विडंबना है कि हमने आर्थिक-सुधार किए नहीं, समय ने मजबूर किया। इन्हें ऐसी अल्पसंख्यक-सरकार ने शुरू किया, जिसके प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री खुद संसद-सदस्य नहीं थे। फिर भी वह जबर्दस्त शुरूआत थी। उसके बाद पहले 100 दिन में जैसा बदलाव आया, वैसा शायद ही कभी देखने को मिला हो। आर्थिक-सुधारों को लेकर या तो आमराय नहीं है या उनके महत्व को राजनीतिक-दल समझ नहीं पाए हैं।
बड़ी देर कर दी मेहरबान
हमने जब यह रास्ता पकड़ा, उसके सौ साल पहले जापान ने अपनी अर्थव्यवस्था को खोला था। चीन ने सत्तर के दशक में इसकी शुरूआत की थी। दक्षिण कोरिया और मलेशिया जैसे देशों ने भी हमसे पहले अपनी अर्थव्यवस्थाओं को खोल लिया था। भारत ने जब यह फैसला किया, देश असाधारण राजकोषीय घाटे और भुगतान संकट में था। सरकार यूनियन बैंक ऑफ स्विट्ज़रलैंड और बैंक ऑफ इंग्लैंड में 67 टन सोना गिरवी रख चुकी थी।
जनवरी 1991 में हमारा विदेशी मुद्रा भंडार 1.2 अरब डॉलर था, जो जून आते-आते इसका आधा रह गया। आयात भुगतान के लिए तकरीबन तीन सप्ताह की मुद्रा हमारे पास थी। ऊपर से राजनीतिक अस्थिरता थी। प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर की अल्पमत सरकार कांग्रेस के सहयोग पर टिकी थी। फौरी तौर पर हमें अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से 2.2 अरब डॉलर का कर्ज लेना पड़ा और सोना गिरवी रखना पड़ा। अगले अठारह साल में कहानी बदल गई। 1991 में सोना गिरवी रखने वाले देश ने नवम्बर 2009 में उल्टे आईएमएफ से 200 टन सोना खरीदा।
हमने हासिल क्या किया? अब एक नजर अपने विदेशी-मुद्रा भंडार पर डालें। इस 9 जुलाई को पहली बार वह 612 अरब डॉलर के करीब पहुँच था। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम और ऑक्सफोर्ड गरीबी एवं मानव विकास पहल (ओपीएचआई) के पिछले साल जारी आँकड़ों के अनुसार 2005-06 से 2015-16 के दौरान भारत में 27.3 करोड़ लोग गरीबी के दायरे से बाहर निकले। इस दौर में किसी भी देश में गरीबों की संख्या में यह सर्वाधिक कमी है। उदारीकरण या आर्थिक-सुधारों को हम केवल उच्च और मध्य-वर्ग के चश्मे से ही न देखें। इनका सबसे ज्यादा असर सामाजिक-कल्याण के कार्यक्रमों पर पड़ना चाहिए। हमारी पुरानी व्यवस्था कागजों पर कल्याण-कार्यक्रमों को चलाती थी और व्यावहारिक रूप से वह उच्च-मध्य वर्ग को लाभ देती थी। सब्सिडी का ज्यादातर लाभ उच्च वर्गों ने प्राप्त किया।
दीमक लगी व्यवस्था
सन 2017 में जब मोदी सरकार के तीन साल पूरे हुए, तब कहा गया कि हमने 1,175 पुराने कानूनों को खत्म किया है। इसके पहले 64 साल में देश ने 1,301 कानूनों को खत्म किया था। दीमक लगी व्यवस्था की सफाई और नए कानूनों की जरूरत है। आईपीसी और सीआरपीसी के गैर-जरूरी प्रावधानों को हटाने के अलावा मोटर वाहन कानून, पर्यावरण कानून, उपभोक्ता अधिकारों के कानून बने। हमें अभी ह्विसिल ब्लोवरों के लिए कानून, भ्रष्टाचार की शिकायत करने के लिए कानून ऐसे ही तमाम कानूनों की जरूरत है। पर कानून जहाँ बनते हैं, वहाँ हंगामों से फुर्सत नहीं।
