इस साल फरवरी में जब कोरोना के संक्रमण की खबरें मीडिया में आईं, उसके पहले देश का सालाना बजट आ चुका था। तब हमारी चिंता थी आसन्न मंदी की। इस बीच कोरोना प्रकट हुआ। मार्च के महीने में पहले लॉकडाउन के समय पहला सवाल था कि अर्थव्यवस्था का क्या होगा? पहला लॉकडाउन खत्म होते-होते लद्दाख में चीनी हरकतों की खबरें आने लगीं और उसके बाद तीनों समस्याएं आपस में गड्ड-मड्ड हो गईं। तीनों ने तकरीबन एक ही समय पर सिर उठाया। तीनों पर काबू पाने के लिए हमें कम से कम अगले तीन महीनों के घटनाक्रम पर नजर रखनी होगी।
इन तीनों के साथ मोदी सरकार की प्रतिष्ठा भी जुड़ी है। तीनों को लेकर तेरह तरह की तजवीजें हैं। भारत के विश्लेषकों से लेकर विदेशी पर्यवेक्षक तक की निगाहें इन तीनों पर हैं। पिछले कुछ दिन से भारत में हर रोज़ कोरोना संक्रमण के 75 हज़ार से ज्यादा नए मामले सामने आ रहे हैं। नए मामलों की दैनिक संख्या में संख्या भारत में सबसे आगे है। इस हफ्ते जैसे ही यह खबर आई कि वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही में अर्थव्यवस्था में 23.9 फीसदी का संकुचन हुआ है, तो आलोचकों को लगा कि चौपट पर सवा चौपट। मोदी विरोधियों की बाँछें खिली हुईं हैं। गोया कि यह उनकी उपलब्धि है। इसमें हैरत क्या बात है? शटडाउन का परिणाम तो यह आना ही था। पर आगे सुरंग अंधी नहीं है। रोशनी भी नजर आ रही है। इन तीनों पर जीत हासिल करने का मतलब है, बहुत बड़ी उपलब्धि।
कोरोना संक्रमण
चिंता की बात है
भारत में संक्रमण की गति। इसे रुकना चाहिए। गत 1 जून से केंद्र
सरकार ने लॉकडाउन की पाबंदियों में छूट देने की शुरुआत की। लॉकडाउन से कोरोना
प्रसार रुका था, पर आर्थिक गतिविधियाँ बंद होने से न केवल
राजकोष पर दबाव बढ़ा, बल्कि रोजी-रोजगार खत्म
होने प्रवासी मजदूरों के मन में दहशत फैली और वे शहरों को छोड़कर अपने गाँवों की
ओर भागने लगे। मार्च के अंतिम सप्ताह से लेकर मई-जून तक मजदूरों का पलायन ही सबसे
बड़ा समाचार था। मोटा अनुमान है कि देश में करीब 12 करोड़ प्रवासी
मजदूर काम करते हैं। ये सब किसी रोज तय करें कि उन्हें अपने घर वापस जाना चाहिए, तो अनुमान लगाएं कि उन्हें कितना समय लगेगा। शुरू में जो
उनके लिए जो रेलगाड़ियाँ चलाई गई हैं, उनमें एकबार में 1200 लोग बैठ रहे थे। ऐसी एक हजार गाड़ियाँ हर रोज चलें, तब भी सबको पहुँचाने में सौ से सवा सौ दिन लगते। वह भी तब, जब एक पॉइंट से चली गाड़ी सीधे उन्हें घर तक पहुँचाए।
इतने बड़े स्तर
पर आबादी का स्थानांतरण आसान काम नहीं है और जरूरी भी नहीं है। सभी 12 करोड़ कामगार अपने घरों की ओर नहीं भागे थे। शायद
तीस-चालीस लाख लोग भागे होंगे, जिन्होंने खुद को असुरक्षित
महसूस किया। इससे कोरोना का प्रसार छोटे इलाके से बढ़कर ज्यादा बड़े इलाके में हो
गया। संक्रमण के दूसरे तमाम कारण भी रहे होंगे। अनलॉक-1 के साथ ही संक्रमण के मामले और बढ़े। यह क्रिया की
प्रतिक्रिया है।
देशभर की
रोजी-रोटी को बचाने के लिए अनलॉक भी जरूरी है। कहा गया कि लॉकडाउन से जो कुछ हासिल
हुआ उस पर अनलॉक ने पानी फेर दिया। आप इससे बच नहीं सकते। पहली बार 25 मार्च से शुरू हुए 21 दिनों के लॉकडाउन की समय
सीमा जब समाप्त हो रही थी, तब प्रधानमंत्री नरेंद्र
मोदी के सामने ‘जान और जहान’ दोनों में से किसी एक को चुनने की चुनौती थी। यह
चुनौती आज भी है।
महामारियों के
अंत दो तरह के होते हैं। एक, चिकित्सकीय अंत। जब
चिकित्सक मान लेते हैं कि बीमारी गई। और दूसरा सामाजिक अंत। जब समाज के मन से
बीमारी का डर खत्म हो जाता है। कोविड-19 का इन दोनों में से कोई
