कृषि कानूनों को लेकर सुप्रीम कोर्ट के ताजा आदेश को लेकर जो प्रतिक्रियाएं सामने आई हैं, उनमें से ज्यादातर ने अदालत के हस्तक्षेप पर आपत्ति व्यक्त की है। अदालत के रुख से लगता है कि वह सांविधानिक समीक्षा के बजाय राजनीतिक मध्यस्थ की भूमिका निभाना चाहती है, जो अटपटा लगता है। ऐसा लगता है कि जैसे अदालत ने पहले रोज सरकार को फटकार लगाकर किसानों को भरोसे में लेने की कोशिश की और फिर अपने पुराने सुझाव को लागू कर दिया। अदालत ने पिछले महीने सरकार को सलाह दी थी कि आप इन कानूनों को कुछ समय के लिए स्थगित क्यों नहीं कर देते? अनुमान यही है कि सरकार ने अपनी जिम्मेदारी से बचने के लिए अदालत का सहारा लिया है।
आज के इंडियन एक्सप्रेस में प्रताप भानु मेहता ने लिखा है कि यह सांविधानिक कोर्ट है, जो सांविधानिक सवालों पर फैसले नहीं सुनाती, बल्कि राजनीतिक और प्रशासनिक मसलों में पैर अड़ा रही है। खेती से जुड़े मसले जटिल हैं, पर आप इस मामले में किसी भी तरफ हों, पर यह बात समझ में नहीं आती कि किस न्यायिक आधार पर अदालत ने इन कानूनों को स्थगित कर दिया है।
प्रताप भानु मेहता किसान आंदोलन के संदर्भ में सरकार के आलोचक हैं। उनके पिछले लेखों से भी उनका यही नजरिया
झलकता है। इन कानूनों को लाने में सरकारी जल्दबाजी को जिम्मेदार ठहराने में गलत भी
कुछ नहीं है। शायद केंद्र सरकार को अपनी ताकत पर भरोसा ज्यादा था। पर इन
आंदोलनकारियों को समझाने की जिम्मेदारी भी उसकी ही है।
दूसरी तरफ इन कानूनों को व्यापक आर्थिक सुधारों से भी जोड़ना
होगा। प्रताप भानु भी उदारीकरण और आर्थिक सुधार के समर्थक है। सितंबर 2012 में वे
लिख रहे थे कि हमारे पास आर्थिक सुधार के अलावा कोई विकल्प नहीं है। सुप्रीम कोर्ट के बारे में उनकी टिप्पणी से
असहमत होने की जरूरत नहीं है। पर पिछले साल अदालत ने शाहीनबाग के संदर्भ में इसी
तरह दो वकीलों को आंदोलनकारियों से बात करने भेजा था, तब भी यही सवाल किया जाना
चाहिए था। बाद में अदालत ने व्यवस्था भी दी कि अनिश्चित काल तक रास्ता रोकने का
अधिकार किसी के पास नहीं है। पर अदालत मान-मनौवल से काम लेना चाहती थी। वैसा ही
प्रयास शायद अब कर रही है। इसके पीछे सरकार का हाथ है या नहीं, इसे लेकर कयास ही
लगाए जा सकते हैं।
प्रताप भानु के दृष्टिकोण की तुलना में आज का इंडियन
एक्सप्रेस का संपादकीय ज्यादा साफ है। यह अखबार भी आर्थिक
सुधारों का समर्थक है। एक महीने पुरानी टिप्पणियों के मुकाबले अखबार का आज का
संपादकीय सरकारी कानून के खिलाफ है, जबकि एक्सप्रेस इन कानूनों के पक्ष में लिखता
रहा है। अखबार के अनुसार सरकार सामाजिक आंदोलन को तोड़ना चाहती है।
आंदोलन का लंबे समय तक चलना भी ठीक नहीं है। पिछले साल
इन्हीं परिस्थितियों में दिल्ली और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में फसाद हुए थे। भीड़ के
बीच दो-चार असामाजिक तत्वों का प्रवेश संभव है। इसलिए रास्ता तो निकालना ही होगा। और
यह रास्ता निकालने की जिम्मेदारी सरकार की है। सवाल है कि क्या इसका हल कानूनों की
वापसी में है? इसका संदेश क्या जाएगा? बेहतर है कि
दोनों पक्ष समझदारी दिखाएं। हल क्या है, इसके बारे में सोचें।
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