दिवाला कानून (आईबीसी) के सहारे बैंकों की रकम को निकाला जा सकेगा, पर अब भी कई तरह के कानूनी पचड़े हैं। सबसे मुश्किल सुधार श्रम-कानूनों का है। तत्कालीन वित्तमंत्री यशवंत सिन्हा ने 2001-02 के बजट में दावा किया था कि यह काम जल्द पूरा हो जाएगा। वे नहीं कर पाए। सन 2004 में आई यूपीए सरकार ने इससे कन्नी काट ली और दस साल इसका जिक्र नहीं किया।
रक्षा-उद्योग में विदेशी-पूँजी के प्रवेश और निजी-क्षेत्र की भागीदारी के लिए रक्षा खरीद और उत्पादन की व्यवस्था में सुधार हुआ है। ‘स्ट्रैटेजिक-पार्टनरशिप’ के तहत भारतीय कम्पनियाँ विदेशी कम्पनियों से तकनीकी-हस्तांतरण के समझौते करेंगी। रक्षा-सामग्री के निर्यात की भी योजना है। तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश में दो रक्षा-कॉरिडोर तैयार हो रहे हैं। तेज गति से उत्तर प्रदेश में हाईवे निर्माण चल रहा है। इनकी न केवल रक्षा-कॉरिडोर में भूमिका होगी, बल्कि प्रदेश के अविकसित क्षेत्रों में नए उद्योग आएंगे।
प्रधानमंत्री ने भारत को 2025 तक पाँच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने का संकल्प किया है। इंटरनेशनल मोनीटरी फंड का अनुमान है कि 2022-23 के वित्त वर्ष में भारत की संवृद्धि 6.9 फीसदी होगी, जबकि पाँच ट्रिलियन का लक्ष्य हासिल करने के लिए हर साल कम से कम आठ फीसदी की दर से विकास करना होगा। प्रत्यक्ष विदेशी पूँजी निवेश बढ़ा है, पर यदि जीडीपी के प्रतिशत के रूप में देखें, तो हम सिंगापुर और वियतनाम से भी पीछे हैं।
दूसरी जरूरत समावेशी-विकास की है। अमीरों को ज्यादा अमीर और गरीबों को ज्यादा गरीब बनाने वाली व्यवस्था भी हमें नहीं चाहिए। पर पूँजी लगाने वालों के भी हित होते हैं। सरकार की जिम्मेदारी है कि संसाधनों का इस्तेमाल समावेशी-विकास में हो। टैक्स मिलेगा तभी सरकारें खर्च कर सकेंगी। भारत में जीडीपी का दस फीसदी के आसपास कर-राजस्व होता है, जो कोरोना-काल में दस से भी नीचे है। इसे 20 फीसदी होना चाहिए। दुनिया में सबसे कम टैक्स वसूल पाने वाले देशों में हम हैं। टैक्स देने में समर्थ लोगों को कर-ढाँचे में लाने के लिए कुशलता और कानूनी सुधारों की जरूरत है।
झटके पर झटका
सन 2008 में अमेरिका और यूरोप की मंदी के दौर में भी हमारी अर्थव्यवस्था उसके दंश से बची रही। 2007-08 में हमारी ग्रोथ 9.2 प्रतिशत थी जो 2008-09 में 6.7 हो गई। इसके बाद अर्थव्यवस्था ने तेजी पकड़ी और 2009-10 में यह दर 7.4 प्रतिशत हो गई। सन 2014 में मोदी सरकार आने के बाद दो-तीन साल तक आर्थिक संवृद्धि बढ़ी, पर नवंबर 2016 में नोटबंदी के फैसले ने अर्थव्यवस्था को बड़ा धक्का पहुँचाया। एक साल बाद हमने जीएसटी लागू किया, जिसके झटके अब तक लग रहे हैं।
