संसद के मॉनसून-सत्र के पहले हफ्ते की कार्यवाही को देखते हुए अंदेशा होता है कि कहीं यह स्पाईवेयर पेगासस की भेंट न चढ़ जाए। पेरिस की मीडिया संस्था फॉरबिडेन स्टोरीज और एमनेस्टी इंटरनेशनल को विभिन्न देशों के ऐसे 50,000 फोन नम्बरों की सूची मिली, जिनके बारे में संदेह है कि उनकी हैकिंग कराई गई। इन नम्बरों में भारत के कुछ पत्रकारों सहित केंद्रीय मंत्रियों, विपक्ष के नेताओं, सुरक्षा संगठनों के मौजूदा और पूर्व प्रमुखों, वैज्ञानिकों आदि के भी शामिल होने की बात कही जा रही है।
यह सिर्फ संयोग नहीं है कि भारत में यह जासूसी तब हुई थी, जब भारत में
लोकसभा चुनाव चल रहे थे। उसके पहले यूपीए सरकार के तत्कालीन वित्तमंत्री प्रणब
मुखर्जी के दफ़्तर में और सेना प्रमुख जनरल वीके सिंह के यहां भी जासूसी होने की
शिकायतें थीं। कौन था उनके पीछे? इन सवालों के बीच नागरिकों की स्वतंत्रता और उनके निजी जीवन में राज्य के
हस्तक्षेप का सवाल भी है। सबसे बड़ा सवाल है कि तकनीकी जानकारी के सदुपयोग या
दुरुपयोग की सीमाएं क्या हैं? इस मामले के भारतीय और अंतरराष्ट्रीय संदर्भ अलग-अलग हैं, इसलिए कोई बड़ी
तस्वीर उभर कर नहीं आ रही है।
जटिल सवाल
इसराइली कंपनी एनएसओ के पेगासस स्पाईवेयर से जुड़ा यह विवाद 2019 में भी उठा था। यह बहुत जटिल मामला है। सरकार का कहना है कि हम इसके पीछे नहीं हैं, पर तमाम सवालों के जवाब नहीं मिल रहे हैं। ऐसे में केवल एक बयान से बात बनती नहीं। विरोधी-पक्ष को भी पता है कि इस रास्ते पर सिर्फ अंधेरा है, पर उसे भी अपनी राजनीतिक-मंजिलों की तलाश है। हमारा डर यह है कि इस आपाधापी में जरूरी संसदीय-कर्म को नुकसान न हो जाए। यह मामला पीआईएल की शक्ल में सुप्रीम कोर्ट में पहुँचा है।
क्या अदालत की
निगरानी में इस मामले की जाँच सम्भव है? विषय
की संवेदनशीलता को देखते हुए यह आसान नहीं लगता। डेढ़ साल पहले जब पहली बार यह
मामले सामने आया था, तब अमेरिका की अदालत में यह मामला गया था, पर वहाँ भी कोई
बड़ी तस्वीर उभर कर नहीं आई। नवम्बर 2019 में जब भारत में यह मसला उठा था, तब जो सवाल उठे थे, वे अनुत्तरित हैं। राजनीतिक,
प्रशासनिक और सांविधानिक-संस्थाओं की साख के सवाल इससे जुड़े हैं। क्या उनकी
निगरानी की जा रही है?
कौन
करेगा जाँच?
