भारत-पाकिस्तान के राजनीतिक-रिश्ते किसी भी सतह पर हों, इसमें दो राय नहीं कि खेल का मैदान दोनों को जोड़ता है. खेल ही नहीं, सिनेमा, संगीत, खानपान, पहनावा, साहित्य, भाषा और उसके मुहावरे हमें जोड़ते हैं.
भारत-पाक सांस्कृतिक-रिश्तों को सामान्य और
आवागमन को आसान बना दीजिए और देखिए कि क्या चमत्कार होता है. दोनों क्रिकेट के
दीवाने देश हैं. हम जिस गंगा-जमुनी संस्कृति की बातें सुनते हैं, वह इन्हीं
मैदानों और मंचों पर पनपती है.
राजनीतिक रिश्ते जब टूटते हैं, तब सबसे ज्यादा
नुकसान संस्कृति को होता है. भारतीय भूखंड में रहने वालों का हित इस बात में है कि
उनकी संस्कृति सुरक्षित रहे और शांति बनी रहे. यदि ऐसा नहीं है, तो उसके कारण हमें
खेल या संस्कृति में नहीं राजनीति में खोजने होंगे. आप पाएंगे कि सबसे बड़ा कारण
वह कृत्रिम-विभाजन है, जिसने हमें पहले दो और फिर तीन देशों में तब्दील कर दिया.
बड़ा धक्का
हाल में मिली एक खबर के मुताबिक चैंपियंस
ट्रॉफी क्रिकेट प्रतियोगिता में खेलने के लिए के लिए टीम इंडिया के पाकिस्तान जाने
की संभावना लगभग नहीं है. बीसीसीआई चाहती है कि भारत के मैचों की मेजबानी दुबई या
श्रीलंका करें. इसके लिए वह आईसीसी से अनुरोध करेगी.
पाकिस्तान के दर्शकों और खेल-प्रशासन के लिए यह
बड़ा धक्का है. इससे पहले एशिया कप में ऐसा ही हुआ था. भारत ने अपने सभी मैच
श्रीलंका में खेले थे. दोनों देशों ने बरसों से हॉकी या क्रिकेट की द्विपक्षीय
सीरीज नहीं खेली है.
2013 में पाकिस्तान की टीम आखिरी बार
द्विपक्षीय क्रिकेट सीरीज खेलने आई थी. उसके बाद से इन दोनों टीमों के बीच सिर्फ
आईसीसी या फिर एसीसी प्रतियोगिताओं में ही मैच हुए हैं. भारत ने 2008 के बाद से
पाकिस्तान में आयोजित होने वाली प्रतियोगिताओं में भाग लेना भी बंद कर दिया है.
ऐसा भी नहीं है कि भारत ने पाकिस्तान में खेलना पूरी तरह बंद कर दिया है. इस साल फरवरी में डेविस कप टेनिस प्रतियोगिता के अपने मैच खेलने के लिए भारतीय टीम पाकिस्तान गई थी, पर टेनिस और क्रिकेट की लोकप्रियता में फर्क है और उनके राजनीतिक-सामाजिक प्रभावों में भी अंतर है.
खेल और राजनीति
माना जाता है कि खेल के मैदान में राजनीति का
प्रवेश नहीं होना चाहिए, पर जितनी आसानी से यह बात कही जाती है, उतनी आसान वह है
नहीं. 1980 के मॉस्को और उसके बाद 1984 के लॉस एंजेलस ओलिंपिक खेलों के बहिष्कारों
को हम देख चुके हैं.
दक्षिण अफ्रीका सरकार की रंगभेदी नीतियों के
कारण लंबे समय तक वहाँ की क्रिकेट टीम बहिष्कृत रही थी. ऐसे अनेक प्रसंग अतीत में
हुए हैं और मानकर चलिए कि वे जारी रहेंगे.
भारत-पाकिस्तान रिश्तों में विभाजन के समय से
ही कड़वाहट है. पाकिस्तान सरकार ने सबसे पहले अपने स्वतंत्रता दिवस को अलग किया.
