पिछले महीने 16 फरवरी को टीवी सम्पादकों के साथ बातचीत के दौरान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा, मैं इस बात को खारिज नहीं कर रहा हूँ कि हमें गवर्नेंस में सुधार की ज़रूरत है। उसके पहले गृहमंत्री पी चिदम्बरम ने वॉल स्ट्रीट जर्नल को दिए एक इंटरव्यू में कहा था, बेशक कुछ मामलों में गवर्नेंस में चूक है, बल्कि मर्यादाओं का अभाव है। अभी 3 मार्च को सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच ने हसन अली के मामले में सरकार पर कड़ी टिप्पणी करते हुए कहा, ऐसे उदाहरण हैं जब धारा 144 तक के मामूली उल्लंघन में व्यक्ति को गोली मार दी गई, वहीं कानून के साथ इतने बड़े खिलवाड़ के बावजूद आप आँखें मूँदे बैठे हैं। उसी रोज़ मुख्य न्यायाधीश एसएच कपाडिया की अध्यक्षता में तीन जजों की बेंच ने चीफ विजिलेंस कमिश्नर के पद पर पीजे थॉमस की नियुक्ति को रद्द करते हुए कि यह राष्ट्रीय निष्ठा की संस्था है। इसके साथ घटिया खेल मत खेलिए।
दो बातें एक साथ हो रहीं हैं। एक ओर घोटाले सामने आ रहे हैं, दूसरी ओर व्यवस्था को पारदर्शी और घोटाला-प्रूफ बनाने की कोशिशें तेज हो रहीं है। जनता शिद्दत से चाहती है कि सज्जनों की राह में काँटे और लफंगों के लिए लाल कालीन बिछाने वाली मशीनरी का पहिया किसी तरह उल्टा घुमाया जाए। सीवीसी के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह संस्था चुनाव आयोग, सीएजी और संसदीय समितियों की तरह से सरकारी नियंत्रण से मुक्त होनी चाहिए। साथ ही इस पद पर किसी सरकारी अफसर को बैठाने की अनिवार्यता नहीं होनी चाहिए। सार्वजनिक जीवन में अनेक पाक-साफ लोग हमारे यहाँ मौजूद हैं। पश्चिम एशिया के जनाक्रोश का असर हमारे समाज पर भी है। यही वजह थी कि 30 जनवरी को बगैर किसी बड़ी योजना के देश के 60 शहरों में अचानक भ्रष्टाचार विरोधी रैलियों में भीड़ उमड़ पड़ी।
आजादी के बाद देश के शहरों को छूने वाला सबसे बड़ा आंदोलन 1973 से 1975 तक चला। उसकी पहली परिणति इमर्जेंसी और दूसरी 1977 में जनता सरकार थी। निषकर्ष यह कि दिल्ली की कुर्सी पर किसी एक पार्टी या नेता की जगह दूसरी पार्टी या नेता का बैठ जाना समस्या का समाधान नहीं है। दूसरी ओर सत्ता की धाराओं में हमने कई तरह के भँवर पड़ते देखे। भारतीय राष्ट्र राज्य की बहुलता का प्रतीक अकाली आंदोलन अतिवादी तत्वों के हाथों ने चला गया। वह खालिस्तानी आंदोलन में तब्दील हो गया। कमंडल और मंडल-आंदोलनों ने हमारे सामाजिक अंतर्विरोधों को खोल कर रख दिया। सामाजिक न्याय और हिन्दू राष्ट्रवाद वोट बैंक में तब्दील हो गए। कम्युनिस्ट पार्टियों के अंतर्विरोधों से जन्मा नक्सली आंदोलन राख के नीचे लगातार धधकता रहा, पर किसी तार्किक परिणति तक नहीं पहुँचा। पूर्वोत्तर के क्षेत्रीय पहचान और आर्थिक असमानता-विरोधी आंदोलन मुख्यधारा से नहीं जुड़ पाए।
