ममता बनर्जी के नेतृत्व में तृणमूल कांग्रेस ने
पिछले कुछ वर्षों में जो गतिविधियाँ की उन्हें देखते हुए उनकी राष्ट्रीय
महत्वाकांक्षाओं की भनक लगती थी, पर पिछले एक हफ्ते की गतिविधियों से लगता है
कि वे अब खुलकर इस मैदान में हैं और भारतीय जनता पार्टी के विकल्प के रूप में
कांग्रेस के बजाय खुद को पेश करने जा रही हैं। यह बात उनकी पार्टी के हित में जरूर
है, पर कांग्रेस के लिए चिंता का विषय है।
जानकारों का यह भी कहना
है कि ममता बनर्जी ने कांग्रेस के नेताओं को तोड़ा है, कुछ समय बाद बीजेपी के भी
कई क्षुब्ध नेताओं को भी तृणमूल कांग्रेस में शामिल होने का रास्ता नजर आ सकता है।
यशवंत सिन्हा पहले ही शामिल हो चुके हैं, जबकि तृणमूल कांग्रेस कई अन्य 'क्षुब्ध' बीजेपी नेताओं से
संपर्क बना रही है. हाल में ममता बनर्जी ने अपने दिल्ली दौरे के दौरान भाजपा नेता सुब्रमण्यम
स्वामी से मुलाकात की। टीएमसी सांसद अभिषेक बनर्जी के दिल्ली आवास पर हुई बैठक
के बाद राजनीतिक गलियारों में अटकलें लगाई जाने लगी कि भाजपा नेता स्वामी टीएमसी
में शामिल होने वाले हैं। अलबत्ता स्वामी ने इन आरोपों को नकार दिया।
ममता बनर्जी ने भविष्य में मुम्बई यात्रा का
कार्यक्रम भी बनाया है। वहाँ शरद पवार और शिवसेना के उद्धव ठाकरे के साथ वे एक लंबे
अर्से से संपर्क में हैं। शरद पवार वर्षों से यह बात कह रहे हैं कि कांग्रेस से
टूटी पार्टियों को एकसाथ आना चाहिए। तृणमूल कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस
पार्टी के अलावा आंध्र प्रदेश की वाईएसआर कांग्रेस भी ऐसी ही एक पार्टी है।
मेघालय में बगावत
हाल में अपने दो दिन के दौरे पर आई ममता बनर्जी ने सोनिया गांधी से मुलाकात नहीं की, तो पत्रकारों ने उनसे पूछा कि ऐसा क्यों हुआ। उन्होंने जो जवाब दिया, उससे लगता है कि वे कांग्रेस से टकराव मोल लेने को तैयार हैं। उन्होंने कहा कि सोनिया गांधी से मुलाकात करने की कोई सांविधानिक जिम्मेदारी नहीं है। मुलाकात न होने की तुलना में दोनों के रिश्तों में कड़वाहट के ज्यादा बड़े कारण मेघालय में पैदा हुए हैं, जहाँ पूर्व मुख्यमंत्री मुकुल संगमा समेत कांग्रेस पार्टी के 17 में 12 विधायक तृणमूल कांग्रेस में शामिल हो गए हैं।
मेघालय में तृणमूल कांग्रेस अब मुख्य विरोधी दल
बन गई है। कांग्रेस के क्षरण के साथ ही विरोधी-एकता को लेकर अब नए सिरे से सोचने
की जरूरत पैदा हो सकती है। मेघालय में
कुल 17
में से 12 विधायकों का पार्टी छोड़कर जाना कांग्रेस की दयनीयता को उजागर करता
है। ऐसा ही सितंबर 2016 में अरुणाचल प्रदेश में हुआ था, जहाँ मुख्यमंत्री पेमा खांडू
समेत 44 में से 43 विधायक कांग्रेस को छोड़कर बीजेपी में चले गए थे। बीजेपी
रातों-रात सत्तारूढ़ पार्टी बन गई और अब मेघालय में तृणमूल रातों-रात मुख्य विरोधी
दल बन गई है।
मुकुल संगमा पिछले
अगस्त से नाराज चल रहे थे। उनकी नाराजगी की वजह यह थी कि शिलांग के सांसद विनसेंट
