Sunday, March 20, 2011

प्रकृति बगैर कैसी प्रगति?



उन्नीसवीं सदी के शुरू में यह आशंका पैदा हुई कि दुनिया की जनसंख्या जिस तेजी से बढ़ रही है, उसके अनुरूप अन्न का उत्पादन नहीं होता। अंदेशा था कि कहीं भुखमरी की नौबत न आ जाए। ऐसा नहीं हुआ। दुनिया में एक के बाद एक कई हरित क्रांतियां हुईं। भुखमरी का अंदेशा आज भी है। पर यह खतरा गरीबों के लिए है। और उनके लिए यह अंदेशा हमेशा रहा। औद्योगिक क्रांति की बुनियाद में थी भाप की ताकत। धरती के गर्भ में मौजूद पेट्रोलियम और कोयले ने उन्नीसवीं और बीसवीं सदी में दुनिया को कहां से कहाँ पहुँचा दिया। दोनों फॉसिल फ्यूल अब खत्म हो रहे हैं। पर इनका खत्म होना उतना महत्वपूर्ण नहीं है। खौफनाक है इनका खतरनाक हो जाना। जबर्दस्त कार्बन उत्सर्जन के कारण धरती का तापमान बढ़ता जा रहा है। कार्बन उत्सर्जन इंसान के विकास की देन है। विकास भी ऐसा जिसमें करोड़ों लोग आज भी भूखे सोते हैं।

उन्नीसवीं सदी की ताकत थी काला हीरा यानी कोयला। ब्रिटिश साम्राज्य के इंजन की भाप इसी कोयले से तैयार होती थी। 1865 में ब्रिटिश अर्थशास्त्री विलियम स्टेनली जेवंस ने एक किताब लिखी द कोल क्वेश्चन। उसने लिखा कि ब्रिटिश आर्थिक शक्ति की बुनियाद में कोयले की सस्ती ऊर्जा है। पर यह एक सदी के अन्दर शक्ति का यह स्रोत खत्म हो जाएगा। और हमारी शक्ति समाप्त हो जाएगी। हमें अपनी इस प्राकृतिक सम्पदा की कीमत अदा करनी चाहिए। जेवंस की किताब से प्रभावित होकर मशहूर वैज्ञानिक जॉन हर्शल ने सवाल उठाया कि अपने आर्थिक विकास की खातिर हम अपने प्राकृतिक साधनों को समाप्त करते जा रहे हैं। इससे एक रोज खतरनाक हालात पैदा हो जाएंगे। 3 अप्रेल 1866 को प्रसिद्ध राजनैतिक विचारक और सांसद जॉन स्टुअर्ट मिल ने हाउस ऑफ कॉमंस में यह सवाल उठाया।

जेवंस का सवाल आर्थिक था। वह शासन के सामने खड़े होने वाले आर्थिक संकट तक सोच रहे थे। पर उनकी बात में एक बुनियादी तत्व था कि आर्थिक प्रगति के पीछे की असली ताकत है ऊर्जा। वह खत्म होने का मतलब है विकास की समाप्ति। बहरहाल जेवंस की दुविधा सही साबित नहीं हुई। किताब छपने के तीस साल बाद ब्रिटिश कोयला उत्पादन दुगुना हो चुका था और अमेरिका में दस गुना। आज भी भारत और चीन में कोयले के विशाल भंडार हैं। पर उनके इस्तेमाल को लेकर दुनिया भर में बहस है। उन्नीसवीं सदी में किसी ने कार्बन उत्सर्जन के बारे में नहीं सोचा था। सिर्फ इतना सोचा था कि प्रकृति की यह सम्पदा खत्म हो गई तो क्या होगा। किसी ने यह भी नहीं सोचा कि ऊर्जा के दूसरे स्रोत भी संभव हैं।

