कोविड-19 ने केवल वैश्विक-स्वास्थ्य की तस्वीर को ही नहीं बदला है, बल्कि खान-पान, पहनावे, रहन-सहन, रोजगार, परिवहन और शहरों की प्लानिंग तक को बदल दिया है। इन्हीं बदलावों के बीच एक और बड़ा बदलाव वैश्विक स्तर पर चल रहा है। वह है शिक्षा-प्रणाली में बदलाव। यह बदलाव प्रि-स्कूल से लेकर इंजीनियरी, चिकित्सा और दूसरे व्यवसायों की शिक्षा और छात्रों के मूल्यांकन तक में देखा जा रहा है।
भारत के सुप्रीम
कोर्ट में इन दिनों एक याचिका पर सुनवाई हो रही है, जिसमें राज्य सरकारों को
महामारी के मद्देनज़र बोर्ड परीक्षाएं आयोजित नहीं करने का निर्देश देने की मांग
की गई थी। अदालत
को सूचित किया गया कि 28 राज्यों में से छह ने बोर्ड की परीक्षाएं पहले ही करा ली
हैं, 18 राज्यों ने उन्हें
रद्द कर दिया है, लेकिन
चार राज्यों (असम, पंजाब,
त्रिपुरा और आंध्र प्रदेश) ने अभी तक
उन्हें रद्द नहीं किया है। बाद में आंध्र ने भी परीक्षा रद्द कर दी। सीबीएसई समेत ज्यादातर
राज्यों ने परीक्षाएं रद्द कर दी हैं। अब मूल्यांकन के नए तरीकों को तैयार किया जा
रहा है, पर प्याज की परतों की तरह इस समस्या के नए-नए पहलू सामने आते जा रहे हैं,
जो ज्यादा महत्वपूर्ण हैं।
160
करोड़ बच्चे प्रभावित
महामारी का असर पूरी दुनिया की शिक्षा पर पड़ा है। खासतौर से उन बच्चों पर जो संधि-स्थल पर हैं। मसलन या तो डिग्री पूरी कर रहे हैं या नौकरी पर जाने की तैयारी कर रहे हैं या स्कूली पढ़ाई पूरी करके ऊँची कक्षा में जाना चाहते हैं। तमाम अध्यापकों का रोजगार इस दौरान चला गया है। बहुत छोटी पूँजी से चल रहे स्कूल बंद हो गए हैं। ऑनलाइन पढ़ाई का प्रचार आकर्षक है, पर व्यावहारिक परिस्थितियाँ उतनी आकर्षक नहीं हैं।
गरीब परिवारों में एक भी स्मार्टफोन नहीं है। जिन परिवारों में हैं भी, तो महामारी के कारण आर्थिक विपन्नता ने घेर लिया है और वे रिचार्ज तक नहीं करा पा रहे हैं। यह हमारे और हमारे जैसे देशों की कहानी है। ऑनलाइन शिक्षा लगती आकर्षक है, पर बच्चों और शिक्षकों के आमने-समाने के सम्पर्क से जो बात बनती है, वह इस शिक्षा में पैदा नहीं हो सकती।
वैश्विक-शिक्षा पर
महामारी के प्रभाव को आँकने के लिए संयुक्त राष्ट्र ने एक ट्रैकर जारी किया है, जिसे जॉन्स हॉपकिन्स
यूनिवर्सिटी, वर्ल्ड बैंक और
यूनिसेफ के सहयोग से बनाया गया है। पिछले एक साल में कोरोना महामारी के कारण दुनिया
के 160 करोड़ बच्चों की शिक्षा पर असर पड़ा है। महामारी से पहले भी दुनिया में
शिक्षा की स्थिति बहुत बेहतर नहीं थी। उस समय भी प्राथमिक और माध्यमिक स्कूल जाने
योग्य 25.8 करोड़ बच्चे स्कूल से बाहर थे। वहीं निम्न और मध्यम आय वाले देशों में
करीब 53 फीसदी बच्चों को शिक्षा नहीं मिल रही थी। जिसका मतलब है कि 10 वर्ष की
उम्र से बड़े करीब आधे बच्चे लिख पढ़ नहीं सकते हैं।
उप-सहारा अफ्रीका में
स्थिति और बदतर है, जहां यह आंकड़ा 90 फीसदी के करीब है। उच्च आय वाले देशों में भी
9 फीसदी बच्चों की यह स्थिति है। असमानता पहले से थी, पर महामारी ने इसे और बढ़ा
दिया, जिसका असर आने वाली पीढ़ी पर लम्बे समय तक रहेगा। अप्रैल 2020 में जब महामारी
