भारत सरकार का दबाव रहा हो या फिर मेडिकल साइंस की नैतिकता ने जोर मारा हो वैक्सीन के विकास को लेकर सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया और भारत बायोटेक के प्रमुखों के बीच अनावश्यक ‘तू-तू मैं-मैं’ थम गई है। बावजूद इसके प्रतिरोधी-टीके को लेकर कुछ नए विवाद खड़े हो गए हैं। एक तरफ विवादों की प्रकृति राजनीतिक है, वहीं भारत बायोटेक को मिली आपातकालीन इस्तेमाल की अनुमति पर वैज्ञानिक समुदाय के बीच मतभेद है। सभी बातों को एक साथ मिलाकर पढ़ें, तो लगता है कि दुनिया के सबसे बड़े टीकाकरण की थुक्का-फज़ीहत शुरू हो गई है। यह गलत और आपराधिक है।
क्रिश्चियन
मेडिकल कॉलेज, वेल्लूर में माइक्रोबायोलॉजी की प्रोफेसर गगनदीप कांग ने भारत
बायोटेक की वैक्सीन को मिली अनुमति को लेकर अपने अंदेशों को व्यक्त किया है। इसके बाद सरकार और वैज्ञानिक समुदाय की ओर से स्पष्टीकरण आए हैं। इन स्पष्टीकरणों पर
नीचे बात करेंगे। अलबत्ता विशेषज्ञों के मतभेदों को अलग कर दें, तो राजनीतिक-सांप्रदायिक और इसी तरह के दूसरे संकीर्ण
कारणों से विवाद खड़े करने वालों का विरोध होना चाहिए।
तीव्र विकास
महामारी का सामना करने के लिए वैज्ञानिक समुदाय ने जितनी तेजी से टीकों का विकास किया है, उसकी मिसाल नहीं मिलती है। सभी टीके पहली पीढ़ी के हैं। उनमें सुधार भी होंगे। गगनदीप कांग ने भी दुनिया के वैज्ञानिकों की इस तीव्र गति के लिए तारीफ की है। टीकों के विकास की पद्धतियों की स्थापना बीसवीं सदी में हुई है। इस महामारी ने उन स्थापनाओं में कुछ बदलाव करने के मौके दिए हैं। यह बात विशेषज्ञों के बीच ही तय होनी चाहिए कि टीकों का विकास और इस्तेमाल किस तरह से हो। औषधि विकास के साथ उसके जोखिम भी जुड़े हैं। भारत में हों या विश्व-स्तर पर हों इस काम के लिए संस्थाएं बनी हैं। हमें उनपर भरोसा करना होगा। पर जनता के भरोसे को तोड़ने या उसे भरमाने की कोशिश नहीं होनी चाहिए। इस अभियान में एक मात्र मार्गदर्शक विज्ञान को ही रहने दें।
जबसे कोविड-19 का संक्रमण शुरू हुआ है, दुनियाभर में
भ्रांतियां फैलाने का काम चल रहा है। साजिशें भी खोज ली गई हैं। वैक्सीन की खबरें
मिलने के बाद यह अभियान और शिद्दत के साथ चल निकला है। यह पहला विरोध नहीं है। जब
से टीकों का विकास हुआ है उनका विरोध भी हो रहा है। वैश्विक पोलियो उन्मूलन अभियान
के तहत 1995 में जब पल्स पोलियो टीकाकरण (पीपीआई) कार्यक्रम आरंभ किया गया, तब भी ऐसे प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। कई तरह की
गलतफहमियाँ फैलाने की कोशिशें की गईं। अंततः भारत ने पोलियो के उन्मूलन में सफलता
प्राप्त की। आज भी पाकिस्तान में इस अभियान से जुड़े कार्यकर्ताओं की हत्या हो रही