पाला को राज्य का पार्टी अध्यक्ष बना दिया गया था। अक्तूबर में खबरें थीं कि संगमा
की कोलकाता में तृणमूल कांग्रेस के नेताओं से मुलाकात की थी। हालांकि संगमा ने इस
बात का खंडन किया था, पर हाईकमान ने उसी महीने संगमा समेत राज्य के सभी प्रमुख नेताओं
को दिल्ली बुलाया था। कांग्रेस चाहती थी कि राज्य में हो रहे तीन विधान सभा
उपचुनावों के पहले एकता का संदेश जाए। बहरहाल पार्टी तीनों सीटों पर हार गई। मीडिया
रिपोर्टों के अनुसार प्रशांत किशोर की टीम के सदस्य पिछले दो महीनों से शिलांग में
डेरा डाले हुए थे।
टीएमसी की
रणनीति
फिलहाल एक बात स्पष्ट
है कि टीएमसी हर सूबे से कांग्रेस के बड़े-बड़े सिपहसालारों को अपने साथ जोड़ रही
है, तो इसके पीछे कोई न कोई गणित है। इसके पीछे एक कारण यह भी है कि कांग्रेस के
भीतर बड़ी संख्या में ऐसे नेता हैं, जो पार्टी छोड़ना चाहते हैं, पर वे भारतीय
जनता पार्टी में नहीं जाना चाहते। ग्रुप-23 के सदस्य नाराज हैं। पर सवाल यह भी है कि वे कांग्रेस को छोड़ना ही
क्यों चाहेंगे? इस प्रश्न के उत्तर में तृणमूल के
विस्तार की संभावनाओं का एक जवाब है।
इन नेताओं को लगता है कि कांग्रेस अब उनके
करिअर को आगे ले जाने की स्थिति में नहीं है। संभव है भविष्य में बीजेपी से भी कुछ
क्षुब्ध नेता टूटें। वैबसाइट द
वायर ने तृणमूल के किसी बड़े नेता के हवाले से लिखा है कि टीएमसी
की निगाहें लालकृष्ण आडवाणी और कपिल सिब्बल जैसे नेताओं पर भी हैं। फिलहाल
पार्टी की यह ब्रैंडिंग एक्सरसाइज़ है, जिसमें लक्ष्य ममता बनर्जी को आक्रामक
राजनेता के रूप में स्थापित करने का है।
जिस तरह से तृणमूल ने
हाल में गैर-कांग्रेसी और कांग्रेसी नेताओं को अपनी पार्टी में शामिल और राष्ट्रीय
स्तर पर अपनी पार्टी का विस्तार किया है, उससे फौरी तौर पर संभव है कांग्रेस को
नुकसान हो, पर संभव यह भी है कि तृणमूल अब बीजेपी के बेहतर विकल्प के रूप में उभर
का आए। कुछ समय बाद पाँच राज्यों में विधानसभा के चुनाव होने हैं और तृणमूल
कांग्रेस के पास इन चुनावों में अपनी उपस्थिति दर्ज करा कर राष्ट्रीय स्तर पर अपने
पाँव पसारने का अच्छा मौका है। इस कोशिश की स्वाभाविक परिणति है कांग्रेस का कमजोर
होना।
नेतृत्व को
टक्कर
केवल पार्टी की ही बात
नहीं है। नेतृत्व के स्तर पर सवाल है कि यदि राहुल गांधी या गांधी परिवार का कोई
व्यक्ति नरेंद्र मोदी को परास्त करने की स्थिति में नहीं है, तब विरोधी दलों के
बीच से ऐसे किसी नेता को खोजने की जरूरत है, जो मोदी को टक्कर दे। ममता बनर्जी में
ऐसी संभावनाएं हैं या नहीं, यह देखने का समय भी अब है। ममता बनर्जी या किसी भी
दूसरे नेता के मन में भी ऐसी महत्वाकांक्षा हो सकती है और इसमें गलत कुछ नहीं है,
पर यह देखना जरूरी है कि बात व्यावहारिक है या नहीं।
हाल में तृणमूल
कांग्रेस ने अपने मुखपत्र ‘जागो बांग्ला’ में लिखा था कि वह देश भर में बीजेपी से
