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भारत-पाकिस्तान के समझौता-प्रयासों की पृष्ठभूमि पर नजर डालने की जरूरत है। कश्मीर
के विवाद को लेकर हमें 1947 में वापस जाना पड़ेगा, पर कुछ बातें शिमला समझौते से
भी समझी जा सकती हैं। इन बातों के लिए कई लेख लिखने होंगे। पर सबसे पहले मैं चार-सूत्री
समझौते की पेशकश और फिर उसके खटाई में पड़ जाने की पृष्ठभूमि पर कुछ लिखूँगा।
पाकिस्तान के पूर्व विदेशमंत्री खुर्शीद महमूद कसूरी ने अपनी किताब ‘नीदर ए
हॉक नॉर ए डव’ में लिखा है कि परवेज़ मुशर्रफ और मनमोहन सिंह के कार्यकाल में
दोनों देशों के बीच कश्मीर पर चार-सूत्री समझौता होने जा रहा था, जिससे इस समस्या
का स्थायी समाधान हो जाता। इस समझौते की पृष्ठभूमि अटल बिहारी वाजपेयी और परवेज़
मुशर्रफ के आगरा शिखर सम्मेलन में ही तैयार हो गई थी। कहा तो यह भी जाता है कि
आगरा में ही दस्तखत हो जाते, पर वह समझौता हुआ नहीं।
बताया जाता है कि मई 2014 में जब नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री पद का कार्यभार संभाला था, तब मनमोहन सिंह ने एक फाइल उन्हें सौंपी थी, जिसमें उस चार-सूत्री समझौते से जुड़े विवरण थे। पाकिस्तानी अखबार डॉन ने हाल में कसूरी का लिखा इस आशय का एक लेख भी प्रकाशित किया है। कसूरी के अनुसार इस चार-सूत्री समझौते की पेशकश की थी। इस समझौते के 11 या 12 महत्वपूर्ण कारक थे, जिनकी शुरुआत कश्मीर के प्रमुख शहरों के विसैन्यीकरण और नियंत्रण रेखा पर न्यूनतम सैनिक उपस्थिति से होती।
कसूरी के अनुसार मुशर्रफ की योजना के अनुसार दोनों देशों की आपसी सहमति से सेनाओं
की वापसी के बाद भारत और पाकिस्तान प्रशासित ‘कश्मीर की दोनों इकाइयों’ को परिभाषित किया
जाता, जहाँ की सरकारों के अधीन एक से ज्यादा इलाके होते। इसका तीसरा बिन्दु था,
दोनों इकाइयों को अधिकतम विधायी, कार्यपालिका और न्यायपालिका से जुड़ी शक्तियाँ
प्रदान की जातीं। पाकिस्तान कश्मीरियों को आत्म-निर्णय का अधिकार देने का पक्षधर
रहा है, पर इस प्रस्ताव के तहत मुशर्रफ ने अधिकतम स्वायत्तता की बात कही थी। इसका
अगला सूत्र था एक ‘संयुक्त मिकैनिज्म’ की स्थापना।
इसका मतलब था कि दोनों इकाइयों की ओर से एक निश्चित संख्या में जन-प्रतिनिधियों
का मनोनयन करके इस ‘संयुक्त मिकैनिज्म’ की स्थापना की जाए, जो
आपसी व्यापार तथा दोनों इकाइयों के बीच आवागमन के काम को देखे। इसमें इंफ्रास्ट्रक्चर-विकास,
जल-विद्युत तथा पानी के इस्तेमाल से जुड़े मसले शामिल थे। मुशर्रफ को यकीन था कि
इस व्यवस्था में कश्मीर के ही जन-प्रतिनिधि होते, इसलिए पाकिस्तानी जनता को समझाने
में आसानी होती।
इस समझौते में दोनों तरफ डीडीआर (डीरेडिकलाइजेशन, डिसइंगेजमेंट और
रिहैबिलिटेशन) के मार्फत उग्रवाद की समाप्ति की आशा थी। दीर्घकालीन शांति के लिए
अलगाववादियों और उग्रवादियों को इस प्रक्रिया में शामिल किया जाता। इसका अगला चरण
होता स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव, जिसे कवर करने के लिए अंतरराष्ट्रीय
पर्यवेक्षकों और मीडिया को बुलाया जाता। इस प्रक्रिया के पर्यवेक्षण की व्यवस्था
भी की जाती, ताकि उसे लागू करने में उपस्थित कठिनाइयों का निराकरण हो सके।
एक महत्वपूर्ण काम यह होता कि सीमा के दोनों ओर निर्बाध आवागमन सुनिश्चित किया
जाता। नियंत्रण रेखा होती, पर वह नक्शे पर केवल नाम की एक रेखा रह जाती। यह समझौता
द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद फ्रांस और जर्मनी के बीच हुई एलिज़ी संधि जैसा ही
होता। कसूरी ने लिखा है कि इस समझौते में एक बात यह भी थी कि दोनों में से कोई भी
