जिस वक्त अखबारों का जन्म हो रहा था, उन्हीं दिनों वैश्विक व्यवस्था सामंतवाद से हटकर पूँजीवाद की ओर बढ़ रही थी। व्यापार के कारण पाबंदियाँ खत्म हो रहीं थीं। व्यापारियों और सामंतों के बीच हितों का टकराव था। इस टकराव ने तमाम लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं को जन्म दिया। इसके बीच औद्योगिक क्रांति हुई। युरोपीय कारोबारी हितों ने उपनिवेशों को जन्म दिया। उपनिवेशों के मध्यवर्ग ने देर-सबेर राष्ट्रीय आंदोलन शुरू किए। अपनी व्यवस्थाएं बनाईं। इसमें अखबार की भूमिका थी। भारत के औपनिवेशिक दौर में दो या तीन तरह के अखबार थे। एक अंग्रेजों के, दूसरे राष्ट्रवादी और तीसरे अंग्रेज समर्थक देशी अखबार। अनेक परतें और होंगी, पर मैं इन्हें मोटे तौर पर अभी तीन हिस्सों में देख रहा हूँ। तीनों का हमारे सामाजिक सांस्कृतिक बदलाव में कोई न कोई योगदान है। इस बदलाव का वाहक इन अखबारों के कंटेंट के कारण था। काफी छोटे स्तर पर ही सही, अखबार सहमतियों और मतभेदों को उजागर करते थे। दूसरे देशों और सुदूर इलाकों से वे जानकारियाँ लाते थे, जो पाठकों के लिए ज़रूरी थी। उस समय के लिहाज से आधुनिक तकनीक अखबार लेकर आए। टेकनॉलजी और बिजनेस ने उस वैचारिक क्रांति को बढ़ाया।
आज हमें टेकनॉलजी और कारोबार की दिशा दोनों को समझना चाहिए। तभी हम ठीक निष्कर्षों पर पहुंचेंगे। पहले टेक्नॉलजी की गति को देखें। अमेरिका में करीब दस लाख किताबें सालभर में छपतीं हैं। इसके मुकाबले करीब दस खरब वैब पेज तैयार होते हैं। यूट्यूब में दो महीने में इतना वीडियो अपलोड होता है, जितना अमेरिका के ओबीसी, एनबीसी और सीबीएस नेटवर्क पिछले 60 साल में 24 घंटे के ब्रॉडकास्ट में नहीं कर पाए। यूट्यूब, माय स्पेस और फेसबुक का छह साल पहले वज़ूद नहीं था। आज इनके 25 करोड़ से ऊपर विज़िटर हैं। विकीपीडिया में 200 भाषाओं में 13 करोड़ लेख हैं। कुछ साल पहले तक हमारे पास ऐसी तकनीक नहीं थी, जो इतने बड़े डेटा को हैंडल करती। आज सिस्को का नेक्सस7000 डेटा स्विच पूरे विकिपीडिया को 0.001 सेकंड में एक जगह से दूसरी जगह भेज सकता है। 1965 में कई मंज़िल ऊँची बिल्डिंग के साइज़ का कम्प्यूटर आज आपकी जेब में मौज़ूद मोबाइल डिवाइस के बराबर काम कर पाता था। आज से 25 साल बाद आपकी जेब में मौज़ूद मोबाइल डिवाइस आपके खून के एक सेल में फिट हो जाएगी। आज के लाखों सुपर कम्प्यूटर आपकी जेब में हो सकते हैं।
टेक्नॉलजी सम्भावनाएं पैदा करती है। हम उसका इस्तेमाल करते हैं। मेरे एक मित्र के पास अचानक पैसा आया तो उन्होंने हफ्ते भर में कई हजार रुपए चाट खाने पर खर्च कर दिए। जिसे जिस चीज़ की भूख हो, उसे पहले पूरा करता है। हमारा समाज समृद्धि के रास्ते पर जा रहा है। समृद्ध होकर सबसे पहले हम क्या करेंगे? मेरे विचार से हमें अपने आप को देखना चाहिए। अपनी समस्याओं को देखना चाहिए और उनके समाधान के बारे में विचार करना चाहिए। साफ है कि सोचना-विचारना और जानकारी हासिल करना, यानी वैचारिक भूख सबसे ऊपर होगी तभी कुछ होगा। उसे पूरा करने वाला मीडिया पहली बड़ी ज़रूरत है। शिक्षा का प्रसार माने क ख ग घ मात्र नहीं होता। जैसाकि मार्क टली ने अपने इंटरव्यू में कहा है, मीडिया का काम खबरें बेचना नहीं है। मीडिया का काम लोगों को खबरें देना है। जो सही है उसे लोगों को बताना और गलत है उसे लोगों के सामने लाना। यह काम करने वाले मीडिया के पीछे कोई नैतिक बल होगा, तभी ऐसा सम्भव है, वर्ना नहीं। उसपर लगी पूँजी, सामान्य कारोबारी पूँजी है, तो उससे बहुत आशा न रखें। उसका नियम है, धंधा करना। और वह गलत भी नहीं। यह पूँजी कहाँ से आएगी, इसे सोचने का वक्त अभी है।
