एक ज़माने में सिविल सर्विसेज़ में जाना रुतबे की बात थी। आज भी है, पर बड़े शहरों और बड़े लोगों के बच्चों की दिलचस्पी इसमें कम हो रही है। दूसरी ओर सिविल सर्विसेज़ की समाज में भूमिका बदल रही है। अब इसे सामंती रुतबे और रसूख वाले साहब बहादुर की जगह जागरूक लोकतंत्र के सेवकों की सेवा बनना चाहिए। पिछले साल प्रशासनिक सुधार की पहल शुरू हुई है, जिसकी गूँज राजनैतिक नक्कारखाने में सुनाई नहीं पड़ती है।
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