शुरूआती वर्षों में उसने 15 को ही अपना स्वतंत्रता दिवस मनाया, पर बाद में खुद को
अलग साबित करने के लिए 14 अगस्त को अपनाया, जबकि ‘इंडिपेंडेंस
ऑफ इंडिया एक्ट’ के अनुसार उस
दिन वह देश बना ही नहीं था.
बढ़ती कड़वाहट
बावजूद इसके दोनों देशों के खेल और संस्कृति के
रिश्ते करीब डेढ़ दशक तक बने रहे. पर 1965 और 1971 की लड़ाइयों के बाद और फिर नब्बे
के दशक में कश्मीर में हुई हिंसा और करगिल-युद्ध की वजह से कड़वाहट बढ़ती ही चली
गई.
इस कड़वाहट ने सांस्कृतिक रूप से एक-दूसरे से काटने
का काम किया है. यह कड़वाहट किस कदर हद तक लोगों को उद्वेलित करती है, इसके उदाहरण
भी मौजूद हैं. 2021 में टी-20 विश्वकप प्रतियोगिता में भारत और पाकिस्तान के मैच में
पाकिस्तान ने भारत को हरा दिया. पाकिस्तान के राजनीतिक तबके में उस जीत पर जो
प्रतिक्रिया हुई, वह हैरतंगेज़ थी.
पाकिस्तान के तत्कालीन गृहमंत्री शेख़ रशीद ने
जीत के ठीक बाद ट्विटर पर एक वीडियो संदेश पोस्ट करके कहा, ''दुनिया के मुसलमानों समेत हिंदुस्तान के मुसलमानों के जज़्बात
पाकिस्तान के साथ हैं. इस्लाम को फ़तह मुबारक हो. पाकिस्तान ज़िंदाबाद.''
खेल की इस हार या जीत को राष्ट्रीय स्वाभिमान
से उन्होंने जोड़ दिया. इतना ही नहीं, उसे वैश्विक-इस्लाम से भी जोड़ा. उसके पहले 2007
के टी-20 विश्व कप फ़ाइनल में भारत से हारने के बाद पाकिस्तान के तत्कालीन कप्तान
शोएब मलिक ने मुस्लिम दुनिया से माफ़ी माँगी थी.
शोएब मलिक तब यह भूल गए थे कि उस मैच में भारत
के इरफ़ान पठान मैन ऑफ़ द मैच बने थे. शोएब मलिक को आउट इरफ़ान पठान ने ही किया
था. पाकिस्तान के ख़िलाफ़ विश्व कप के मैचों में भारत को तीन बार जीत मोहम्मद अज़हरुद्दीन
की कप्तानी में मिली हैं.
जुनूनी देश
यह बदमज़गी ही एक मात्र सत्य नहीं है.
पाकिस्तान में संतुलित और समझदार खिलाड़ी और दर्शक भी हैं, पर राजनीतिक प्रचार ने एक
बड़े तबके को जुनूनी बना दिया है. उनकी टीम जब अच्छा प्रदर्शन करती है, तो वे
नाचने लगते हैं, जब हार जाती है, तब हताश होकर अपनी टीम और प्रशासन को गालियाँ
देने लगते हैं.
इस देश के पास राष्ट्रीय-स्वाभिमान के प्रतीकों
की संख्या छोटी है और उतना ही छोटा इतिहास भी है. प्राचीन भारत से खुद को जोड़ने की
झिझक में उन्होंने अपने पास गौरव की छोटी सी खिड़की ही बचाकर रखी है.
देश की लोकतांत्रिक अराजकता और पिछले तीन-चार
दशकों से कट्टरपंथ और आतंकवाद की लहरों ने इस मनोबल को और गिराया है. एक आम
पाकिस्तानी के पास खेल के मैदान की सफलताएं ही बची हैं, जिनसे वह खुश हो सकता है. क्रिकेट
से पहले उनकी हॉकी की टीम राष्ट्रीय-स्वाभिमान का प्रतीक थी, पर कालांतर में वह गौरव कुंठित हो गया.
