।।दो।।
इंडियन इंडिपेंडेंस एक्ट 1947 के तहत 15 अगस्त 1947 को जम्मू कश्मीर पर भी
अंग्रेज सरकार का आधिपत्य (सुज़रेंटी) समाप्त हो गया। महाराजा के मन में संशय था
कि यदि हम भारत में शामिल हुए, तो राज्य की बहुसंख्यक मुस्लिम आबादी को यह बात
पसंद नहीं आएगी और यदि पाकिस्तान में विलय करेंगे, तो हिंदू और सिख नागरिकों को
दिक्कत होगी। 11 अगस्त को उन्होंने अपने प्रधानमंत्री रामचंद्र काक को बर्खास्त कर
दिया। काक ने स्वतंत्र रहने का सुझाव दिया था। इससे पर्यवेक्षकों को लगा कि
महाराजा का झुकाव भारत की ओर है।
पाकिस्तान ने कश्मीर के महाराजा को कई तरह से मनाने का प्रयास किया कि वे पकिस्तान में विलय को स्वीकार कर लें। स्वतंत्रता के ठीक पहले जुलाई 1947 में मोहम्मद अली जिन्ना ने महाराजा को पत्र लिखकर कहा कि उन्हें हर तरह की सुविधा दी जाएगी। जिन्ना की मुस्लिम लीग ने रामचंद्र काक से भी सम्पर्क बनाया था। बहरहाल महाराजा ने भारत और पाकिस्तान के साथ ‘स्टैंडस्टिल समझौते’ की पेशकश की। यानी यथास्थिति बनी रहे। भारत ने इस पेशकश पर कोई फैसला नहीं किया, पर पाकिस्तान ने महाराजा की सरकार के साथ ‘स्टैंडस्टिल समझौता’ कर लिया। पर उसने समझौते का अनुपालन किया नहीं, बल्कि आगे जाकर कश्मीर की नाकेबंदी कर दी और वहाँ पाकिस्तान की ओर से जाने वाली रसद की आपूर्ति रोक दी।
इस सिलसिले में कुछ और घटनाएं हुईं, जिनपर ध्यान देने की जरूरत है। 1.पुंछ में
मुस्लिम आबादी ने बगावत की। 2.गिलगित-बल्तिस्तान में महाराजा की सेना ने बगावत की।
सेना में ज्यादातर सैनिक मुसलमान थे और कमांडर अंग्रेज। 3.जम्मू में साम्प्रदायिक
हिंसा हुई और 4.कश्मीर के अलावा हैदराबाद और जूनागढ़ पर पाकिस्तान की नजरें थी।
पुंछ में बगावत
पुंछ में बहुसंख्यक मुस्लिम आबादी ने महाराजा के खिलाफ बगावत कर दी। इस बगावत को मुस्लिम लीग ने हवा दी। उधर इन बागियों को पाकिस्तानी पंजाब से सहायता और कुमुक मिल रही थी। अनेक स्रोतों से इस बात की पुष्टि होती है कि पाकिस्तान ने अगस्त-सितम्बर के महीने से ही कश्मीर पर फौजी कार्रवाई का कार्यक्रम बना लिया था। 12 सितम्बर को प्रधानमंत्री लियाकत अली खान ने कर्नल अकबर खान और सरदार शौकत हयात खान के प्रस्तावों के आधार पर एक योजना को अपनी मंजूरी दे दी। इसके तहत कश्मीर के पश्चिमी जिलों में बगावत की स्थितियाँ पैदा करनी थीं और फिर उसके साथ ही पश्तून कबायलियों की सहायता से कश्मीर पर हमला बोलना था।
इस सिलसिले में मुस्लिम लीग पहले से पश्तून
कबायलियों के बीच काम कर रही थी। कश्मीर पर हमला ‘आज़ाद फौज’ नाम से संगठित सेना ने
किया, जो वस्तुतः पाकिस्तानी सेना द्वारा प्रशिक्षित और शस्त्र-सज्जित सेना थी। पाकिस्तानी
सेना के अफसरों को आधिकारिक रूप से छुट्टी पर भेज दिया गया था, पर वे वास्तव में