सितम्बर 2019 में वित्तमंत्री निर्मला सीतारमन ने कॉरपोरेट टैक्स में जबर्दस्त कमी की घोषणा की। इसके बाद जनवरी 2020 में वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने नेशनल इंफ्रास्ट्रक्चर पाइपलाइन (एनआईपी) की घोषणा की, जिसके तहत अगले पांच साल में 102 लाख करोड़ रुपये की परियोजनाओं को पूरा किया जाएगा। उम्मीद थी कि 2020-21 से स्थितियाँ बेहतर होंगी, पर कोरोना के कारण 2020 की पहली तिमाही में भारतीय अर्थव्यवस्था को 24 फीसदी के संकुचन का सामना करना पड़ा।
राजनीतिक बेरुखी
पिछले साल पास हुए तीन नए कृषि-कानूनों पर राजनीतिक प्रतिक्रिया इन दिनों सामने है। इस सुधार के लिए तीन दशक से कोशिशें चल रही थीं। मेडिकल और इंजीनियरी शिक्षा से जुड़ी व्यवस्थाएं बदल रही हैं। ऐसे कॉलेजों की शुरूआत होने जा रही है, जिसमें हर प्रकार के विषयों की पढ़ाई सम्भव है। शिक्षा-प्रणाली में सुधार दो दिन में नहीं होता। पर यह महत्वपूर्ण है।
हमसे जो हो सकता था, क्या वह हो चुका या सम्भावनाएं अब भी हैं? यूपीए सरकारों ने अनदेखी की। मोदी सरकार ने प्रतिबद्धता व्यक्त की, पर या तो उसने शिद्दत से काम नहीं किया या ‘दैवयोग’ आड़े आया। बदलाव को लेकर तब भी अंदेशे थे और आज भी बेरुखी है। खासतौर से राजनीति की। आर्थिक-सुधार हमारे राजनीतिक-विमर्श का हिस्सा कभी नहीं रहे।
सन 2011 में दिल्ली आए मलेशिया के पूर्व प्रधानमंत्री मोहम्मद महातिर ने कहा था कि अतिशय लोकतंत्र स्थिरता और समृद्धि की गारंटी नहीं होता। हमें एक बेहतर और फोकस्ड लोकतंत्र की ज़रूरत है। यह वह दौर था, जब मनमोहन सरकार ने रिटेल में विदेशी निवेश के दरवाजे खोलने की घोषणा की थी। दिल्ली में घोषणा हुई और कोलकाता से ममता बनर्जी का जवाब आया, कोई रिटेल-फिटेल नहीं। वह घोषणा चूं-चूं का मुरब्बा बनकर रह गई।
उदारीकरण की शुरूआत करने वाले मनमोहन सिंह के आर्थिक सलाहकार कौशिक बसु ने उसे ‘पॉलिसी-पैरेलिसिस’ का दौर कहा था। नब्बे के दशक में जब देश में आर्थिक उदारीकरण की हवा चल रही थी, उत्तर भारत की राजनीति में सामाजिक-न्याय की हवा बह रही थी। पश्चिम बंगाल में वामपंथी सरकार थी, जिसने शुरूआती वर्षों में आर्थिक गतिविधियों पर ध्यान दिया नहीं और जब दिया, तबतक ‘पोरिबोर्तोन’ आ चुका था। आज वे इतिहास के डस्टबिन में हैं।
उत्तर और दक्षिण
इतिहास लेखक रामचंद्र गुहा ने अर्थशास्त्री सैमुअल पॉल और कला सीताराम श्रीधर की किताब का हवाला देते हुए लिखा है कि 2015 में चार उत्तर भारतीय राज्यों में प्रति व्यक्ति औसत सालाना आय 4,000 डॉलर थी, जबकि दक्षिणी राज्यों में 10,000 डॉलर। दक्षिण में सरकारी स्कूल और अस्पताल बेहतर हैं, स्कूल ड्रॉपआउट कम है। उत्तर की झुग्गियों से दक्षिण की झुग्गियाँ बेहतर हैं और शौचालय स्वच्छ हैं, पेयजल साफ।
जब उदारीकरण शुरू हुआ, तब दक्षिण इस नीतिगत बदलाव का लाभ उठाने के लिए बेहतर स्थिति में था। उसके पास कहीं कुशल और स्वस्थ श्रम बल था। जब दक्षिण में फैक्टरियां, इंजीनियरिंग कॉलेज, सॉफ्टवेयर पार्क और दवा उद्योग फल-फूल रहा था, तब उत्तर में साम्प्रदायिक और जातीय सवाल खड़े थे।
बहुत कुछ बदले बिना यह सूरत नहीं बदलनी वाली
ReplyDelete