हम मीडिया के नए पैराडाइम में हैं।सिंगापुर के एंग चुआंग यांग ने अपने सेलफोन से 41.52 सेकंड में 160 करेक्टर टाइप करके गिनीज़ बुक में नाम दर्ज कराया। लॉस एंजलस के ब्रैडी जेम्स ने मार्च 2009 में दो लाख सत्रह हजार 541 टेक्स्ट मैसेज भेजे। दुनिया में करीब 200 अरब ईमेल हर साल भेजे जाते हैं। इनमें 90 फीसद स्पैम होते हैं। यह तब है, जब भारत जैसे अनेक देशों की ग़रीब आबादी ने ईमेल शब्द का नाम भी नहीं सुना। हमें दो चीजें एक साथ समझनी हैं। यह स्पैम क्या होता है। इसका कारोबार क्या है। दूसरे जो लोग इस डिज़िटल लोक के बाहर हैं, उन्हें इसमें किस तरह शामिल किया जाय़। अमेरिकी राष्ट्रपति के पिछले चुनाव में फरबरी 2008 में जॉन मैकेन ने शहर-शहर जाकर अपने अभियान के लिए एक करोड़ दस लाख डॉलर जमा किए। इसके मुकाबले बराक ओबामा ने उन 29 दिनों में सोशल नेटवर्क साइटों की मदद से साढ़े पाँच करोड़ जमा कर लिए।
टीवी का असर बढ़ रहा है, पर टीवी के माने बदल रहे हैं। टेरेस्टीरियल टीवी की जगह केबल टीवी ने ली। अब ऑन डिमांड टीवी है। दर्शक खामखां विज्ञापन देखना नहीं चाहता। वह विज्ञापन-फ्री सामग्री देखने के लिए ज्यादा पैसा फेंकने को तैयार है। आने वाले वक्त में कनेक्टिविटी इंटरनेट के मार्फत होगी। वह भी आपकी जेब में रखे मोबाइल डिवाइस के थ्रू। वही आपकी किताब होगी, वही आपका अखबार, एनसाइक्लोपीडिया और साहित्य संसार। फेसबुक आपको सबकुछ देगा। आपकी पत्रिकाएं, किताबें, फिल्में और दोस्तों की चिट्ठियां सब इसमें होंगी। ट्विटर आपको खबर दे रहा है।
डिजिटल टेक्नॉलजी ने अखबारों को पश्चिमी देशों में धक्का पहुँचाया है। पिछले 25 साल में अखबारों के प्रसार में करीब 70 लाख कॉपियों की कमी आई है। पत्रकारों के हजारों पद खत्म हो गए। साथ ही ब्लॉग्स की संख्या में अचानक इज़ाफा हुआ है। पिछले कुछ वर्ष में अमेरिका में हाइपर लोकल न्यूज़ साइट्स उभर कर आईं हैं। इन्हें चलाने वाले लोग प्रफेशनल पत्रकार नहीं हैं। इनमें बहुत से काम नए ढंग के हैं। खबरें लिखने का तरीका नया-निराला है। इनके पास आँखों-देखी तस्वीरें और वीडियो भी हैं। खबर खोजियों के लिए इन्हें पढ़ना नया अनुभव है। इन ब्लॉगों का आर्थिक आधार भी अच्छा है। बहुत से ब्लॉग पुराने पत्रकारों के भी हैं।
भारत में सिटिज़न जर्नलिस्ट का चलन हिन्दी के अखबारों में करीब पन्द्रह साल पहले शुरू हुआ था। लखनऊ के जागरण, स्वतंत्र भारत और हिन्दुस्तान में संवाद सूत्र नाम से ऐसे पत्रकारों की मदद ली जाती थी। पर वह काम अखबार की लागत कम रखने के लिए होता था। उस अर्थ में आज भी हिन्दी अखबार स्ट्रिंगरों का इस्तेमाल करते हैं। वे अखबारों की ताकत हैं। इनके पास लिखने की ट्रेनिंग नहीं होती, कानूनों और मर्यादाओं की अच्छी समझ नहीं होती। इसलिए गुणवत्ता प्रभावित होती है। प्रफेशनल