जिस वक्त जॉन स्टुअर्ट मिल ब्रिटिश संसद में कोयले का मामला उठा रहे थे उसके कुछ साल पहले 1856 में एक पोलिश रसायनविद इग्नेसी लुकासीविज ने जमीन के नीचे मिले तेल के आसवन से मिट्टी का तेल बना लिया था। और 1878 में नॉर्दम्बरलैंड, इंग्लैंड में पानी से बनी बिजली ने काम शुरू कर दिया था। फिर भी पेट्रोलियम और पानी से बनने वाली बिजली के विशाल स्तर पर व्यावसायिक इस्तेमाल के बारे में सोचा नहीं गया था। ऊर्जा के ये अभिनव स्रोत भी प्रकृति को घायल करके ही आर्थिक प्रगति का पहिया चलाते हैं।

जापान में आई सुनामी के बाद प्रकृति और प्रगति को लेकर एक नई बहस का आगाज़ हो गया है। सुनामी के कारण नहीं, फुकुशीमा दाइची एटमी पावर प्लांट के कारण, जिसके तीनों रिएक्टर किसी न किसी वजह से नियंत्रण के बाहर हो गए हैं। ऐसा नहीं कि इन रिएक्टरों की संरचना में कोई दोष है, बल्कि परिस्थितियां कुछ ऐसी बिगड़ीं कि उनके बारे में सोचा नहीं गया था। अभी तक रेडिएशन के खतरनाक स्तर तक बढ़ने या दूर तक जाने की खबर नहीं है, पर ऐसा हो गया तो क्या होगा? अभी तक ऐसा लगता है कि दुनिया ने एटमी बिजली को आने वाले वक्त का अजस्र ऊर्जा स्रोत मान लिया है। हालांकि उसके विरोधी निरंतर सक्रिय हैं, पर ज्यादातर देशों की सरकारों ने बड़े स्तर पर नाभिकीय ऊर्जा के कार्यक्रम बना लिए हैं।

नाभिकीय ऊर्जा का सबसे तगड़ा विरोध जर्मनी में होता है। जापानी सुनामी की खबरें मिलते ही सबसे पहले जर्मन नाभिकीय बिजलीघर बन्द कर दिए गए हैं। दुनिया के तीस देशों इस वक्त न्यूक्लियर बिजलीघर हैं। दुनियाभर में 443 रिएक्टर हैं, जिनमें विश्व की कुल बिजली का 14 प्रतिशत उत्पादन होता है। एटमी बिजली में सबसे आगे फ्रांस है, जहाँ की 80 फीसदी जरूरत एटमी बिजली से पूरी होती है। अमेरिका इस तकनीक में काफी आगे है, पर 1979 में थ्री माइल आयलैंड में नाभिकीय दुर्घटना के बाद से वहाँ जनमत इसके खिलाफ बन गया। हाल के वर्षों में ग्लोबल वार्मिंग के राजनैतिक फलितार्थ के रूप में ओबामा प्रशासन ने नाभिकीय ऊर्जा कार्यक्रम के प्रति नरम रुख अख्तियार कर लिया। अब अमेरिका में 30 से ज्यादा रिएक्टर स्थापित करने की तैयारी है।

भारत, चीन और रूस जैसे देशों में नाभिकीय ऊर्जा के महत्वाकांक्षी कार्यक्रम बनाए जा रहे हैं। तीन साल पहले भारत की पूरी राजनीति एटमी ऊर्जा के इर्द-गिर्द सिमट गई थी। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत को एटमी बिरादरी में जगह देने की औपचारिकताएं चल ही रहीं हैं। पिछले साल भारत की संसद ने जद्दो-जहद के बाद न्यूक्लियर लायबिलिटी बिल पास कर दिया, जिसके लिए कांग्रेस और भाजपा के बीच किसी अदृश्य शक्ति ने सहमति कायम कराई। हमें अभी जापान के साथ एटमी समझौता करना है। हमारे न्यूक्लियर लायबिलिटी कानून को लोकर कई देशों में दुविधा है, पर जापान की दुर्घटना के बाद लगता है कुछ नए समीकरण उभरेंगे।

