चित्र मीडिया विजिल से साभार |
बाबाओं और संतों से जुड़े सवाल एकतरफा नहीं हैं। या तो हम इन्हें सिरे से खारिज करते हैं या गुणगान की अति करते हैं। यह हमारे अर्ध-आधुनिक समाज की समस्या है, जो केवल बाबाओं-संतों तक सीमित नहीं है बल्कि जीवन के हर क्षेत्र में है और खासतौर से इसे हम राजनीति के हरेक खेमे में देख सकते हैं। संतों का आज मतलब वही नहीं है, जो कभी कबीर, रैदास, दादू दयाल, मलूकदास, गुरुनानक वगैरह के साथ जुड़ा था। और ज्यादातर लोग आज संतों के पास अपनी समस्याओं के समाधान से जुड़े अंधविश्वासों से प्रेरित होकर जाते हैं, सामाजिक कल्याण के लिए नहीं।
यह केवल हिंदुओं तक सीमित नहीं है। चमत्कारी और
भूत-प्रेतों के इलाज के नाम पर दूसरे धर्मावलंबियों को भी इसके दायरे में आप देख
सकते हैं। एक ओर आस्था और अंधविश्वास हैं और दूसरी ओर जीवन को अतार्किक मशीनी
तरीके से देखने वाली ‘प्रगतिशीलता’ का विद्रूप है। लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं से यह
विसंगति पल्लवित हुई और मीडिया ने इसे पुष्पित होने का मौका दिया। दोनों मनुष्य के
विकास की देन हैं।
वैश्विक बाजारवाद और आधुनिक विज्ञानवाद के दौर में परंपरागत धार्मिकता को धीरे-धीरे खत्म होना चाहिए, पर हो इसके विपरीत रहा है। धार्मिक आडंबर (अंग्रेजी में कहें तो रिलीजियोसिटी) बढ़ रहे हैं। चुनाव-प्रणाली सांप्रदायिक पहचान के मध्य-युगीन मूल्यों को भड़का रही है। अचानक दुनिया में धार्मिक पहचान के रूप में पहनावे की भूमिका बढ़ी है।
अध्यात्म, सत्संग,
प्रवचन और अंधविश्वास के सालाना कारोबार का हिसाब लगाएं तो हमारे देश
से गरीबी कई बार खत्म की जा सकती है। यह कारोबार कई लाख करोड़ का है। भारत सरकार के
बजट से भी ज्यादा। यह इतनी गहराई तक जीवन में मौजूद है कि इसकी केवल भर्त्सना करने
से काम नहीं होगा। इसे समझने की कोशिश होनी चाहिए और इसकी सकारात्मक भूमिका की
पहचान भी करनी होगी। परंपरागत धर्मानुरागी समाज केवल भारत में ही निवास नहीं करता।
यूरोपीय और अमेरिकी समाज का बड़ा तबका आज भी परंपरा-प्रिय है। फिर भी उस समाज ने
तमाम आधुनिक विचारों को पनपने का अवसर दिया और पाखंडों से खुद को मुक्त किया।
अनुपस्थित आधुनिकता
भोले बाबा, राम रहीम, रामपाल या दूसरे संतों के
भक्त कौन हैं और वे उनके पास क्यों जाते हैं? ऐसे
तमाम संतों और बाबाओं के आश्रम, डेरे, मठ
वगैरह चलते हैं। इनके समांतर खाप, पंचायतें और जन जातीय समूह हैं।
ग्रामीण समाज में तमाम काम सामुदायिक स्वीकृतियों, सहमतियों
और सहायता से होते हैं। लोग अपनी समस्याओं के समाधान के लिए पंचायतों और सामुदायिक
समूहों में आते हैं या फिर इन आश्रमों की शरण लेते हैं। यहाँ उनके व्यक्तिगत विवाद
निपटाए जाते हैं, समझौते होते हैं। यह काम आधुनिक राज और
न्याय-व्यवस्था का था। पर इस परंपरागत काम के विपरीत इन मठों में सोशल नेटवर्किंग
विकसित होने लगी। हथियारों के अंतरराष्ट्रीय सौदे पटाए जाने लगे। संत-महंतों की