और उसके कारण हुए लॉकडाउन के चलते स्कूलों को बंद किया गया था तब उसका असर 94
फीसदी छात्रों पर पड़ा था, जिनकी
संख्या करीब 160 करोड़ थी। अनुमान है अब भी करीब 70 करोड़ बच्चे अपने घरों से ही
शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं।
डेढ़
साल पीछे गए
पिछले एक साल का डेटा
बता रहा है कि गुजरे साल में औसत बच्चों के ज्ञान में कमी आई है। मार्च 2021 तक
इंग्लैंड के प्राइमरी स्कूलों के बच्चे तीन महीने पीछे चले गए, बेल्जियम और
नीदरलैंड्स के बच्चों के टेस्ट लेने पर वहाँ से भी ऐसी ही जानकारी मिली है। पर यह
विकसित देशों के बच्चों की कहानी है। भारत के गाँवों में शिक्षा की स्थिति का पता
लगाने के लिए हमें प्रथम की किसी रिपोर्ट का इंतजार करना होगा।
बीबीसी हिन्दी की एक
रिपोर्ट में बच्चों के साथ ऑनलाइन जुड़ी एक अध्यापिका ने बताया, कई लड़कियों के
लिए स्कूल अपने घर की मुश्किल भरी ज़िंदगी से एक आज़ादी की तरह से था। सीखने के
अलावा, स्कूल में दोस्त बनते
हैं, बातचीत होती है और
मिड-डे मील भी मिलता है. ये सब चीज़ें अब ख़त्म हो गई हैं। दिल्ली के एक सरकारी
प्राइमरी स्कूल में पढ़ने वाली एक लड़की की मां ने बताया कि जब से लॉकडाउन लागू
हुआ है, तब से हमारी बेटी घर
पर खाली बैठी है। हम काम की तलाश में यूपी से दिल्ली आए थे। मेरे पति ऑटो-रिक्शा
चलाते हैं और मैं लोगों के घर पर कामकाज करती हूं। हमें पता चला है कि बड़े स्कूल
कंप्यूटर पर कक्षाएं ले रहे हैं। लेकिन, हमारे पास तो स्मार्टफोन तक नहीं है।
क्या
सुधार होगा?
साप्ताहिक इकोनॉमिस्ट
ने हाल में लिखा है कि बड़े झटके अक्सर बड़े और सकारात्मक बदलावों के रास्ते भी
खोलते हैं। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद ब्रिटेन में सन 1944 के बटलर कानून ने
शैक्षिक-क्रांति की बुनियाद डाली थी। अमेरिका में सन 2005 में कैटरीना तूफान के
कारण न्यू ऑर्लियंस तबाह हो गया था। इसके बाद वहाँ तेज शैक्षिक सुधार किए गए और
इससे जीवन-स्तर में काफी बदलाव आया। यह मौका है जब स्कूली शिक्षा में बड़े बदलाव हो
सकते हैं। शिक्षा-शास्त्री मानते हैं कि
उन्नीसवीं सदी के बाद से शिक्षा-व्यवस्था में कोई युगांतरकारी बदलाव नहीं हुआ है।
बड़ी-बड़ी इमारतों और बड़े-बड़े संस्थानों के स्थान पर क्या छोटे और स्थानीय
स्कूलों की कोई नई अवधारणा तैयार होगी?
भारत में सीबीएसई ने 10वीं
और 12वीं की परीक्षाएं रद्द करने के बाद परीक्षा परिणाम तैयार करने के लिए नई मूल्यांकन-नीति
जारी की है। 12वीं कक्षा के परीक्षा-परिणाम तैयार करने में सीबीएसई स्कूलों का
तकनीकी-सहयोग भी करेगा। इसके लिए भी एक पोर्टल तैयार किया जा रहा है। सीबीएसई के छात्र
अब अपने डुप्लीकेट मार्कशीट, माइग्रेशन
सर्टिफिकेट जैसे दस्तावेज एक पोर्टल पर जाकर हासिल कर सकेंगे। उन्हें अब ऐसे दस्तावेजों के
लिए दफ्तरों में भटकने की जरूरत नहीं होगी। यह सारा काम सूचना-तकनीक और इंटरनेट के
सहारे होगा। शहरी इलाकों की बात छोड़ दें, तो देहाती और गरीब बच्चे फिर पीछे रह
जाएंगे। उसका इलाज क्या है? संसद और सुप्रीम
कोर्ट को इस तरफ देखना चाहिए।
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