पक्ष इसे अपनी विजय के रूप में प्रचारित नहीं करता। कसूरी के अनुसार उन्होंने इस समझौते को लेकर
कश्मीरियों की राय ली, जिनमें से ज्यादातर ने इससे सहमति व्यक्त की। केवल सैयद अली
शाह गिलानी ने इससे सहमति व्यक्त नहीं की। गिलानी ने इसे अस्पष्ट बताया और मुशर्रफ
के संरा सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव के संदर्भ में दिए गए बयान की आलोचना भी की। कुछ
लोगों का कहना था कि इसमें नुकसान
कश्मीरी लोगों का है। समाचार एजेंसी रायटर ने 17 दिसम्बर 2003 को परवेज़
मुशर्रफ के इंटरव्यू पर आधारित समाचार जारी किया, जिसमें उन्होंने कहा, ‘हमारा देश संयुक्त राष्ट्र प्रस्ताव को मानता है, पर
अब हम उसे भी ‘किनारे
रख चुके
हैं’ (लेफ्ट एसाइड) और कश्मीर समस्या के समाधान के लिए आधा रास्ता खुद चलने को तैयार है।’
यह बात आगरा शिखर वार्ता (14-16 जुलाई 2001) के बाद की है।
यह समझौता आगरा शिखर सम्मेलन के दौरान पेश किया गया था। बाद में सन 2004 में मुशर्रफ
ने कहा कि भारतीय मंत्रिमंडल ने इसे स्वीकार नहीं किया। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के बाद मनमोहन सिंह की
सरकार के साथ पाकिस्तान की बात
चलती रही और बाद में इसे मनमोहन-मुशर्रफ फॉर्मूला के नाम से भी जाना गया। सन
2007 में परवेज मुशर्रफ ने अमेरिकी सांसदों से कहा कि दोनों देशों के बीच समझौता
होने ही वाला है। सन 2009 में सीएनएन-आईबीएन
से एक इंटरव्यू में मनमोहन सिंह ने कहा कि मुझे इस मामले में ज्यादा तेजी से
आगे बढ़ना चाहिए थे। मनमोहन सिंह अपने कार्यकाल के अंतिम दिनों में एक ऐसे समझौते
की बातें कर रहे थे, जिसके तहत कश्मीर के नक्शे में कोई बदलाव नहीं हो। अप्रेल
2014 में यह देखते हुए कि शायद नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनकर आने वाले हैं, हुर्रियत
के नेता मीरवाइज़ उमर फारूक ने एक खुला
पत्र लिखा, जिसमें कश्मीर के समाधान का सुझाव दिया गया। उन्होंने लिखा कि कश्मीर
के समाधान के लिए आम सहमति बनाने की कोशिश की जानी चाहिए। मई 2014 में चुनाव परिणाम आने
के ठीक पहले कश्मीर विवि में प्रधानमंत्री के विशेष दूत सतिंदर लाम्बा ने कहा कि
डॉ मनमोहन सिंह यह कहते रहे हैं कि कश्मीर पर समझौता करने के लिए न तो सीमा में
बदलाव करना पड़े और संविधान में संशोधन। ऐसा समझौता किया जा सकता है, जिसमें सीमा
बेमानी हो जाए। मनमोहन सिंह सन 2004 से यह बात कहते रहे कि समझौता करने के लिए
हमें सीमा
में बदलाव मंजूर नहीं है।
संसद में
जम्मू-कश्मीर राज्य पुनर्गठन विधेयक पर चर्चा के दौरान गृहमंत्री अमित शाह ने कहा
था कि पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर भी हमारा है और उसे हमें वापस लेना है। इसके पहले
फरवरी 1994 में भारतीय संसद ने सर्वसम्मति से एक
प्रस्ताव पास करके कहा था कि जम्मू और कश्मीर भारत का अभिन्न अंग रहा है,
और रहेगा तथा उसे देश के बाकी हिस्सों
से अलग करने के किसी भी प्रयास का विरोध किया जाएगा। पाकिस्तान बल पूर्वक कब्जाए
हुए क्षेत्रों को खाली करे।
दूसरी तरफ व्यावहारिक सत्य यह भी है कि नियंत्रण रेखा पर आवागमन को स्वीकार करके एक प्रकार से भारत सरकार ने उधर के कश्मीर के अस्तित्व को स्वीकार करना शुरू कर दिया था। 13 अप्रैल 1956 को जवाहर लाल नेहरू ने कहा था, “मैं मानता हूँ कि युद्ध विराम रेखा के पार का इलाका आपके पास रहे। हमारी इच्छा लड़ाई लड़कर उसे वापस लेने की नहीं है।” बताते हैं कि अब इमरान खान भी चार-सूत्री समझौते के पक्ष में हैं।
इंटरनेट पर कश्मीर से जुड़ी सामग्री पढ़ना चाहें तो मेरी इस पोस्ट को भी देखें
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