दैवीय शक्तियों का दानवी इस्तेमाल होने लगा। सत्ता के गलियारों में संत-समागम होने
लगे।
सपनों की इस तिजारत का यह लोकतांत्रिक रूप है।
उसके साथ उद्योग-व्यापार, नौकरशाही, अपराध
और राजनीति की डोरें जुड़ीं। दूसरी ओर इस बाबा संस्कृति ने राजनीति में सीधे प्रवेश भी किया
था। अंततः यह पहल मुख्यधारा की राजनीति में विलीन हो गई। इसी तरह धीरेंद्र
ब्रह्मचारी और चंद्रास्वामी के नाम हमें भूलने नहीं चाहिए। संतों को सत्ता की
स्टेपनी बनने में मज़ा आने लगा। और अब मुख्यधारा की राजनीति इन मठों, आश्रमों और डेरों के साथ मेलजोल रखती है।
मूढ़ मध्य-वर्ग
कुछ साल पहले तक टेलीविजन पर प्रकट होने वाले बाबा
थे, जो ‘किरपा’ की खेती करते थे। किरपा चाहने वाले लोग गरीब-अनपढ़ नहीं, मध्यवर्गीय अंधविश्वासी थे। ऐसे एलीट बाबा हमारे बीच हैं, जिनके
दीवाने बड़े-बड़े लोग हैं। दो दशक पहले रूसी टीवी पर किसी गॉडमैन का टीवी शो
लोकप्रिय हुआ था। वह हाथ फेरकर लोगों की समस्याओं के समाधान करता था। दुनिया भर
में फेथ हीलर्स लोकप्रिय हैं जो बीमारियों का इलाज करते हैं। हर धर्म के फेथ
हीलर्स लोकप्रिय हैं। रूहानी ताकत पर भरोसा सिर्फ हमारे यहाँ नहीं है, पर जिस कदर हमारे यहाँ है वह अटपटा है।
बाबाओं ने आधुनिक मुहावरों का इस्तेमाल भी किया
है। राजनीतिक प्रभाव के कारण उनके भक्तों में सरकारी अधिकारी, डॉक्टर, वकील और नेता भी हैं। भोले बाबा की ओर
से टीवी पर जो प्रतिनिधि आए, वे अंग्रेजी बोल रहे थे। आधुनिकता केवल पतलून पहनने,
अंग्रेजी बोलने या दंत मंजन की जगह टूथपेस्ट इस्तेमाल करने से नहीं
आती। वह शिक्षा, वैज्ञानिकता और व्यापक सामाजिक समझ से
जुड़ी है।
बाहरी संरचना में हम तेजी से बदले हैं, पर भीतरी बनावट इससे मेल नहीं खाती। नई पीढ़ी और खासतौर से लड़कियों
के पहनावे, मोबाइल फोन के इस्तेमाल और शादी-विवाह को लेकर
खाप और पंचायतों जैसी परंपरागत संस्थाएं टकराव की मुद्रा में हैं। वे अपनी पहचान
को खतरे में पड़ता देख रही हैं। दूसरी ओर यह भी सच है कि हम जिस आधुनिकता के पीछे
भाग रहे हैं वह वास्तविक नहीं, उसका विद्रूप है। हमारा परंपरागत समाज
असमंजस के चौराहे पर है। उसे सामाजिक बदलाव की संतुलित राह चाहिए। यह बदलाव भीतर
से ही आएगा। दूसरी ओर मीडिया इस संकट को समझाने के बजाय भटकाव और टकराव पर चटखारे
ले रहा है।
सार्थक संत-परंपरा भी है
बाजार दो तरीके से काम करता है। एक सप्लाई साइड
से और दूसरा डिमांड साइड से। डिमांड का बाजार असली है। यानी जरूरत तैयार होना। संत
हजारों साल से हमारे बीच हैं बगैर मार्केटिंग के। सम्मानित संत वही थे, जो जनता के करीब थे। उत्तर से लेकर दक्षिण तक जबर्दस्त संत परंपरा
रही है। कबीर, रैदास, दादू
दयाल, मलूकदास, गुरुनानक,
अमीर खुसरो, संत पलटू, बुल्लेशाह,
संत तिरुवल्लुवर, संत औवैयार, नामदेव,
ज्ञानेश्वर, ज्योतिबा फुले, गुरु
गोरखनाथ, और सिख पंथ के सभी गुरुओं की समाज के साथ गहरा
जुड़ाव था। राज-व्यवस्था को लोग नहीं जानते थे। अपने नेताओं को जानते थे। यह परंपरा