कश्मीर में ड्यूटी पर लगा दिए गए थे।
अक्तूबर 1947 में पाकिस्तान सेना की छत्रछाया में कबायली हमलों के बाद 26 अक्तूबर को
महाराजा हरि सिंह ने विलय पत्र पर दस्तखत कर दिए और उसके अगले दिन भारत के गवर्नर
जनरल ने उसे मंजूर भी कर लिया। भारतीय सेना कश्मीर भेजी गई और करीब एक साल तक
कश्मीर की लड़ाई चली। भारतीय सेना के हस्तक्षेप के बाद नवम्बर में पाकिस्तानी सेना
भी आधिकारिक रूप से बाकायदा इस लड़ाई में शामिल हो गई।
पाकिस्तानी सैनिकों और कबायलियों ने 7 नवम्बर को राजौरी पर कब्जा किया और वहाँ जबर्दस्त नर-संहार किया। 30,000 से ज्यादा हिंदू और सिख वहाँ मारे गए। यह नरसंहार तभी रुका, जब अप्रैल 1948 में भारतीय सेना राजौरी पहुँची। 25 नवम्बर को मीरपुर पर हमला हुआ। यहाँ करीब 20,000 हिंदुओं और सिखों की हत्या हुई।
जनमतं-संग्रह का प्रस्ताव जिन्ना ने ठुकराय
इधर कश्मीर की लड़ाई चल ही रही थी कि लॉर्ड माउंटबेटन 1 नवम्बर 1947 को लाहौर गए, जहाँ उन्होंने मोहम्मद अली जिन्ना से मुलाकात की। उन्होंने एक प्रस्ताव उनके सामने रखा कि उन सभी रियासतों में जिनके शासनाध्यक्षों ने दोनों में से किसी भी देश में विलय में दिलचस्पी नहीं ली है, स्वतंत्र जनमत-संग्रह कराया जाए और वहाँ की जनता की राय से फैसला कर लिया जाए। इसका मतलब था कि हैदराबाद, जूनागढ़ और कश्मीर तीनों इलाकों में जनमत-संग्रह हो। जिन्ना ने इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया। वस्तुतः वे इन तीनों राज्यों को पाकिस्तान में शामिल कराना चाहते थे।
जिन्ना ने कहा कि भारत ने कश्मीर का विलय धांधली और बंदूक
के जोर पर कराया है। जनमत-संग्रह की कोई जरूरत नहीं है। आबादी के हिसाब से
रियासतों का विलय भारत या पाकिस्तान में कर दिया जाए। उन्हें डर था कि भारतीय सेना
और शेख अब्दुल्ला के रहते कश्मीरी पाकिस्तान के पक्ष में वोट नहीं देंगे। जब
माउंटबेटन ने कहा कि संरा के माध्यम से जनमत-संग्रह करा लें, तब भी जिन्ना को
अंदेशा था कि पाकिस्तान हार जाएगा। वे चाहते थे कि एक तो शेख अब्दुल्ला को हटाया
जाए और जनमत-संग्रह हो तो दोनों गवर्नर जनरल कराएं। पर यह सम्भव नहीं था, क्योंकि
माउंटबेटन की सांविधानिक स्थिति बदल चुकी थी। इसके बाद दिसम्बर में नेहरू और
लियाकत अली की मुलाकात हुई। नेहरू ने कहा कि हम इस मामले को संरा चार्टर के अनुच्छेद
35 के तहत संरा में ले जाएंगे, जिसके तहत सदस्य देश शांति बनाए रखने के लिए किसी
मामले को सुरक्षा परिषद में ले जाते हैं। भारत इस मामले
को सुरक्षा परिषद में संरा चार्टर के अनुच्छेद 35 के तहत ले गया था। जो प्रस्ताव
पास हुए थे, उनसे भारत की सहमति थी। वे बाध्यकारी भी नहीं थे।
अलबत्ता दो बातों पर आज भी विचार करने की जरूरत है कि तब समाधान क्यों नहीं हुआ और
इस मामले में सुरक्षा परिषद की भूमिका क्या रही?