सबसे बड़ा सवाल है क्या दुनिया नाभिकीय ऊर्जा से हाथ जोड़ लेगी। ऐसा लगता नहीं। नाभिकीय ऊर्जा का रास्त तभी बन्द होगा, जब कोई वैकल्पिक ऊर्जा स्रोत सामने आएगा। सौर ऊर्जा या पवन ऊर्जा बुनियादी ऊर्जा के स्रोत नहीं बन सकते। कोयले और पेट्रोलियम की राह अपने आप बन्द हो रही है। बाकी काम पर्यावरण पर चल रहा वैश्विक संवाद करेगा। एटमी ऊर्जा का समर्थन सिर्फ इसलिए हो पा रहा है, क्योंकि वह पर्यावरण के लिए नुकसानदेह नहीं है। फ्रांस में कार्बन उत्सर्जन दुनिया के औसत का आधा है। आज दुनिया की पूरी बिजली नाभिकीय ऊर्जा पर आधारित हो सके तो दुनिया का कार्बन उत्सर्जन आधा रह जाएगा।

नाभिकीय ऊर्जा के दो खतरे हैं। एक तो वेस्ट मैटीरियल को ठिकाने लगाना और दूसरे रेडिएशन। जापान जैसी दुर्घटना की स्थिति में यह खतरा और बड़ा है। वेस्ट मैटीरियल के बारे में तकनीक में निरंतर सुधार हो रहा है और प्रयुक्त ईंधन के दुबारा इस्तेमाल की पद्धतियां विकसित हो गईं हैं। अब चौथी पीढ़ी की तकनीक विकसित हो रही है। रेडिएशन के बारे में कहा जाता है कि हम प्राकृतिक रूप से रेडियोएक्टिव दुनिया में रहते हैं। रेडियोएक्टविटी के खतरे की सीमा है। जितना खतरा एटमी बिजलीघर से है उससे कई गुना रेडियोएक्टिवटी मनुष्य के शरीर से होती है। हमारे शरीर के पोटेशियम-40 और कार्बन-14 रेडियोएक्टिविटी के स्रोत हैं। डबल बैड पर सोने वाले दो लोग एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं।
जापानी दुर्घटना के कारण और उनके निवारण बहुत जल्द सामने आ जाएंगे, पर बुनियादी सवाल अर्थशास्त्र का है। जैसे-जैसे ऐसे विकल्प सामने आएंगे, जिनमें ऊर्जा की खपत कम हो या खतरा कम हो वैसे-वैसे उत्पादन और उपभोग बढ़ता जाएगा। प्रगति का हमारा मॉडल सामुदायिक विकास की जगह व्यक्तिगत विकास पर जोर देता है। पब्लिक ट्रांसपोर्ट के मुकाबले निजी कारों की जरूरत बढने का क्या अर्थ है? केवल उत्पादन या समृद्धि बढ़ाने वाली विचारधारा अधूरी है। पिछले दो सौ साल की वैश्विक प्रगति सारी दुनिया के लोगों को पेटभर भोजन देने वाली तकनीक नहीं खोज पाई। ऐसा नहीं कि संसार के पास साधन नहीं हैं। हम जब इंसानों को ही अपनी प्रगति का भागीदार नहीं बना पा रहे हैं तो प्रकृति को क्या साझीदार बनाएंगे। और प्रकृति को जब इसका भान होता है, वह पलटकर वार करती है। क्या गलत कहा?


दैनिक जनवाणी में प्रकाशित






3 comments:

  1. बिलकुल सही कहा आपने.एकदम सटीक बातें हैं.लोगों को समष्टिवादी बनना होगा तभी पूरा लाभ बगैर किसी नुक्सान के प्राप्त हो सकता है.

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  2. बड़े भाई, दुनिया में वित्तीय पूंजी की सत्ता है। वह इंसानों को नहीं देखती। इस ने इंसानों को काबू किया हुआ है। इन्सानों को इस की गुलामी से मुक्त होना होगा। तब भूख भी नहीं रहेगी और प्रकृति को भी सुरक्षित रखा जा सकेगा और धरती की उम्र भी बढ़ाई जा सकेगी।

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  3. बेहतर जानकारी दी है आपने.

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