है। पल्स पोलियो समाज की सामूहिक आवाज थी। वह सफल हुआ।
चिकित्सकीय
जटिलताएं
टीकाकरण के साथ
कई प्रकार की चिकित्सकीय जटिलताएं जुड़ी हैं,
उनका निदान
विशेषज्ञ खोजते हैं। भ्रामक सूचनाएं उनके काम को मुश्किल बनाती हैं। दुर्भाग्य से
इस समय भी मीडिया कवरेज में वैक्सीन पर होने वाली राजनीति ज्यादा जगह पा रही है, जबकि बात उससे जुड़े तथ्यों पर होनी चाहिए। तमाम खबरें केवल
आरोपों के आधार हैं। राजनीतिक-सामाजिक एक्टिविस्टों को इस काम की संवेदनशीलता को
समझना चाहिए।
आमतौर पर टीकों के
खिलाफ प्रचार में तीन तरह के लोग शामिल होते हैं। डब्लूएचओ ने 2019 में वैश्विक
स्वास्थ्य के सामने खड़े दस बड़े खतरों में एक ‘एंटी वैक्सीन अभियान’ को माना था। इस संस्था की वैबसाइट में एक पेज खासतौर
से वैक्सीन से जुड़ी गलतफहमियों को समर्पित है। पिछले साल मई में जब
कोरोना का संक्रमण शुरू ही हुआ था विज्ञान पत्रिका नेचर ने आगाह किया था कि अब वैक्सीन के प्रयास शुरू होंगे और
उसका विरोध भी होगा। उससे सावधान रहना चाहिए। इसकी सनातन विरोधी एंटी वैक्सीन लॉबी, पश्चिमी देशों में वैक्सीन के खिलाफ निरंतर प्रचार में रहती
है। एक तबका कुछ वैज्ञानिकों का है, जिनके पास टीका-विरोधी
तर्क हैं। तीसरा तबका धार्मिक और राजनीतिक समूहों का है, जो टीकों के विरोध के नए-नए कारण खोजते हैं। कोरोना के टीके
को लेकर हर तरह के समूह इस वक्त सक्रिय हैं। सोशल मीडिया के इस दौर में इस अभियान
को पंख लग गए हैं।
हाल में फेसबुक
ने अपने प्लेटफॉर्म पर टीका विरोधी विज्ञापनों पर रोक लगाने की घोषणा की है।
अलबत्ता कंपनी ने कहा है कि हम भविष्य में ऐसे विज्ञापनों की अनुमति भी देंगे, जो टीकों के सिलसिले में सरकारों के खास कदमों की आलोचना
करते हैं। अक्सर सोशल मीडिया पर ‘कांस्पिरेसी थ्योरी’ की भरमार रहती है। अक्तूबर
के महीने में ब्रिटिश जर्नल लैंसेट ने जानकारी दी कि सेंटर फॉर काउंटरिंग डिजिटल
हेट (सीसीडीएच) ने सोशल मीडिया कंपनियों की इस बात के लिए आलोचना की है कि वे
वैक्सीन-विरोधियों को बढ़ावा दे रही हैं।
वैक्सीन-राजनीति
भारत में इस समय एक तो परंपरागत वैक्सीन-विरोधी सक्रिय हैं
वहीं राजनीतिक दलों ने उनके साथ कदम-ताल शुरू कर दी है। उन्हें ‘वैक्सीन-राजनीति’ में उम्मीदें दिखाई पड़ रही हैं। उनके आईटी सेल
इस काम में जुट गए हैं। वॉट्सएप और फेसबुक पर फॉरवर्ड्स को देखने से यह बात समझ
में आती है। इस कहानी के दो रोचक पहलू हैं। गत 23 दिसंबर को राहुल गांधी ने ट्वीट
किया, 'दुनिया में 23 लाख लोगों को पहले ही कोविड
वैक्सीन लग चुकी है। चीन, अमेरिका, ब्रिटेन, रूस ने वैक्सीनेशन शुरू
कर दिया है। इंडिया का नंबर कब आएगा मोदी जी?'