प्रस्ताव के बाद
प्रस्ताव
सन 1948 से 1971 तक सुरक्षा परिषद
ने 18 प्रस्ताव भारत और पाकिस्तान के रिश्तों को लेकर पास किए हैं। इनमें प्रस्ताव
संख्या 303 और 307 सन 1971 के युद्ध के संदर्भ में पास किए गए थे। उससे पहले पाँच
प्रस्ताव 209, 210, 211, 214 और 215 सन 1965 के युद्ध के संदर्भ में थे। प्रस्ताव 123 और 126 सन
1956-57 के हैं, जो इस इलाके में शांति बनाए रखने के
प्रयास से जुड़े थे। वस्तुतः प्रस्ताव 38, 39 और 47 ही
सबसे महत्वपूर्ण हैं, जिनमें सबसे महत्वपूर्ण है प्रस्ताव 47 जिसमें जनमत
संग्रह की व्यवस्था बताई गई थी।
प्रस्ताव 47
के तहत जनमत संग्रह के पहले तीन चरणों
की एक व्यवस्था कायम होनी थी। इसकी शुरुआत पाक अधिकृत क्षेत्र से पाकिस्तानी सेना
और कबायलियों की वापसी से होनी थी। पाकिस्तान ने ही उसे स्वीकार नहीं किया, तो उसे लागू कैसे किया जाता। पाकिस्तान बुनियादी
तौर पर जनमत संग्रह के पक्ष में था भी नहीं। नवम्बर 1947 में भारत के गवर्नर जनरल
माउंटबेटन पाकिस्तान गए थे और उन्होंने लाहौर में मोहम्मद अली जिन्ना से मुलाकात
करके उनसे पेशकश की थी कि कश्मीर, हैदराबाद और जूनागढ़
तीनों रियासतों में जनमत संग्रह के माध्यम से फैसला कर लिया जाए कि किसको किसके
साथ रहना है। जिन्ना ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया था। भारतीय राजनेता उस वक्त
आश्वस्त थे कि उन्हें आसानी से जनता का समर्थन मिलेगा।
भारत इस मामले को जब संरा सुरक्षा
परिषद में ले गया, तब उसका कहना था कि कश्मीर के महाराजा ने भारत
में विलय के प्रस्ताव पर दस्तखत किए हैं, इसलिए कश्मीर अब
हमारी सम्प्रभुता का हिस्सा है जिसपर पाकिस्तान ने हमला किया है। उसे वहाँ से वापस
बुलाया जाए। पाकिस्तान ने अपने जवाब में कहा कि हम कबायलियों की कोई मदद नहीं कर
रहे हैं। उनका पाकिस्तान से कोई सीधा रिश्ता नहीं है। इसके साथ ही पाकिस्तान ने
कश्मीर के महाराजा के विलय पत्र को ‘धोखाधड़ी और हिंसा के सहारे’ हासिल किया गया बताया। उसने यह भी कहा कि
महाराजा हरि सिंह और भारत सरकार के बीच हुआ समझौता गैर-कानूनी है। इस सिलसिले में
कोई भी फैसला कश्मीरी जनता की सहमति से ही होना चाहिए।
जनमत संग्रह का झमेला
भारत और पाकिस्तान के
आवेदन-प्रतिवेदन के बाद सुरक्षा परिषद ने संरा चार्टर के अनुच्छेद 34 के आधार पर
इस मामले की जाँच करने का फैसला किया और फिर प्रस्ताव 38 और 39 पास किए। 17 जनवरी 1948 का प्रस्ताव 38 सामान्य
प्रस्ताव था, जिसमें दोनों पक्षों से स्थिति को बिगड़ने
से रोकने का अनुरोध किया गया था। इसके बाद 20 जनवरी को प्रस्ताव 39 पास किया
गया, जिसमें भारत और पाकिस्तान के लिए संरा आयोग (यूएनसीआईपी) का गठन किया गया, जिसे दो बातों की जाँच करने
की जिम्मेदारी दी गई। 1.इस समस्या के उत्पन्न होने के पीछे कारण क्या हैं और
