्म करेगी। किसानों को एक यही नहीं दूसरी भी कई तरह की आशंकाएं हैं।

बेशक यह जिम्मेदारी सरकार की है कि वह बताए कि उसके कानूनों से किसानों को अपनी फसल की बेहतर कीमत मिलने के द्वार खुलेंगे। सवाल यह भी है कि किसानों का हित हो रहा है, तो उन्हें यह बात समझ में क्यों नहीं आ रही है? वे क्यों औपनिवेशिक पद्धति पर ही चलना चाहते हैं? उन्हें यह भी बताना चाहिए कि नए कानून से उनका क्या नुकसान होगा।

हरिभूमि में प्रकाशित

 

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