इसके बाद भारत ड्रग कंट्रोलर जनरल ने दो वैक्सीनों को इमरजेंसी इस्तेमाल की इजाजत दे
दी। इनमें ऑक्सफोर्ड विवि और एस्ट्राजेनेका द्वारा विकसित कोवीशील्ड और भारत
बायोटेक द्वारा विकसित कोवाक्सिन शामिल हैं। कोवीशील्ड का उत्पादन भारतीय कंपनी
सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया कर रही है। यहाँ से बनी वैक्सीन न केवल भारत में बल्कि
ब्राजील समेत दुनिया के तमाम देशों में जाएगी। इसे लेकर भी कई तरह के प्रचार हैं।
बहरहाल इस घोषणा के फौरन बाद समाजवादी पार्टी के अखिलेश सिंह का बयान आया कि मैं
बीजेपी का टीका नहीं लगाऊँगा।
दूसरी तरफ कांग्रेस
के शशि थरूर ने भारत बायोटेक की वैक्सीन को तीसरे दौर के परीक्षणों का परिणामों का
अध्ययन किए बगैर अनुमति दिए जाने की आलोचना की। हालांकि आलोचक इस बात पर ध्यान
नहीं दे रहे हैं कि भारत बायोटेक की वैक्सीन का इस्तेमाल ‘क्लिनिकल ट्रायल मोड’ में होगा और उसे लगाने के लिए उसी
तरह की अनुमति ली जाएगी, जिस तरह तीसरे चरण के परीक्षण में ली जाती है और टीका
लगने के बाद व्यक्ति की निगरानी की जाएगी। यह वैक्सीन बाजार में उपलब्ध नहीं होगी।
आपातकालीन इस्तेमाल
इसे अनुमति देने का मतलब केवल यह है कि आपातकालीन स्थिति में इसका इस्तेमाल
किया जा सकता है। सच यह है कि वैक्सीन तो बाद में आईं, कोरोना के इलाज में हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्विन
का इस्तेमाल हुआ, जिसके जोखिम भी थे। भारत ने खासतौर से अमेरिका को यह दवाई दी।
इसके अलावा कोरोना के संक्रमण से गुजर चुके व्यक्ति के ब्लड प्लाज्मा का इस्तेमाल
भी हुआ। उन दिनों यह माँग भी की जा रही थी कि जो वैक्सीन तैयार की जा रही हैं यदि
वे असर कर रही हैं, तो उनका इस्तेमाल क्यों न किया जाए।
जिस बीमारी का कोई इलाज नहीं है, उसकी दवा तैयार है, तो उसके जोखिमों का सामना
करने में क्या बुराई है? तर्क यही रहा
होगा या कोई और, पर रूस ने अपनी वैक्सीन स्पूतनिक को तीसरे चरण के परीक्षण के पहले
ही अनुमति दी। चीन का टीका भी इसी तरह तैयार हुआ है। अमेरिका में भी इस प्रक्रिया
को तेज किया गया। दुनिया में इसके पहले कब ऐसा हुआ, जब इतनी तेजी से क्लिनिकल
ट्रायल से जुड़ा डेटा तैयार हुआ हो? महामारी ने ऐसी स्थिति पैदा कर दी, जिसके कारण
दुनियाभर के देशों के ड्रग कंट्रोलर अपने फैसले कर रहे हैं।
एकबार ऐसा लगा कि
भारत के ड्रग कंट्रोलर 15 अगस्त के पहले भारत बायोटेक की वैक्सीन को सीमित अनुमति
दे सकते हैं। बहरहाल वैसा हुआ नहीं। इसमें दो राय नहीं कि दुनिया में पहली
चार-पाँच टीकों के साथ एक भारतीय वैक्सीन भी शामिल है। भारतीय वैक्सीन निर्माता की
ज्यादा बड़ी उपलब्धि दो और बातों में है। एक तो यह अकेली वैक्सीन है, जो छोटे
बच्चों को दी जा सकेगी। दूसरे भारत बायोटेक ने नाक के रास्ते से दिए जाने वाले
टीके का विकास किया है, जो एक बड़ी वैश्विक उपलब्धि होगी। इसके लिए प्रसिद्ध
जापानी वायरोलॉजिस्ट योशीहीरो कवाओका और अमेरिका के विस्कॉन्सिन मेडिसन
यूनिवर्सिटी के साथ इस कंपनी ने गठजोड़ किया है।
अमेरिका में इस
टीके का एनिमल ट्रायल हुआ है। यह टीका नेज़ल ड्रॉप के रूप में होगा। टीके की बूंद
नाक में डालनी होगी। यह टीका ज्यादा प्रभावशाली होने की संभावना है। इस स्वदेशी टीके को लेकर सुब्रह्मण्यम स्वामी के दबाव ने भी काम किया है। समय
बताएगा कि यह कितना कारगर साबित होता है, पर यह बात जाहिर है कि राजनीति का निशाना
भारतीय टीका है। यह भी कि जिस मामले को राजनीति से मुक्त रखना चाहिए था, उसे भी
हमने नहीं छोड़ा।
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