पत्रकारिता को बचाने या पुष्ट करने की ज़रूरत कई वज़ह से है। लिखने और प्रस्तुत करने के रोचक तरीके से सूचना या संदेश पाठक तक पहुँचाना आसान होता है। दूसरे पत्रकारीय मर्यादाओं की ज़रूरत व्यापक सामाजिक हित में हमेशा रहेगी। टेक्नॉलजी की गहराती घटाएं हमें सावधान कर रहीं हैं। पाठक के मनोरंजन और मालिक की कमाई के बीच हम यह न भूलें कि हमारे काम का बड़ा हिस्सा सामाजिक ज़िम्मेदारी से जुड़ा है। यह मार्केटप्लेस ऑफ आइडियाज़ भी है। बदलाव को कोई रोक नही सकता। ज़रूरत इसके अनुरूप खुद को बदलने और बुनियादी मूल्यों को बचाए रखने की है।
साभार समाचार फॉर मीडिया डॉट कॉम
टीवी का असर बढ़ रहा है, पर टीवी के माने बदल रहे हैं। टेरेस्टीरियल टीवी की जगह केबल टीवी ने ली। अब ऑन डिमांड टीवी है। दर्शक खामखां विज्ञापन देखना नहीं चाहता। वह विज्ञापन-फ्री सामग्री देखने के लिए ज्यादा पैसा फेंकने को तैयार है। आने वाले वक्त में कनेक्टिविटी इंटरनेट के मार्फत होगी। वह भी आपकी जेब में रखे मोबाइल डिवाइस के थ्रू। वही आपकी किताब होगी, वही आपका अखबार, एनसाइक्लोपीडिया और साहित्य संसार। फेसबुक आपको सबकुछ देगा। आपकी पत्रिकाएं, किताबें, फिल्में और दोस्तों की चिट्ठियां सब इसमें होंगी। ट्विटर आपको खबर दे रहा है।
डिजिटल टेक्नॉलजी ने अखबारों को पश्चिमी देशों में धक्का पहुँचाया है। पिछले 25 साल में अखबारों के प्रसार में करीब 70 लाख कॉपियों की कमी आई है। पत्रकारों के हजारों पद खत्म हो गए। साथ ही ब्लॉग्स की संख्या में अचानक इज़ाफा हुआ है। पिछले कुछ वर्ष में अमेरिका में हाइपर लोकल न्यूज़ साइट्स उभर कर आईं हैं। इन्हें चलाने वाले लोग प्रफेशनल पत्रकार नहीं हैं। इनमें बहुत से काम नए ढंग के हैं। खबरें लिखने का तरीका नया-निराला है। इनके पास आँखों-देखी तस्वीरें और वीडियो भी हैं। खबर खोजियों के लिए इन्हें पढ़ना नया अनुभव है। इन ब्लॉगों का आर्थिक आधार भी अच्छा है। बहुत से ब्लॉग पुराने पत्रकारों के भी हैं।
भारत में सिटिज़न जर्नलिस्ट का चलन हिन्दी के अखबारों में करीब पन्द्रह साल पहले शुरू हुआ था। लखनऊ के जागरण, स्वतंत्र भारत और हिन्दुस्तान में संवाद सूत्र नाम से ऐसे पत्रकारों की मदद ली जाती थी। पर वह काम अखबार की लागत कम रखने के लिए होता था। उस अर्थ में आज भी हिन्दी अखबार स्ट्रिंगरों का इस्तेमाल करते हैं। वे अखबारों की ताकत हैं। इनके पास लिखने की ट्रेनिंग नहीं होती, कानूनों और मर्यादाओं की अच्छी समझ नहीं होती। इसलिए गुणवत्ता प्रभावित होती है। प्रफेशनल पत्रकारिता को बचाने या पुष्ट करने की ज़रूरत कई वज़ह से है। लिखने और प्रस्तुत करने के रोचक तरीके से सूचना या संदेश पाठक तक पहुँचाना आसान होता है। दूसरे पत्रकारीय मर्यादाओं की ज़रूरत व्यापक सामाजिक हित में हमेशा रहेगी। टेक्नॉलजी की गहराती घटाएं हमें सावधान कर रहीं हैं। पाठक के मनोरंजन और मालिक की कमाई के बीच हम यह न भूलें कि हमारे काम का बड़ा हिस्सा सामाजिक ज़िम्मेदारी से जुड़ा है। यह मार्केटप्लेस ऑफ आइडियाज़ भी है। बदलाव को कोई रोक नही सकता। ज़रूरत इसके अनुरूप खुद को बदलने और बुनियादी मूल्यों को बचाए रखने की है।
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