मुकाबला करने के लिए अपनी पार्टी का विस्तार करेगी। गोवा से लेकर दिल्ली-हरियाणा
यूपी में जिन नेताओं को टीएमसी अपने साथ जोड़ रही है उनमें सबसे ज्यादा नुकसान
कांग्रेस का ही हो रहा है। इनमें सुष्मिता देव, लुईज़िन्हो फलेरो और कमलापति
त्रिपाठी के पोते राजेशपति और ललितेशपति त्रिपाठी शामिल हैं। जो गैर-कांग्रेसी
टीएमसी में शामिल हुए हैं, उनमें कीर्ति आजाद और हरियाणा के अशोक तंवर हैं। जेडीयू
के पूर्व सांसद पवन वर्मा भी इस सूची में हैं।
गोवा और उत्तर प्रदेश
जैसे राज्यों में टीएमसी की उपस्थिति नहीं थी। अब वहाँ पार्टी ने अपनी उपस्थिति
बनाने की घोषणा कर दी है। पार्टी का दावा है कि आने वाले कुछ महीनों में वह
बिहार-उत्तर प्रदेश में कुछ और बड़े नेताओं को शामिल किया जाएगा। तृणमूल कांग्रेस जानती
है कि राष्ट्रीय स्तर पर मजबूत बनना है, तो सबसे पहले उत्तर
प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में अपनी स्थिति मजबूत करनी होगी।
पाँच साल पहले
पाँच साल पहले नवंबर
2016 में नोटबंदी के दो हफ्ते बाद राष्ट्रीय राजनीति में विपक्ष की भावी रणनीति भी
सामने आने लगी थी। इसमें सबसे ज्यादा तेजी दिखाई थी ममता बनर्जी ने, जिन्होंने जेडीयू, सपा, एनसीपी और आम आदमी पार्टी के साथ सम्पर्क करके फौरन ही आंदोलन
खड़ा करने की योजना बना ली। इसकी पहली झलक दिल्ली में दिखाई दी। उन्होंने जंतर-मंतर
में रैली की, जिसके बाद ममता बनर्जी का कद मोदी की बराबरी पर नजर आने लगा।
उस वक्त ज्यादा
महत्वपूर्ण था कांग्रेस का विपक्षी सीढ़ी पर एक पायदान नीचे चले जाना। नोटबंदी के
खिलाफ एक आंदोलन ममता ने खड़ा किया और दूसरा कांग्रेस ने। संगठनात्मक लिहाज से
ज्यादा ताकतवर होने के बावजूद कांग्रेस के आंदोलन में धार नजर नहीं आई। राहुल
गांधी उसके बाद मुलायम सिंह, मायावती और नीतीश
कुमार के बराबर के नेता भी नहीं रह गए थे। कांग्रेस ममता बनर्जी के निशाने पर तब
से है।
संगठनात्मक
कमजोरी
तृणमूल कांग्रेस भले
ही पूरे देश में अपने पैर पसारने की बात कर रही हो, लेकिन सच्चाई
यह है कि अभी तक वह केवल पश्चिम बंगाल से सटे राज्यों में ही कुछ हद तक अपना
प्रभाव बना सकी है। गोवा में भले ही उसने कुछ नेताओं को शामिल कराया है, पर वहाँ
संगठन अभी नहीं हैं। फिलहाल त्रिपुरा, असम और बिहार के
सीमांचल इलाके में पार्टी का प्रभाव है।
इस साल पश्चिम बंगाल
में तृणमूल कांग्रेस की जीत के बाद राजनीतिक तस्वीर तेज़ी से बदली है। बंगाल में
कांग्रेस और वाममोर्चे का सूपड़ा साफ होने से भी नई तस्वीर यह बनी है कि बीजेपी
विरोधी राजनीति कांग्रेस के बस की बात नहीं। हालांकि लोकसभा में कांग्रेस पार्टी
दूसरे नंबर की पार्टी है, पर भविष्य में उसकी स्थिति क्या होगी, कहना मुश्किल है। 2024
के चुनाव में अभी करीब दो साल से ज्यादा का समय है। अलबत्ता 2019 में हुए चुनाव के
आधार पर जीत का हिसाब थोड़ा बहुत लगाया जा सकता है।
कांग्रेस को
पीछे छोड़ेगी?