आर्थिक व्यवस्था तेज गति पकड़ रही है। मजबूत सिविल सोसायटी की अनुपस्थिति में बिजनेस और गुंडागर्दी के माफिया को खुलकर खेलने के मौके मिल गए हैं। उधर उभरते मध्यवर्ग को मनोरंजन की अफीम पिलाने वाली संस्कृति ने मंच पर कब्जा कर लिया है। आर्थिक विकास को दिशा देने और सामाजिक रूपांतरण से जोड़ने की ज़रूरत है। पर्यावरण, लैंगिक समानता, क्षेत्रीय पहचान, सामाजिक न्याय, अल्प संख्यकों की सुरक्षा और सबसे ऊपर गरीबी और फटेहाली से लड़ाई का एजेंडा है। अभी तक कहा जाता था कि हम गरीब देश हैं। साधन नहीं हैं। पर अब जब साधन बढ़ रहे हैं, पूरा समाज रास्ते से भटक रहा है।
प्रधानमंत्री ने अपने 16 फरवरी के कार्यक्रम में कहा था, मुझे भरोसा है कि हमारी व्यवस्था तमाम दोषों को दुरुस्त करने में समर्थ है। और मैं भ्रष्टाचार को दूर करने के मामले में बेहद गम्भीर(डैड सीरियस) हूँ। पिछले साल एक के बाद एक घोटाले सामने आने के बाद से यूपीए ने उपचार के बारे में सोचना शुरू किया है। दूसरी ओर वह जेपीसी के राजनैतिक विवाद में उलझी रही और संसद का पूरा सत्र तबाह हो गया। अंततः माँग माननी पड़ी। यूपीए ने एक ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स बनाकर इस मामले में राजनैतिक पहल की है। पहल कितनी व्यवहारिक और संजीदा है इसके लिए कुछ इंतजार करना पड़ेगा। जीओएम ने राजनैतिक और प्रशासनिक धरातल पर भ्रष्टाचार दूर करने के तीन-चार सुझाव दिए हैं। इनमें से एक है जमीन के आबंटन, लैंड यूज़ में बदलाव और सरकारी अफसरों के तबादलों के बाबत मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों को प्राप्त विशेषाधिकारों का खात्मा। इसी तरह सरकारी फाइलों की नोटिंग में बदलाव करने के अधिकार की समाप्ति। सरकारी अफसरों पर भ्रष्टाचार के मामले चलाने की अनुमति 90 दिन की समय सीमा के अंदर देने और जिन अफसरों पर आपराधिक मामले बनें उनकी नौकरी तत्काल खत्म करने की सिफारिश भी की गई। टीप का बंद यह कि दिसम्बर 2010 में सोनिया गांधी ने दिल्ली में हुई कांग्रेस महासमिति की बैठक में जब इन प्रस्तावों का जिक्र किया तो सभा में सन्नाटा छा गया।
समूची राजनीति सत्तासुख छोड़ना नहीं चाहती। व्यवस्था को पारदर्शी और जनोन्मुखी बनाने के पैरोकार करोड़पति और अरबपति बनने की कतार में खड़े हैं। अपने वेतन-भत्तों के प्रस्ताव को आनन-फानन पास कराने वालों को व्यवस्था-सुधार के नाम पर साँप सूँघ जाता है। सूचना का अधिकार बिल पास करते-करते इस राजनैतिक मशीनरी को दो दशक लगे। प्रत्याशियों के हलफनामे दाखिल करने की व्यवस्था का तकरीबन सभी प्रमुख पार्टियों ने विरोध किया। यह व्यवस्था अदालती हस्तक्षेप से ही लागू हो पाई। शिक्षा और भोजन के अधिकार देने के लिए हमारे पास साधनों की कमी है, पर एक-एक घोटाले पर लाखों करोड़ की न्योछावर है।