2.हालात को सुधारने के लिए किसी प्रकार की मध्यस्थता करना और इस सिलसिले में हुई
प्रगति की जानकारी सुप को देना।
सुरक्षा परिषद का यह आयोग इस
इलाके में जाकर अध्ययन करता उसके पहले ही सुप ने 21 अप्रेल 1948 को प्रस्ताव 47 पास कर
दिया। यही वह प्रस्ताव है, जिसका कश्मीर समस्या के स्थायी
समाधान की दिशा में बार-बार उल्लेख किया जाता है। इसमें दो काम मुख्य रूप से होने
थे। 1.क्षेत्र का विसैन्यीकरण और 2.जनमत संग्रह। इसमें पाकिस्तान से कहा गया था कि
वह इस क्षेत्र से कबायलियों और अन्य पाकिस्तानी नागरिकों को वापस बुलाए। इसके बाद
भारत की जिम्मेदारी थी कि वह कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए आवश्यक न्यूनतम
उपस्थिति को बनाए रखते हुए अपनी शेष सेना को वापस बुलाए। इस तरह विसैन्यीकरण के
बाद संरा द्वारा नियुक्त जनमत संग्रह प्रशासक के निर्देशन में स्वतंत्र और पक्षपात
रहित जनमत संग्रह की प्रक्रिया होनी थी।
विलय पत्र का
जिक्र भी नहीं
ध्यान देने वाली बात है कि सुप के
प्रस्ताव में महाराजा हरि सिंह के विलय पत्र का की जिक्र नहीं था। मई 1948 में जब
संरा आयोग जाँच के लिए भारतीय भूखंड में आया, तबतक पाकिस्तानी
नियमित सेना कश्मीर में प्रवेश कर चुकी थी। यह सेना कश्मीर पर हमलावर उन कबायलियों
की सहायता कर रही थी, जो भारतीय सेना से लड़ रहे थे।
वस्तुतः असैनिकों के वेश में भी पाकिस्तानी सैनिक ही थे। स्वतंत्रता के एक हफ्ते
बाद ही 20 अगस्त को ‘ऑपरेशन
गुलमर्ग’ बना
लिया गया था, जिसमें एक-एक हजार पठानों के 20 लश्कर बनाने की
योजना थी। इन्हें बन्नू, वाना, पेशावर,
कोहाट और नौशेरा के ब्रिगेड मुख्यालयों में ट्रेनिंग दी गई थी।
इस बीच 3 जून को सुप ने प्रस्ताव 51 पास करके
आयोग से जल्द से जल्द कश्मीर जाने का आग्रह किया। संरा प्रस्ताव 47 में ‘पाकिस्तानी नागरिकों’ को
हटाने की बात थी, जबकि अब तो औपचारिक रूप से सेना भी आ गई थी।
जुलाई में जब संरा आयोग कश्मीर में आया, तो वहाँ
पाकिस्तानी सेना को देखकर उसे विस्मय हुआ। इसके बाद 13 अगस्त 1948 को संरा आयोग के पहले प्रस्ताव में इस बात का जिक्र है। इसमें कहा गया है कि पाकिस्तानी सेना की
उपस्थिति के कारण मौलिक स्थितियों में ‘मैटीरियल चेंज’ आ गया है।
इसके बावजूद इस प्रस्ताव में या इसके पहले के प्रस्तावों में ‘विलय पत्र’ का कोई जिक्र नहीं है। यानी एक तरफ
पाकिस्तानी सेना की उपस्थिति की अनदेखी हुई वहीं ‘विलय पत्र’ का जिक्र भी नहीं हुआ। विलय पत्र को नामंजूर
भी नहीं किया।
वैश्विक राजनीति
यदि विलय पत्र का जिक्र होता, तो पाकिस्तानी सेना की उपस्थिति को ‘भारतीय क्षेत्र पर आक्रमण’ माना जाता। पाकिस्तान को ‘विलय पत्र’ भी स्वीकार नहीं था, और महाराजा की संप्रभुता को भी उसने अस्वीकार कर दिया था, हालांकि महाराजा के साथ उसने ‘स्टैंडस्टिल समझौता’ किया था। पाकिस्तान का कहना था कि आजाद कश्मीर आंदोलन के कारण महाराजा