हाल में एक वैबसाइट ने
इस सिलसिले में कुछ
अनुमान लगाए हैं। लोकसभा चुनावों में टीएमसी का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन 2014 में
था, जब उसने पश्चिम बंगाल की 42 लोकसभा सीटों
में से 34 पर 39.8% वोट शेयर के साथ जीत हासिल की थी। 2021 के विधानसभा चुनावों
में टीएमसी का वोट शेयर 48.5% था। इसका मतलब यह है कि टीएमसी पश्चिम बंगाल से
लोकसभा की अपनी संख्या 2019 से काफी ऊपर ले जाने की उम्मीद कर रही होगी। यह आंकड़ा
शायद 2014 से भी बड़ा हो सकता है।
2019 के आम चुनावों
में कांग्रेस 52 लोकसभा सीटें जीतने में सफल रही. इनमें से 31 सिर्फ तीन राज्यों-
केरल (15) और पंजाब (8) और तमिलनाडु (8) से आए। 2021 के केरल चुनावों में कांग्रेस
का प्रदर्शन कई सवाल खड़े करता है. तमिलनाडु में, कांग्रेस की
किस्मत द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम के साथ सीट बँटवारे के फॉर्मूले पर निर्भर करेगी। पंजाब
में, कैप्टन अमरिंदर सिंह के बाहर होने के बाद अब
पार्टी को किसी न किसी स्तर पर बँटवारे का सामना करना पड़ेगा। असम, जहां कांग्रेस 2019 में तीन लोकसभा सीटें हासिल करने में
सफल रही। वहां भी रास्ते आसान नहीं होंगे।
संभव है कि लोकसभा में
टीएमसी को कांग्रेस से ज्यादा सीटें मिल जाएं, पर राष्ट्रीय स्तर पर मुख्य विरोधी
दल के रूप में उभरना भी आसान नहीं है। संकट की घड़ी में भी कांग्रेस की राष्ट्रीय-पैठ
टीएमसी से कहीं बड़ी है। इसे वोट शेयर के जरिए समझें। 2019 के आम चुनावों में, कांग्रेस का वोट शेयर 19.5% था। टीएमसी, जब उसने 2014
के आम चुनावों में अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन हासिल किया था, तो उनका राष्ट्रीय वोट शेयर सिर्फ 4.1% था। पर कांग्रेस
ने जहाँ पूरे देश में अपने प्रत्याशी उतारे थे, वहाँ टीएमसी मुख्यतः बंगाल और आसपास
के एकाध राज्यों तक सीमित थी।
क्षेत्रीय
दलों की भूमिका
भाजपा को 2024 में
लगातार तीसरी बार चुनाव जीतने से रोकने की जिम्मेदारी मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड में कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों पर है।
2019 में बीजेपी की 303 लोकसभा सीटों में से 115 उन राज्यों से आईं, जहां सीधा मुकाबला कांग्रेस और बीजेपी के बीच था। अन्य
90 उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड राज्यों से आए. जबकि इन
राज्यों में टीएमसी ने अभी अपने पांव नहीं पसारे हैं। यहाँ आने के लिए उसे स्थानीय