ज्यादा बड़ा सवाल है
कि जवाब देना किसे है? पहले सवालों पर गौर
करें। दुनिया के करीब 50,000 टेलीफोन नम्बर एक ऐसी कम्पनी के डेटाबेस से लीक हुए
हैं, जो जासूसी करने वाला स्पाईवेयर बनाती है। इनमें कुछ नम्बर भारत से जुड़े हैं।
कम्पनी का कहना है कि यह स्पाईवेयर केवल सरकारों को ही बेचा जाता है। इस आधार पर
भारतीय नम्बरों के लिए भारत सरकार को जिम्मेदार माना जा रहा है। सरकार कहती है कि हमारी
इसमें कोई भूमिका नहीं है। विरोधी-दल कहते हैं कि जाँच हो। यहाँ से सवालों की
श्रृंखला शुरू होती है।
जाँच किस चीज की होगी? बुनियादी तौर पर इस बात की कि यह जासूसी
कौन करवा रहा था और किसलिए? डेटाबेस
अंतरराष्ट्रीय है, इसलिए मामला केवल भारत का नहीं है। ऐसे में जाँच का दायरा केवल
भारत कैसे हो सकता है? सवाल है कि डेटाबेस
को लीक किसने किया है? पत्रकारों के इस
अंतरराष्ट्रीय गठबंधन के पीछे कौन है? एमनेस्टी
इंटरनेशनल की इसमें क्या भूमिका है? जिन
मीडिया हाउसों को जानकारी दी गई है, क्या उनकी कोई राजनीतिक-दृष्टि भी है? खासतौर से भारत के संदर्भ में। क्या
सरकार को जवाब देने के लिए मजबूर किया जा सकता है? क्या वजह है कि यह जानकारी संसद के
मॉनसून-सत्र के ठीक पहले उजागर हुई है?
कौन
है इसके पीछे?
इलेक्ट्रॉनिक्स और
सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री अश्विनी वैष्णव ने संसद में कहा कि हमारे यहाँ एक
स्थापित प्रक्रिया है जिसके तहत राष्ट्रीय सुरक्षा या किसी भी सार्वजनिक उद्देश्य
से सरकारी एजेंसियां संचार-व्यवस्था को इंटरसेप्ट करती हैं। सरकार ने अभी तक जो
जवाब दिए हैं, वे बहुत औपचारिक हैं। सरकार इस बात का जवाब देने से बच रही है कि
उसने पेगासस स्पाईवेयर ख़रीदा या नहीं। वह सिर्फ इतना ही कह रही है कि देश में ‘वैधानिक-अंतर्ग्रहण (इंटरसेप्शन)’ की जो व्यवस्था है, वह बरसों से चली आ
रही है, और वैसी ही चल रही है।
सवाल है कि जिस ‘स्नूपिंग’ को लेकर
हंगामा मचा है, वह सरकार ने की या नहीं? जिन
लोगों के नाम सामने आए हैं, उनमें भारत के अलावा किसकी दिलचस्पी है? इस सवाल का जवाब भी आसान नहीं है।
दिलचस्पी किसी भी ऐसे देश की हो सकती है, जो भारत पर नजर रखना हो, या रखना चाहता
हो। हो यह भी सकता है कि किसी सरकार के माध्यम से इस सॉफ्टवेयर को किसी गैर-सरकारी
संस्था ने हासिल कर लिया हो। मोबाइल फोन और इंटरनेट के तकनीकी विकास के कारण समस्याएं
और जटिल हुई हैं। आतंकवादी गतिविधियों को भी इन तकनीकों से मदद मिलती है।
आपराधिक
गतिविधियाँ
तमाम नॉन-स्टेट एक्टर
ऐसे भी है, जो किसी देश की सरकार से खड़े हैं। पाकिस्तान के लश्करे-तैयबा और
जैशे-मोहम्मद क्या हैं? पेगासस के बारे में सबसे पहले 2016 में खबरें आई थीं। तब पता लगा था कि
यूएई के एक मानवाधिकार कार्यकर्ता अहमद मंसूर के आईफोन 6 पर एक एसएमएस भेजकर उसे