आधुनिक बदलाव के साथ अपना स्वरूप बदलती गई। पुराने संत झोंपड़ों में रहते थे और आज
के संत महलों में रहते हैं, जो अक्सर जमीन पर कब्जा करके बनते हैं।
1857 से लेकर 1947 तक राष्ट्रीय आंदोलन के साथ
तमाम सामाजिक आंदोलन इन परंपरागत संस्थाओं-संगठनों की मदद से ही चले। अलीगढ़
मुस्लिम विवि, काशी हिन्दू विवि, डीएवी कॉलेज, आर्य कन्या पाठशालाएं और खालसा कॉलेज
धार्मिक-सांस्कृतिक आंदोलनों की देन हैं। महात्मा गांधी की अपील धार्मिक और
सांस्कृतिक रंग से रंगी थी। महाराष्ट्र में गणेशोत्सव और दुर्गा पूजा का इस्तेमाल
राष्ट्रीय आंदोलन में हुआ। भारत में ही नहीं वियतनाम में हो ची मिन्ह जैसे
कम्युनिस्ट नेता ने अपने आंदोलन में धार्मिक-सांस्कृतिक संस्थाओं का सहारा लिया।
प्रश्न बदलाव के आधुनिक मुहावरों का है। ये मुहावरे अपनी लोक-परंपराओं में से खोजे
जाएंगे तो आसानी होगी। पर इसके लिए विचार-मंथन की जरूरत है।
गांधी की धार्मिक शब्दावली
महात्मा गांधी की शब्दावली धार्मिक थी।
उन्होंने चरखा कातने को यज्ञ की संज्ञा दी थी। वस्तुतः यह एक प्रकार की सामूहिक
पहल थी। जब करोड़ों लोग एकसाथ चरखा चलाएंगे तो उससे उत्पन्न सामाजिक ऊर्जा हमें
आगे ले जाएगी। आजादी के बाद हमारे परंपरागत समाज की दरारें भी खुलीं। 1973 में
आनंदपुर साहब प्रस्ताव की परिणति एक राजनीतिक आंदोलन में हुई। अयोध्या में राम
मंदिर का आंदोलन खड़ा हुआ। उधर मंडल आंदोलन ने जातीय व्यवस्था की बुनियाद पर चोट
की। गाँवों का स्वरूप भी बदला, स्त्री शिक्षा और रोजगार में लड़कियों
की भूमिका बढ़ी। पर देश को सकारात्मक रास्ते पर ले जाने में समर्थ सामाजिक आंदोलन
खड़े नहीं हो पाए।
हमारा समाज राज्याश्रयी संतों को पसंद नहीं
करता। वे सामाजिक बदलाव में शामिल होते हैं तभी अच्छा लगता है। इनकी उपयोगिता न
होती तो वे काफी पहले अप्रासंगिक हो चुके होते। इन्हें सकारात्मक कार्यों के लिए
प्रेरित किया जाना चाहिए। कस्बों में महानगरीय संस्कृति का प्रभाव बढ़ने के कारण
विसंगतियाँ पैदा हुईं हैं जिन्हें दूर होने में कम से कम एक पीढ़ी तो लगेगी।
ढोगियों-पाखंडियों का पर्दाफाश होगा तो उनका असर भी कम होगा। पर यह पाखंड केवल
धर्म और अध्यात्म तक सीमित नहीं है। उसका दायरा बहुत बड़ा है।
पिछले कुछ वर्षों में अनेक कथित संतों का
भंडाफोड़ भी हुआ है। बाबा रामपाल, आसाराम बापू और फिर गुरमीत राम रहीम की
जेल-यात्रा ने भारत की बाबा-संस्कृति को लेकर बुनियादी सवाल खड़े किए हैं। क्या
बात है, जो इन बाबाओं के पीछे इतनी बड़ी संख्या में
भक्त खड़े हो जाते हैं? और फिर वह क्या बात है जो बाबाओं और
संतों को भक्ति के बजाय सांसारिक ऐशो-आराम और अपराधों की ओर ले जाती है? उनके रुतबे-रसूख का आलम है कि राजनीतिक दल उनकी आरती उतारते हैं।
उनके पीछे एक लंबा वोट बैंक होता है।
हिंसा पर उतारू
भक्तों की आस्था इन गुरुओं से इस हद तक जुड़ी
होती है कि वे हिंसा पर उतर आते हैं। जैसी हिंसा राम रहीम समर्थकों ने की थी,
तकरीबन वैसी ही हिंसा उसके पहले मथुरा के जवाहर बाग की सैकड़ों एकड़