राष्ट्रीय नायक इमरान
क्रिकेट के विश्वकप में 1992 का फाइनल जीतने के
बाद इमरान खान, राष्ट्रीय नायक के रूप में उभरे. देश ने न केवल उन्हें, बल्कि
क्रिकेट के खेल को राष्ट्रीय-सम्मान का दर्जा दिया. 39 साल की उम्र में इमरान ने
पाकिस्तान की विश्व कप विजेता टीम का नेतृत्व किया, जिसके कारण वे राष्ट्रीय गौरव
का विषय बने.
उनका महत्व इस बात से रेखांकित होता है कि 1987
के विश्व कप के अंत में वे क्रिकेट से संन्यास ले चुके थे, पर 1988 में तत्कालीन
राष्ट्रपति जनरल जिया उल हक ने उनसे दुबारा कप्तानी करने का आग्रह किया. सफलता ने
इमरान खान को हीरो बना दिया और अंततः वे देश के प्रधानमंत्री भी बने.
राजनीति में खेल
2022 के टी-20 विश्व कप के फाइनल में पाकिस्तान
की टीम हालांकि हार गई, पर उसने देश के राजनीतिक अनिश्चय और
असंतोष के गहरे जख्मों पर मरहम लगाने का काम किया था. इससे देश के स्वाभिमान को
सिर उठाने का मौका मिला.
वहाँ खेल और राजनीति को किस तरीके से जोड़ा
जाता है, उसपर गौर करने की जरूरत भी है. फाइनल मैच के
पहले एक पाकिस्तानी विश्लेषक ने लिखा, पाकिस्तान जीता
तो मैं मानूँगा कि देश में पीएमएल(नून) की सरकार भाग्यशाली है. 1992 में इसी
पार्टी की सरकार थी और आज भी है. बहरहाल टीम चैंपियन तो नहीं बनी, पर देश इस सफलता से भी संतुष्ट था.
उन दिनों इमरान खान के समर्थक देश भर में आंदोलन
चला रहे थे. उन्होंने इस्लामाबाद जाने वाली सड़कों की नाकेबंदी कर रखी थी. पर,
सिर्फ उस मैच की खातिर, वे कुछ समय के लिए खामोश हुए, और
उन्होंने बैठकर सेमीफाइनल और फाइनल मैच देखे.
सकारात्मक दृष्टि से देखें, तो दोनों मुल्कों के
लोगों को करीब लाने में खेल की बड़ी भूमिका हो सकती है. ऐसा एकबार हो भी चुका है. 2004
में भारतीय क्रिकेट टीम के पाकिस्तान दौरे के ठीक पहले पेच फँस गया था. शिवसेना का
तो विरोध था ही आडवाणी जी का गृह मंत्रालय भी इस दौरे के पक्ष में नहीं था. लेकिन,
प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने दौरे
की अनुमति दे दी.
वह दौरा बेहद सफल रहा और भारतीय क्रिकेट के
इतिहास में सुनहरे अक्षरों में अंकित हो गया. पाकिस्तानी पत्रकार नजम सेठी ने उस
दौरे की अनुमति को अटल जी की ओर से पाकिस्तान को वैलेंटाइन डे की गिफ्ट बताया था.
खेल की डिप्लोमेसी
भारत और पाकिस्तान के बीच खेल की डिप्लोमेसी
क्या कमाल करती है, यह उस दौरे में देखने को मिला. कहते हैं कि दोनों देश खेल को
भी जंग मानते हैं. ऐसा नहीं है. याद करें, उस दौरे में भारत की टीम ने जब लाहौर
में पाकिस्तान को हराया था, तो स्टेडियम में पटाखे दग रहे थे. वह दृश्य भी
अकल्पनीय था.
क्रिकेट की कारोबारी तहज़ीब पर न जाएं तो खेल
का इस्तेमाल सामाजिक-सांस्कृतिक समस्याओं के समाधान में हो सकता है. खेल के मैदान
में कबायली जुनून भी देखने को मिलते हैं, पर दर्शक बेहतर
खिलाड़ी और टीम के कौशल को भी सराहते हैं. ऐसा करते वक्त वे खिलाड़ी के धर्म या
जाति को नहीं देखते.