हैक किया गया था। कनाडा की सिटिजंस लैब इसका अध्ययन कर रही है। वैश्विक-व्यवस्था को पारदर्शी बनाने को कोशिशें
जारी हैं। यह स्पष्ट नहीं है कि इस मामले को उठाने वालों का उद्देश्य क्या है।
उनकी आड़ में आपराधिक-प्रवृत्तियाँ भी सक्रिय हो सकती हैं।
सरकारों की दिलचस्पी
अपने दुश्मनों पर ही नहीं, अपने एजेंटों पर भी होती है। इन 50,000 नम्बरों में से
हजार के आसपास ‘पोटेंशियल’ भारतीय नम्बर हैं। यह स्पष्ट नहीं है
कि इन्हें हैक किया गया था या नहीं। कुछ फोन ‘कंटेमिनेट’
भी हुए हैं। विरोधी-राजनीति के निशाने
पर नरेंद्र मोदी की सरकार है। सन 2014 में उनकी सरकार बनने के बाद से भारतीय राजनीति
और उसके अंतरराष्ट्रीय-सम्पर्कों पर भी रोशनी डालने की जरूरत है।
नवम्बर 2019 में दयानिधि मारन ने जब लोकसभा में
सरकार से पूछा था कि क्या सरकार पेगासस का उपयोग करती है, तत्कालीन गृह
राज्यमंत्री जी किशन रेड्डी ने यह नहीं बताया कि करती है या नहीं। किसी भी सरकार
से उम्मीद नहीं करनी चाहिए कि वह अपने खुफिया उपकरणों की सार्वजनिक जानकारी देगी।
दूसरे ‘सरकारी-स्नूपिंग’ व्यक्ति का निजी काम नहीं है। इस काम
से जुड़ी संस्थाएं हैं, पर उनकी गतिविधियों की जानकारी सार्वजनिक रूप से मिलेगी,
इसकी उम्मीद नहीं करनी चाहिए। जिस जाँच की माँग इस समय हो रही हैं, वह राजनीतिक
माँग है।
राजनीतिक
निहितार्थ
कांग्रेस पार्टी इसके
पहले राफेल मामले को लेकर संसदीय संयुक्त समिति की माँग करती रही है। इस मामले की
जाँच भी वह जेपीसी के मार्फत चाहते हैं। अतीत में जेपीसी माँगों का हश्र हम देख
चुके हैं। यह मसला आम आदमी से जुड़ा नहीं है, इसलिए जनता की प्रतिक्रिया नहीं है। यह
सरकार ही ‘खुफिया-निगहबानी’ नहीं कर रही है। सन 2012 में एक अंग्रेजी अख़बार ने आरटीआई के
हवाले से जानकारी दी थी कि केंद्रीय गृह मंत्रालय हर दिन औसतन 250-300 टेलीफ़ोन इंटरसेप्शन का आदेश देता है
और हर महीने औसतन 7,500
से 9,000 टेलीफ़ोनों की कॉल
रिकॉर्ड की जाती हैं।
इनफॉर्मेशन
टेक्नोलॉजी अधिनियम-2000 के तहत इंटरसेप्शन वैध गतिविधि है। नीरा राडिया टेप
औपचारिक-व्यवस्था के तहत ही तैयार हुए थे। वे बाहर कैसे आए, इस रहस्य पर से शायद
ही कभी पर्दा उठेगा। ज्यादातर सम्प्रभु राष्ट्र अपनी सुरक्षा के लिए जासूसी या
इंटेलिजेंस का काम करते हैं। गोपनीयता बनाए रखने के लिए इस प्रक्रिया को सार्वजनिक
पड़ताल के दायरे से बाहर रखा जाता है।
सुप्रीम कोर्ट ने ‘प्राइवेसी’ को
मौलिक-अधिकार का दर्ज दिया है, जिससे अंतर्विरोध पैदा हुए हैं। आपकी अनुमति के
बगैर आपके फोन में प्रवेश करना अपराध है, पर राष्ट्रीय सुरक्षा के कानून उसकी
अनुमति भी देते हैं। इसके लिए प्रक्रियाएं परिभाषित हैं, पर तमाम काम ‘ग्रे-एरिया’ में होते हैं,
जो परिभाषित नहीं हैं।
हरिभूमि में प्रकाशित
No comments:
Post a Comment