सरकारी जमीन पर कब्जा जमाए बैठे रामवृक्ष यादव और उनके हजारों समर्थकों और पुलिस
के बीच भिड़ंत में हुई थी। उसमें 24 लोग मरे थे।
भक्ति का कारोबार है, तो
उसमें प्रतिद्वंद्विता भी है। कुछ साल पहले अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद ने लिस्ट
जारी कर देश में 14 बाबाओं को फर्जी बताया है। इलाहाबाद में अखाड़ा परिषद की
कार्यकारिणी की बैठक में जारी की गई लिस्ट में कई स्वयंभू बाबाओं के नाम हैं। सच
यह है कि जबसे बाबा-वृत्ति ने कारोबार की शक्ल ली है, इनके
बीच प्रतियोगिता भी चल रही है। दूसरी और धर्मस्थलों में यौन शोषण की खबरें हमारे
यहाँ ही नहीं, दुनियाभर से आ रहीं हैं। अफसोस इस बात
का है कि पाखंड की यह कहानी उस पनीली आधुनिकता के समांतर चल रही है, जिससे हम आज गुजर रहे हैं।
बढ़ती धार्मिकता
आधुनिक भारत में बाबा संस्कृति पर शोध कर रहीं
मीरा नंदा ने लिखा है, ‘भारतीय मध्यवर्ग अपनी भौतिक सम्पदा में
वृद्धि के अनुपात में ही ‘पूजा’ और ‘होम’ में भी उत्तरोत्तर वृद्धि करना आवश्यक और
अनिवार्य समझता है। हर वाहन की ख़रीद के साथ पूजा होती है; ठीक
वैसे ही जैसे ज़मीन के छोटे से टुकड़े पर भी किसी निर्माण से पहले ‘भूमि-पूजन’
अनिवार्य होता है। हर पूजा के साथ एक ज्योतिषाचार्य और एक वास्तुशास्त्री भी जुड़ा
ही रहता है।’ हमारी विश्व-दृष्टि में ही खोट है। कुछ लोग इसे हिंदुओं को बदनाम करने की साजिश मानते हैं। यह भी गलत
है।
मीरा नंदा प्राचीन भारतीय संस्कृति के अध्ययन
की दिशा में उठाए गए सरकारी प्रयासों को इसके लिए दोषी मानती हैं, पर यह नजरिया एकतरफा है। व्यक्ति को उसकी संस्कृति से काटा नहीं जा
सकता। संस्कृति को आधुनिक बनाया जा सकता है। सामाजिक बदलाव धीमी प्रक्रिया होती है।
इसे तेज करने के लिए प्रभावशाली सामाजिक-सांस्कृतिक नेताओं की जरूरत होती है। उनकी
प्रासंगिकता हम खोज नहीं पाए हैं। दक्षिण भारत में मठों और आश्रमों ने इंजीनियरिंग
कॉलेजों का संचालन शुरू किया है। पुट्टपर्थी के साईं बाबा के नेतृत्व में पेयजल
योजनाएं शुरू हुईं, जो आज भी चल रही हैं। बहुत से काम समाज
से टकराकर नहीं, रास्ता दिखाकर किए जा सकते हैं।
भोले बाबा, राम रहीम हों, रामपाल या जय गुरदेव बाबाओं के पीछे ज्यादातर ऐसी दलित-पिछड़ी
जातियों के लोग होते हैं, जिन्हें राजनीतिक प्रतिनिधित्व नहीं
मिल पाया है। इनके तमाम मसले बाबा लोग निपटाते हैं, उन्हें
सहारा देते हैं। बदले में फीस भी लेते हैं। इनका प्रभाव उससे कहीं ज्यादा है,
जितना सामने दिखाई पड़ता है। जन-समर्थन के कारण इन्हें राजनीतिक
संरक्षण भी मिलता है। राम रहीम को बीजेपी का संरक्षण मिला। इसके पहले कांग्रेस का
मिला। जो भी है हमारे सामाजिक विकास की विसंगतियाँ हैं। मीडिया ने भी इसे दूर से
कवर किया है। किसी संवाददाता ने बाबा के समर्थन में हाथ में झोला लेकर आए लोगों से
गहराई से बात नहीं की। आखिर वह क्या प्रेरणा है, जिसके
कारण लोग जान लेने और देने के लिए तैयार हो गए?