अंत अभी नहीं हुआ है, पर समाज के मन से उसका भय
कम जरूर होता जा रहा है। उम्मीदें बढ़ती जा रही हैं कि इसका अंत अब होगा। विश्व
स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि कोरोनावायरस महामारी 1918 के स्पेनिश फ्लू की तुलना में कम समय तक रहेगी। संगठन के
प्रमुख टेड्रॉस गैब्रेसस ने गत 21 अगस्त को कहा कि यह
महामारी दो साल से कम समय में खत्म हो सकती है।
शुरू में माना जा
रहा था कि देश में अन्य देशों के मुकाबले भारत में टेस्ट कम हैं, पर अब यह संख्या काफी तेजी से बड़ी है। पिछले दो सप्ताह से
भारत में हर रोज 10 लाख से ज्यादा कोरोना टेस्ट हो रहे हैं। भारत
में 31 अगस्त तक 4 करोड़ 43 लाख से ज्यादा टेस्ट हो चुके थे। इस लिहाज से हम दुनिया
में तीसरे नम्बर पर है। चीन में नौ करोड़ और अमेरिका में 8.33 करोड़ टेस्ट हुए हैं। स्वास्थ्य मंत्री डॉ हर्षवर्धन के
अनुसार सब ठीक रहा तो देश की पहली कोरोना वैक्सीन इस साल के अंत तक आ जाएगी। हमारी
एक वैक्सीन का ट्रायल तीसरे चरण में है। विश्वास है कि साल के अंत तक यह वैक्सीन
विकसित हो जाएगी।
देश में इन दिनों
तीन वैक्सीनों का ट्रायल चल रहा है। इंडियन कौंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) के
अनुसार भारत बायोटेक की कोवाक्सिन, ज़ायडस कैडिला की
ज़ायकोवी-डी और ब्रिटिश-स्वीडिश फर्म एस्ट्राजेनेका तथा ऑक्सफोर्ड विवि द्वारा
विकसित की जा रही चैडॉक्स 1 के भारत में क्लिनिकल
ट्रायल के लिए आईसीएमआर स्पांसर एजेंसी है। पुणे स्थित सीरम इंस्टीट्यूट भी इसमें
उत्पादन में भागीदार है। वैक्सीन बन जाने के बाद फौरन ही वह सबको उपलब्ध नहीं हो
जाएगी, पर भरोसा है कि ज्यादा से ज्यादा लोगों तक वह
पहुँचेगी। अगले तीन महीने में हम कोरोना पर विजय के बारे में कोई बात निश्चयपूर्वक
कहने की स्थिति में होंगे।
जीडीपी में गिरावट
जीडीपी की
संवृद्धि में लॉकडाउन के शुरूआती महीनों वाली तिमाही में 23.9 फ़ीसदी की ज़बरदस्त गिरावट हुई है। भारत में ही नहीं
दुनिया के तमाम देशों की जीडीपी में गिरावट है,
पर भारत की
गिरावट अनुमान से ज्यादा है। पहले अनुमान लगाया था कि यह गिरावट 18 फीसदी के आसपास होगी। अब कुछ संस्थाओं का अनुमान है कि इस
पूरे साल में जीडीपी का संकुचन अनुमान से ज्यादा हो सकता है। अब बहुत कुछ इस बात
पर निर्भर करेगा कि साल की दूसरी, तीसरी और चौथी तिमाही में
अर्थव्यवस्था किस हद तक पटरी पर वापस आती है। इसके लिए भी आर्थिक गतिविधियों को अनलॉक करना पहली शर्त होगी और
दूसरी शर्त होगी एक और बड़े सरकारी पैकेज की घोषणा।
जापानी वित्तीय
शोध संस्था नोमुरा ने कुल मिलाकर इस साल 10.8 प्रतिशत के संकुचन का
अनुमान लगाया है। यानी कि इस साल अर्थव्यवस्था बजाय बढ़ने के दस फीसदी घटेगी।
नोमुरा ने हाल के एक नोट में कहा था, आगे तीसरी तिमाही तक सुधार के संकेत हैं, लेकिन भारत में महामारी के मामले लगातार बढ़ रहे हैं, जिससे चिंता बनी हुई है। नोमुरा का अंदेशा गलत भी साबित हुआ, तब भी कम से कम 6 से 7 फीसदी तक का संकुचन होगा। दूसरी तिमाही इस महीने पूरी हो
जाएगी। यानी जो होना था, वह हो चुका।
अब तीसरी और चौथी
तिमाही इस साल के आँकड़ों को तय करेंगी। अनलॉक-4 की घोषणा के बाद
भी अर्थव्यवस्था का एक बड़ा टुकड़ा बंद पड़ा है। रेलगाड़ियाँ सीमित संख्या में चल
रही हैं, मेट्रो की सीमित सेवा अब शुरू हो रही है, अंतरराष्ट्रीय विमान सेवाएं अब शुरू होने की प्रक्रिया में
हैं। कोरोना पर नियंत्रण होते ही अर्थव्यवस्था का बड़ी तेजी से उठान होगा। फिलहाल
आर्थिक गतिविधियों को बढ़ाने के लिए सरकार को कुछ और पैकेज घोषित करने होंगे।