महाराष्ट्र के सामाजिक कार्यकर्ता कि.बा.अण्णा हजारे सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार के खिलाफ अरसे से लड़ाई लड़ रहे हैं। उन्होंने इस लड़ाई को एक तार्किक परिणति तक पहुँचाने की पहल की है। सरकार इस मामले में पहल करने के बजाय इसकी अनदेखी की गलती कर रही है। पिछली 7 मार्च को प्रधानमंत्री की बातचीत की विफलता के बाद लगता है कि अण्णा हजारे 5 अप्रेल से दिल्ली में आमरण अनशन पर बैठ जाएंगे। उनकी माँग है कि भारत सरकार जन-लोकपाल बिल पेश करने का वायदा करे। सरकार अपने तईं जो बिल पेश करना चाहती है, वह बेहद कमजोर है और भ्रष्टाचारियों को सजा दिलवाने के बजाय कवच का काम करेगा। अण्णा हजारे की माँग है कि इस बिल के बाबत सुझाव देने के लिए जनता के प्रतिनिधियों की एक संयुक्त समिति बनाई जाय। अन्यथा जो प्रारूप हमने बनाया है उस पर गौर किया जाए।
लोकायुक्त बनाने का मसला साठ के दशक से सरकारी फाइलों में भटकता रहा है। 1966 में नियुक्त प्रशासनिक सुधार आयोग ने इसे गठित करने का सुझाव दिया था। 1968 में पहली बार यह बिल लोकसभा में पेश किया गया। 1969 में बिल पास भी हो गया और राज्यसभा में बिल था कि लोकसभा भंग हो गई। इसके बाद 1971, 77, 85, 87, 96, 98, 2001, 2005 और 2008 में इसे प्राण देने के प्रयास हुए और सफलता नहीं मिली। यह बिल कभी इस कमेटी में पड़ा रहता है और कभी उस में और लोकसभा भंग हो जाती है। 1971 में इंदिरा गांधी गरीबी हटाओ के नारे के साथ लोकसभा में जबर्दस्त बहुमत लेकर आईं थीं। पर नारा जितना अच्छा था, उसे अमली जामा पहनाना उतना आसान नहीं था। जनता की अपेक्षा पूरी न हो पाने का परिणाम था 1973-74 का जेपी आंदोलन। गुजरात, बिहार और दूसरे राज्यों में आंदोलन भ्रष्टाचार को लेकर ही शुरू हुए थे। यह सिर्फ संयोग नहीं है कि इस बार भी जनांदोलन की चिंगारी भ्रष्टाचार के खिलाफ है।
सरकारी सेवाओं में भ्रष्टाचार-निरोधी व्यवस्था सीवीसी के दफ्तर से संचालित होती है। सीवीसी का छोटा सा दफ्तर देश के विशाल सरकारी ढाँचे के भ्रष्टाचार को रोक पाने में समर्थ है ही नहीं। 17 राज्यों में लोकायुक्त काम कर रहे हैं, पर ज्यादातर प्रभावहीन हैं। अण्णा हजारे जिस जन-लोकायुक्त विधेयक के लिए प्रयास कर रहे हैं वह प्रतीक मात्र है। व्यवस्था को पारदर्शी और न्याय संगत बनाने की मुहिम के लिए जिस जन-भागीदारी की ज़रूरत है, वह इसके सहारे ही उभरेगी। आंदोलन के मायने रेलगाड़ियां या रास्ते रोकना ही नहीं होता। रास्ते बनाने के लिए भी आंदोलनों की जरूरत होती है।
दैनिक जनवाणी में प्रकाशित
यहां एक बड़ा सवाल यह भी उठता है कि देश को कौन चल रहा है सरकार या सुप्रीम कोर्ट? देश को चलने की जिम्मेवारी बेशक सरकार की है लेकिन पिछले कुछ दिनों से हर मामले सुप्रीम कोर्ट को आगे आना पड़ रहा है जो सरकार की विफलता को स्पष्ट उजागर करती है| निश्चित रूप से यह राष्ट्रीय धुलाई की बेला है, आक्रोश लोगों में बढ़ रहा है इस बात को नज़रअंदाज करना कहीं मंहगा ना पड़ जाये| देश की राजनीतिक और सामाजिक स्थिति इस तरह अंधेरों में अपना अस्तित्व तलाशती पहली बार दिख रही है|
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