2018 में मध्य प्रदेश ने राज्य में पाँच बाबाओं
को राज्यमंत्री का दर्जा दे दिया। इनमें एक थे कंप्यूटर बाबा, जिनकी धूनी
रमाते तस्वीर सोशल मीडिया में वायरल हुई। यह प्रकरण संतों-संन्यासियों को मिलने
वाले राज्याश्रय के बारे में विचार करने को प्रेरित करता है। यह उस महान संत-परंपरा
से उलट बात है, जिसने भारतीय समाज को जोड़कर रखा है।
इस विशाल देश को दक्षिण से उत्तर और पूर्व से पश्चिम तक जोड़े रखने में संतों की
बड़ी भूमिका रही है। सैकड़ों-हजारों मील की पैदल यात्रा करने वाला जैसा हमारा
संत-समाज है, वैसा दुनिया में शायद ही कहीं मिलेगा। इसमें उन
सूफी संतों को भी शामिल करना चाहिए, जो इस्लाम और
भारतीय संत-परंपरा के मेल के प्रतीक हैं।
धार्मिकता का दोहन
2017 में जब उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री के
रूप में योगी आदित्यनाथ को स्थापित किया गया, तब
कुछ लोगों को झटका लगा। योगी आदित्यनाथ बेहतर प्रशासक हो सकते हैं, पर आधुनिक
राज-व्यवस्था धार्मिक रूपकों से बचने की सलाह देती है। अगस्त 2016 में हरियाणा
विधानसभा में मॉनसून सत्र के पहले दिन जैन मुनि तरुण सागर ने विधायकों को संबोधित
किया। हरियाणा विधानसभा के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ था। विधायकों के अलावा
हरियाणा के राज्यपाल और प्रदेश के वरिष्ठ अधिकारियों ने भी इस सत्र में हिस्सा
लिया। इस कार्यक्रम की सदाशयता को लेकर भले ही संदेह नहीं हो, पर धर्म-निरपेक्ष राज-व्यवस्था के सिद्धांतों से यह बात मेल नहीं
खाती। संभव है कि दूसरे धर्मों के गुरुओं को भी उपदेशों के लिए आमंत्रित किया जाए,
पर यह आधुनिक धारणा नहीं है।
धर्मगुरुओं को आदर मिलना चाहिए और जो उनके
उपदेश सुनना चाहते हैं, उन्हें उनके दरबार में जाना चाहिए।
धर्म-निरपेक्ष राज-व्यवस्था के मंचों पर धर्म-गुरुओं को बैठाने से विसंगति पैदा
होती है। बेशक राज-व्यवस्था के लिए नैतिकता की जरूरत है, पर
नैतिकता का स्रोत अनिवार्य रूप से धर्म नहीं है। ऐसे उदाहरण सामने हैं, जब धर्म वैमनस्य फैलाते हैं। धर्म और राजनीति को अलग रखने की जरूरत
है। दोनों को जोड़ने से उनके अंतर्विरोध पैदा होंगे।
5 जुलाई, 2024 को ब्लॉग पर प्रकाशित
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