Wednesday, January 6, 2021

खेती-किसानी से जुड़े व्यापक सवालों पर भी बहस होनी चाहिए


किसान-आंदोलन के समांतर देश में खेती को लेकर जो चर्चा चलनी चाहिए थी, वह मुझे दिखाई नहीं पड़ रही है। खासतौर से हिंदी मीडिया में यह चर्चा सिरे से नदारद है। आंदोलन से जुड़ी खबरें जरूर बड़ी तादाद में हैं, पर उनका लक्ष्य या तो सरकार का विरोध है या समर्थन। पर हमें खेती और किसानों की स्थिति को समझना चाहिए। इसके साथ वैश्विक अर्थव्यवस्था में आ रहे बदलावों पर भी नजर डालनी चाहिए। यह सच है कि आज भी हमारा समाज खेतिहर है, पर यह गर्व की बात नहीं है। यह मजबूरी है, क्योंकि कारोबार और रोजगार के हमारे वैकल्पिक साधनों का विकास धीमा है। बहरहाल आज यानी 6 जनवरी और कल यानी 5 जनवरी के इंडियन एक्सप्रेस के दो लेख मुझे पठनीय लगे। यदि आपकी दिलचस्पी इस चर्चा को आगे बढ़ाने में हो, तो मुझे खुशी होगी। मैंने इस सिलसिले में कुछ और महत्वपूर्ण आलेख सँजोकर रखे हैं। बात आगे बढ़ेगी, तो मैं उन्हें भी सामने रखूँगा।

आज के इंडियन एक्सप्रेस में दीपक पेंटल का लेख इन फार्म डिबेट, मिसिंग आरएंडडी प्रकाशित हुआ है। दीपक पेंटल दिल्ली विवि के पूर्व कुलपति हैं। मुझे याद पड़ता है कि दिल्ली विवि में जेनेटिक खेती पर काफी काम उनके कार्यकाल में हुआ था। बहरहाल उन्होंने इस लेख में कहा है कि इस समय चर्चा मुख्यतः न्यूनतम समर्थन मूल्य पर हो रही है, जबकि इन किसानों के पास धान और गेहूँ की खेती के स्थान पर नई फसलों का विकल्प था, जिसपर उन्हें अबतक चले जाना चाहिए था।

उन्होंने लिखा है कि इस समय बहस न्यूनतम समर्थन मूल्य पर केंद्रित है, ताकि किसानों पर कर्जा कम हो, फसल के बाद के नुकसान कम हों, खेती-किसानी को जीवन निर्वाह के लायक बनाए रखने के लिए कैश ट्रांसफर की व्यवस्था चलती रहे वगैरह। इस बात पर कम ध्यान दिया जा रहा है कि खेती में प्राकृतिक संसाधनों, खासतौर से पानी का, इस्तेमाल कम हो और खेती से जुड़े अनुसंधान विकास का काम हो। यह काम विज्ञान और तकनीक की मदद के बगैर संभव नहीं है।

नकदी की मदद से खेती में लगने वाली सामग्री है सिंचाई, खेत की जुताई, गुड़ाई और फसल की कटाई, उर्वरक, कृषि-रसायन और बीज। भारत में करीब 4,000 अरब घन मीटर (बीसीएम) वर्षा होती है, पर ज्यादातर वर्षा देश के पूर्वी हिस्से में होती है। साथ ही ज्यादातर पानी 100 घंटों के भीतर तेज बारिश के रूप में मिलता है। इस तरह पानी भंडारण और सिंचाई के लिए महत्वपूर्ण हो जाता है। दुनिया में खेती पर सबसे ज्यादा पानी खर्च करने वाले देशों में भारत का नाम सबसे ऊपर के देशों में है। कुल जमा 761 बीसीएम पानी में से 688 बीसीएम खेती में जाता है और उद्योगों के लिए 17 बीसीएम और नागरिक उपयोग के लिए 56 बीसीएम पानी बचता है। इसकी तुलना में चीन कुल उपलब्ध 598.1 बीसीएम में से 385.2 बीसीएम पानी खेती में लगाता है। जबकि उनकी उत्पादकता भारत की खेती से दुगुनी या तिगुनी है।

इस लेख में खेती से जुड़ी कुछ और बातों पर रोशनी डाली गई है। इसे लेख को पढ़ना चाहिए। उन्होंने लिखा है कि भारत में खेती पर अनुसंधान-विकास पर खर्च भी कम है। पिछले 20 वर्ष में भारत ने आरएंडडी पर जीडीपी का 0.7 से 0.8 प्रतिशत खर्च किया है, जो विकसित देशों की तुलना में तो कम है ही एशिया के विकासशील देशों से भी कम है। संभव है कि वर्तमान संकट के दौरान इन विषयों पर भी सबका ध्यान जाए।

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बाजार के दायरे से बाहर देखें

इस सिलसिले में 5 जनवरी के इंडियन एक्सप्रेस में निखित कुमार अग्रवाल और रिचा कुमार का आलेख प्रकाशित हुआ है, जिसमें लेखकों ने बताने की कोशिश की है कि कृषि सुधार को केवल बाजार-सुधार के दायरे से बाहर निकल कर देखना चाहिए। खेती का रिश्ता जीवन-यापन, स्वास्थ्य, खाद्य-सुरक्षा वगैरह से जुड़ा है। इसके अलावा किसानी पर आसन्न खतरों को देखते हुए इस विषय पर निष्कर्ष निकालने में सरलीकरण का सहारा नहीं लेना चाहिए। निखित अग्रवाल कैलिफोर्निया विवि, लॉस एंजेलस के एंथ्रोपोलॉजी विभाग में पीएचडी के छात्र हैं और रिचा कुमार आईआईटी, दिल्ली में मानविकी तथा समाज विज्ञान विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर हैं।

लेखकों का कहना है कि देश में कृषि बाजार में आमूल परिवर्तन होना चाहिए। पर इसका लक्ष्य 85 फीसदी छोटे और सीमांत किसानों को सामाजिक न्याय उपलब्ध कराना और कृषि-बाजार की कुशलता के अलावा पारिस्थितिकी (इकोलॉजी), पोषण, समानता, संस्कृति, अर्थशास्त्र और राजनीति वगैरह को भी ध्यान में रखना चाहिए।

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