दलों, जैसे समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल के साथ गठबंधन बनाना होगा। पर
उसके पहले तृणमूल को इन राज्यों में संगठनात्मक उपस्थिति बनानी होगी।
इस विषय पर बीबीसी
हिंदी की वैबसाइट पर सलमान
रावी के एक आलेख में सवाल उठाया गया है कि ममता बनर्जी की तृणमूल क्या
कांग्रेस का स्थान ले पाएगी? इस आलेख में कहा गया
है कि कांग्रेस पार्टी ने ही अपने नेताओं के टीएमसी में जाने को लेकर ममता बनर्जी
पर खुलकर निशाना साधा है। पार्टी सांसद अधीर रंजन चौधरी ने खुलकर ममता बनर्जी पर 'बीजेपी से साठ-गाँठ' का आरोप लगाया।
चौधरी ने 'आश्चर्य' व्यक्त करते
हुए यह भी कहा है कि पहले ममता बनर्जी इस बात पर राज़ी थीं कि सभी विपक्षी दल, कांग्रेस समेत, आपस में एकजुट होकर
आगामी आम चुनावों में बीजेपी को टक्कर देने का काम करेंगे। उनका आरोप है कि ममता
बनर्जी के रुख़ में तबसे बदलाव आया जबसे उनके भतीजे और पार्टी महासचिव अभिषेक
बनर्जी को ईडी ने नोटिस भेजा।
मोदी ने भी
यही किया था
कोलकाता स्थित वरिष्ठ
पत्रकार और विश्लेषक निर्माल्य मुखर्जी का मानना है कि ममता बनर्जी अभी जो कर रही
हैं वैसा ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी गुजरात का मुख्यमंत्री रहते हुए किया
था। लगातार तीन बार मुख्यमंत्री बनने के बाद मोदी की भी महत्वाकांक्षा जागी और
उन्होंने अपना रुख़ क्षेत्रीय राजनीति से राष्ट्रीय राजनीति की तरफ़ कर किया। निर्माल्य
मुखर्जी कहते हैं,
"ममता बनर्जी पर भी
प्रचंड जीत की ख़ुमारी सवार है। इसलिए अब वे खुद को पश्चिम बंगाल की राजनीति तक
सीमित नहीं रखना चाहती हैं। पश्चिम बंगाल में जो उन्हें करना था वह उन्होंने हासिल
कर लिया है।"
निर्माल्य मुखर्जी
कहते हैं कि ऐसा पहली बार नहीं है जब तृणमूल कांग्रेस पश्चिम बंगाल के बाहर अपना
राजनीतिक विस्तार करने का प्रयास कर रही है। वे 2012 के उत्तर प्रदेश के विधानसभा
चुनावों की चर्चा करते हुए कहते हैं कि उस समय मथुरा ज़िले की माँट विधानसभा सीट
से तृणमूल कांग्रेस के प्रत्याशी श्याम सुंदर शर्मा की जीत हुई थी। हालाँकि, बाद में उन्होंने बहुजन समाज पार्टी का दामन थाम लिया। निर्माल्य
मुखर्जी का अनुमान है कि 2024 में होने वाले आम चुनावों में तृणमूल कांग्रेस दस
राज्यों तक अपना प्रभाव फैला लेगी। उनका कहना है कि टीएमसी अभी तो बीजेपी को
चुनौती नहीं दे रही है क्योंकि उसका लक्ष्य अभी मुख्य विपक्षी पार्टी का स्थान
हासिल करना है जो अभी कांग्रेस मानी जाती है।
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