सरकारी व्यय बढ़ने पर राजकोषीय घाटा भी बढ़ेगा।
कारोबार कम होने
के कारण जीएसटी का संग्रह भी कम हो गया है। हमें हर बात के लिए तैयार रहना चाहिए।
व्यक्ति की आय घटती है, तो वह चीजें खरीदना कम
करता है। इससे माँग घटती है और रोजगार कम होते हैं। इस वात्याचक्र से बाहर निकालने
में सरकार की सबसे बड़ी भूमिका है। अगले तीन महीनों में उसकी मुस्तैदी की परीक्षा
होगी। जिन क्षेत्रों का प्रदर्शन सबसे खराब है उनमें निर्माण (-50), व्यापार, होटल तथा अन्य सेवाएं (-47), विनिर्माण (-39) और खनन शामिल हैं। इन्हीं
सेक्टरों में ज्यादातर रोजगार हैं। इस्पात और सीमेंट के उत्पादन और उपभोग में कमी
आने का मतलब है कि निर्माण में गिरावट। यहाँ तक कि टेलीफोन उपभोग भी कम हुआ है।
केवल कृषि
क्षेत्र में 3.4 फीसदी का सुधार है, जो बेहतर फसल का परिचायक है। उसके अलावा मनरेगा के कारण
ग्रामीण अर्थव्यवस्था में बेहतरी है, पर आर्थिक पहिया औद्योगिक
उत्पादन से चलता है। दूसरी तिमाही में इंफ्रास्ट्रक्चर और औद्योगिक क्षेत्रों में
सुधार की उम्मीदें हैं। राजमार्गों पर काम शुरू हो गया है। अर्थव्यवस्था में बड़ा
योगदान असंगठित क्षेत्र का है, जिसकी तस्वीर जीडीपी के
आँकड़ों से नहीं मिलती। उसे शामिल करें, तो अनुमान से कहा जा सकता
है कि अर्थव्यवस्था का संकुचन 24 नहीं, करीब 40 फीसदी का है।
चीनी चुनौती
पाँच महीने की
लम्बी कशमकश के बाद भी चीनी सेनाएं लद्दाख में पीछे हटकर नहीं दे रही हैं। चीफ ऑफ
डिफेंस स्टाफ ने कहा कि चीन के साथ बातचीत से कोई नतीजा नहीं निकला, तो सैन्य
विकल्प भी मौजूद है। इस बयान के कुछ दिन के भीतर ही स्पेशल फ्रंटियर फोर्स ने
कार्रवाई करके पैंगांग झील के दक्षिण किनारे की तीन ऊँची पहाड़ियों पर कब्जा जमा
लिया है। चीनी सेना अब हमारी तोपों के सामने है। मजबूती के साथ बात करने के लिए यह
जरूरी भी था।
यह सवाल अब भी अनुत्तरित
है कि चीन ने इस वक्त इस मसले को क्यों उलझाया है? इतना जरूर समझ
में आता है कि उसका लक्ष्य सामरिक दृष्टि से बेहतर ठिकानों पर बैठने का है। यानी
कि उन्हें भी लगता है कि आज नहीं तो कल इस इलाके में लड़ाई हो सकता है। पैंगांग
झील इलाके में चीन ने फिंगर 4 से 8 के बीच अपनी स्थिति ऐसी बना ली है कि लड़ाई लम्बी चले, तो भारतीय सेना उसकी मार के दायरे में रहे।
इस हफ्ते हिन्दू
ने खबर दी है कि लद्दाख के देपसांग इलाके में चीन ने करीब 900 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर कब्जा कर रखा है। देपसांग से
चुशूल तक चीन ने भारी संख्या में सेना और सैनिक साजो-सामान को तैनात कर रखा है। यह
सब तैयारी और योजना के साथ किया गया है। लद्दाख से लेकर अरुणाचल तक अब तनाव की
स्थिति है और अंदेशा है कि अगले कुछ महीनों में टकराव हो भी सकता है। सन 1962 की लड़ाई अक्तूबर के महीने में हुई थी।
क्या चीन लड़ाई
चाहेगा? शायद नहीं,
पर धमकी जरूर देगा।
कश्मीर समस्या के अंतरराष्ट्रीयकरण में पाकिस्तान और चीन की भी यह योजना है। अगले कुछ
वर्षों में चीन के सामने भी चुनौतियाँ खड़ी होंगी। शी चिनफिंग पर देश की आंतरिक
राजनीति का दबाव भी है। उधर ताइवान के साथ टकराव की संभावनाएं बढ़ती जा रही हैं।
दक्षिण चीन सागर में अमेरिका ने उसकी घेराबंदी कर रखी है। अमेरिका और चीन के
रिश्ते शायद अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव यानी 3 नवंबर तक कमोबेश
ऐसे ही रहेंगे। पर हमारे परिणाम अगले साल की दूसरी तिमाही के बाद ही मिलेंगे।
शेखर गुप्ता का यह वीडियो भी देखिए
सटीक आंकलन
ReplyDelete