अखबारी दुनिया मे जाकर मेरे जैसे साधारण व्यक्ति को धक्का लगता है। मैं 1971 में इस दुनिया से जुड़ा था। वह रोमांटिक दौर था। आज के मुकाबले जीवन में आदर्श ज्यादा थे। काफी ढोंग भी था। मेरी उम्र भी आदर्शों वाली थी। ऐसे लोग भी आस-पास नज़र आते थे, जो जैसा कहते थे, उसके आसपास होते थे। उस दौर में भी ऐसे लोग थे, जो व्यवस्था का दोहन करते थे, और सम्मान भी पाते थे। यशपाल के झूठा-सच और नागार्जुन के उपन्यासों में ऐसे पात्र मिले जो आज़ादी के आंदोलन के दौरान ढोंगी जीवन को जीते थे। उन्हें स्वतंत्रता सेनानी पेंशन मिली, पद्म पुरस्कार भी। ज्यादातर पुरस्कार इसी तरह दिए जाते हैं। ढोंग की एक लम्बी सीढ़ी है।
इन दिनों संचार मंत्री ए राजा को लेकर जो कहानियाँ सामने आ रहीं हैं, वे सच हैं या नहीं, कहना मुश्किल है, पर इनके बारे में सुनकर आश्चर्य नहीं होता। मैं अपने आसपास ऐसे लोगों को देख चुका हूँ, जो बेशर्मी से सिस्टम का फायदा उठाते हैं। मीडियाकर्मियों की तादाद बड़ी है। उनमें से ज़्यादातर कुछ मूल्यों से जुड़े होते हैं। या कम से कम पहचानते हैं. पर व्यक्ति की परख तब होती है, जब उसे बेईमान होने का मौका मिले और वह बेईमान बनने से इनकार कर दे। मैने बहुत गौर से ऐसे हालात और व्यक्तियों को दोखा है। अक्सर उन लोगों का ईमान डोलता है, जिन्हें बहुत कुछ मिल चुका है। ग़रीब आजमी पर चोरी का इल्ज़ाम कोई भी लगा सकता है, पर खाते-पीते लोग चोरी करते हैं, तो परेशानी होती है। पर क्या करें।
लगता है हम आमतौर पर ईमानदारी को घटिया मूल्य मानते हैं। या यह मानते हैं कि एडवेंचर से घबराने वाले दब्बू लोगों की वैल्यू ईमानदारी है। हमारे भीतर आत्मबल होता और कुछ खोने की ताकत होती, तो मीडिया की वह दशा नहीं होती जो आज है।
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