का शासन खत्म हो गया था। इतना होने के बावजूद संरा आयोग ने पाकिस्तानी सेना की
उपस्थिति की भर्त्सना नहीं की। संरा की मध्यस्थता में भारत और पाकिस्तान को एक
पलड़े पर रखा जाने लगा। कश्मीर के विलय की वैधानिकता और नैतिकता के सवाल ही नहीं
उठे।
विशेषज्ञों का एक वर्ग मानता है
कि संरा सुरक्षा परिषद की राजनीतिक भूमिका के पीछे सबसे बड़ा हाथ ब्रिटेन का था, जो सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य है। स्वतंत्रता
के साथ ही ब्रिटेन को भारत की भावी भूमिकाओं को लेकर चिंता थी। भारत को आजाद करने
के बावजूद उसकी दिलचस्पी इस इलाके में थी। ब्रिटेन कश्मीर को अपनी भावी भूमिका के
चश्मे से देख रहा था और उसने अमेरिकी नीतियों को भी प्रभावित किया था। तमाम मामलों
में उनकी संयुक्त रणनीति काम करती थी। यह नजरिया केवल कश्मीर पर ही लागू नहीं
होता। इसे ग्रीस (1947) फलस्तीन (1948), कोरिया (1950),
इंडोनेशिया (1949) और वियतनाम (1954) में भी देखा जा सकता है।
पाकिस्तानी
दाँव-पेच
संरा प्रस्तावों की विफलता और
उसके पीछे की राजनीति के अलावा पाकिस्तान ने संरा प्रस्तावों को मानने से इनकार
करना शुरू कर दिया था। इस प्रस्ताव के बाद पाकिस्तान ने एक तरफ यह कहा कि जनमत
संग्रह के बारे में विस्तृत जानकारी उपलब्ध नहीं है। दूसरे उसने बड़ी बात यह कही
कि जब सेना की वापसी हो तो भारतीय सेना की भी साथ-साथ वापसी हो और पूरी वापसी हो।
अब संरा का सारा ध्यान युद्ध रोकने पर चला गया और अंततः 1 जनवरी 1949 को युद्ध
विराम समझौता हो गया। इससे एक प्रकार की सीमा बन गई, जिसे सन 1972
के शिमला समझौते में युद्ध विराम रेखा के बजाय नियंत्रण रेखा कहा गया। व्यावहारिक
रूप से संरा ने जनवरी 1949 में ही पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर को औपचारिक रूप से
स्वीकार कर लिया, हालांकि कानूनन पाकिस्तान का कोई दावा
बनता ही नहीं था। इसके बाद पाकिस्तान ने जनमत संग्रह को अपना हथियार बनाना शुरू
किया।
सुरक्षा परिषद ने संरा आयोग के
बजाय एक सदस्यीय मध्यस्थ की नियुक्ति करनी शुरू की। 14 मार्च 1950 के प्रस्ताव 80 से इसकी
शुरुआत हुई। इसके पहले 17 दिसंबर 1949 को सुरक्षा परिषद ने अपने अध्यक्ष जनरल
मैकनॉटन से मध्यस्थता का अनुरोध किया। उन्होंने फरवरी 1950 में जो प्रस्ताव दिया
था, उसमें दोनों देशों की सेनाओं की वापसी का प्रस्ताव था,
अलबत्ता शांति-व्यवस्था बनाए रखने के लिए न्यूनतम भारतीय सेना
रखने की सलाह थी। भारत ने इस पेशकश को स्वीकार नहीं किया, क्योंकि इसमें दोनों पक्षों को बराबरी पर रखा गया था। अंततः 1950 में
संरा आयोग भंग हो गया। इसके बाद व्यक्तिगत मध्यस्थता के कई दौर हुए, पर सफलता नहीं मिली। सन 1957 के प्रस्ताव 126 के बाद
समस्या के स्थायी समाधान की बातें भी खत्म हो गईं और 1965 की लड़ाई के बाद प्रस्ताव 210 और 211 से ध्वनि निकलती है कि किसी और से मध्यस्थता करा लो।