पाकिस्तान के बाबर आज़म, शाहीन अफरीदी और शोएब
अख्तर को हम पसंद करते हैं. वहीं विराट कोहली, रोहित शर्मा, जसप्रीत बुमराह और महेंद्र
सिंह धोनी को पाकिस्तानी दर्शक. यह भावना हमें उदार और समझदार भी बनाती है. सिर्फ समय
और दस्तूर लोगों के दिलो-दिमाग बदल देता है.
बेशक, दोनों तरफ कट्टरपंथी-संकीर्ण आवेशों की
कमी नहीं है, पर दोनों ओर समझदार लोग भी रहते हैं. अतीत में
ऐसे भी मौके आए, जब पाकिस्तानी दर्शकों ने लाहौर और कराची में अपनी टीम को भारत के
हाथों और भारतीय दर्शकों ने चेन्नई और दिल्ली में अपनी टीम को पाकिस्तान के हाथों
हारते देखा है. यह खेल की भावना है, जो हमें जीवन का
पाठ भी पढ़ाती है.
चैंपियंस ट्रॉफी की पहेली
चैंपियंस ट्रॉफी 2025 का
आयोजन पाकिस्तान में होना है. भारतीय टीम, पाकिस्तान जाने के लिए तैयार नहीं है, लेकिन
पाकिस्तान क्रिकेट टीम पिछले साल एक दिनी विश्व कप के लिए भारत आई थी. उस दौरान
पाकिस्तानी टीम का अच्छा स्वागत भी हुआ था. इस वजह से कड़वाहट बहुत ज्यादा नहीं
है.
पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड ने करोड़ों रुपए खर्च
करके मैदानों को ठीक करवाने का प्लान बनाया है. भारतीय टीम नहीं जाएगी, तो सब कुछ
बर्बाद हो जाएगा. पर, भारत के क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड को भी देश की विदेश-नीति के
संदर्भ में सोचना होता है.
ऐसी नौबत क्यों आई? इसका
जवाब पाकिस्तान के राजनेताओं और सेना को भी देना है. हमारे लिए भी यह
राष्ट्रीय-स्वाभिमान का प्रश्न है. अब यह सवाल मत पूछिए कि के रिश्तों को सामान्य
बनाने में दिक्कत कहाँ है? यह खेल नहीं, राजनीति का प्रश्न है. बेहतर रिश्ते
बनाने की जिम्मेदारी केवल हमारी नहीं है. पाकिस्तान की भी है.
यू-टर्न
पॉलिटिक्स
भारत ने अगस्त, 2019
में कश्मीर में अनुच्छेद 370 को जब निष्प्रभावी बनाया, तबसे पाकिस्तान ने अपने
उच्चायुक्त को वापस बुलाकर उन्हें वापस नहीं भेजा और व्यापारिक-संबंध भी तोड़ लिए.
जबतक इन रिश्तों की वापसी नहीं होगी, तबतक ग्रंथि बनी रहेगी. इसमें पहल पाकिस्तान
को ही करनी होगी. यह पहला कदम होगा, निर्णायक नहीं.
भारत को सीमा पार से
हो रही आतंकी गतिविधियों को लेकर शिकायत है, जो रुकी नहीं हैं, बल्कि हाल में बढ़ी
हैं. खबरें आती हैं कि पाकिस्तान की ओर से संवाद की पहल की जा रही है. फौरन उस बात
का खंडन भी आ जाता है. यह यू-टर्न नीति बार-बार देखने को मिली है.
बेशक रिश्ते जिस सीमा
तक संभव है, उन्हें सामान्य बनाना चाहिए. यह बात दोनों देशों के आर्थिक, सामाजिक,
राजनीतिक और सांस्कृतिक स्वास्थ्य के लिए बेहतर है. केवल क्रिकेट के मैच खेल लेने
भर से सब कुछ ठीक नहीं हो जाएगा. हाँ, ऐसे मैच रिश्तों में सुधार का संकेत जरूर देंगे.
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