कश्मीर का ‘काला दिन’
भारत सरकार ने 2020 के साल से 22 अक्तूबर को
कश्मीर का ‘काला दिन’ मनाने की घोषणा की है। 22
अक्तूबर 1947 को पाकिस्तान ने जम्मू-कश्मीर पर हमला बोला था।
पाकिस्तानी लुटेरों ने कश्मीर में भारी लूटमार मचाई थी, जिसमें हजारों लोग मारे गए
थे। बारामूला के समृद्ध शहर को कबायलियों, रज़ाकारों ने कई दिन तक घेरकर रखा था।
इस हमले से घबराकर कश्मीर के महाराजा हरि सिंह ने 26 अक्तूबर 1947 को भारत के साथ
विलय पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए थे, जिसके बाद भारत ने अपने सेना कश्मीर भेजी थी।
इस बात के प्रमाण हैं कि स्वतंत्रता के फौरन बाद पाकिस्तान ने कश्मीर और
बलोचिस्तान पर फौजी कार्रवाई करके उनपर कब्जे की योजना बनाई थी।
पाकिस्तान अथवा तथाकथित आजाद कश्मीर सरकार, जो पाकिस्तान की प्रत्यक्ष सहायता तथा अपेक्षा से स्थापित हुई, आक्रामक के रूप में पश्चिमी तथा उत्तर पश्चिमी सीमावर्ती
क्षेत्रों में अधिकृत हुए किए हैं। भारत ने यह मामला 1 जनवरी, 1948 को ही संरा चार्टर के अनुच्छेद 35 के तहत उठाया।
पाकिस्तान में कश्मीर राष्ट्रीय राजनीति का
महत्वपूर्ण मसला है। पाकिस्तान सरकार हर साल 5 फरवरी को कश्मीर एकजुटता दिवस मनाती
है। यह चलन 2004 से शुरू हुआ है। उस दिन देशभर में छुट्टी रहती है। ज़ाहिर है कि
इसका उद्देश्य जनता के मन में लगातार कश्मीर के सवाल को सुलगाए रखना है। अब भारत
सरकार ने ‘काला दिन’ मनाने की घोषणा करके एक तरह से
जवाबी कार्रवाई की है।
पाकिस्तानी सेना के पूर्व मेजर जनरल अकबर खान की
पुस्तक ‘रेडर्स इन कश्मीर’ का पुनर्प्रकाशन
भी किया जा रहा है। इस किताब में पाकिस्तानी हमले का दस्तावेजी विवरण है और यह किताब
एक पाकिस्तानी जनरल ने लिखी है। भारत सरकार कश्मीर के मसले पर भारतीय जनता के बीच
जानकारियाँ बढ़ानी चाहती है साथ ही पाकिस्तानी प्रचार तंत्र का जवाब भी देना चाहती
है।
बेहतरीन आलेख। कश्मीर से जुड़ी कई भ्रांतियाँ अभी भी भारतीय जनमानस में हैं। रैडर्स इन कश्मीर पढ़ने की कोशिश रहेगी। मेरी एक गुजारिश है आशा है आप अन्यथा नहीं लेंगे। ऐतिहासिक घटनाओं पर लिखे लेखों में जानकारियों के स्रोतों का जिक्र हो और साथ में आखिर में उस विषय से जुड़ीं किताबें या अन्य स्रोतों का जिक्र हो तो बेहतर रहेगा। पाठक को आगे की जानकारी हासिल करने के लिये एक दिशा मिल जाएगी। आभार।
ReplyDeleteइस आलेख में मैंने काफी बातों के लिंक दिए हैं। कश्मीर पर संरा सुरक्षा परिषद के प्रस्तावों के लिंक हैं, जहाँ आप उस प्रस्ताव को पढ़ सकते हैं। भविष्य में मैं लिंक के अलावा पुस्तक संदर्भ भी दूंगा। वस्तुतः मैंने अब इतने ज्यादा संदर्भ अपने पास जमा कर लिए हैं कि उनकी सूची बनाने पर एक किताब बन जाएगी।
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