हाल में सम्पन्न हुआ संसद का मॉनसून सत्र पिछले दो दशकों का सबसे छोटा सत्र था। महामारी के प्रसार को देखते हुए यह स्वाभाविक भी था, पर इस जितने कम समय के लिए इसका कार्यक्रम बनाया गया था, उससे भी आठ दिन पहले इसका समापन करना पड़ा। बावजूद इसके संसदीय कर्म के हिसाब से यह सत्र काफी समय तक याद रखा जाएगा। इस दौरान लोकसभा ने निर्धारित समय की तुलना में 160 फीसदी और राज्यसभा ने 99 फीसदी काम किया। इन दस दिनों के लिए दोनों सदनों के पास 40-40 घंटे का समय था, जबकि लोकसभा ने करीब 58 घंटे और राज्यसभा ने करीब 39 घंटे काम किया। यह पहली बार हुआ जब सत्र के दौरान कोई अवकाश नहीं था। दोनों सदनों ने अपने दस दिन के सत्र में 27 विधेयक पास किए और पाँच विधेयकों को वापस लेने की प्रक्रिया पूरी की गई। इन विधेयकों में 11 ऐसे थे, जिन्होंने जून में जारी किए गए अध्यादेशों का स्थान लिया।
इस सत्र की जरूरत इसलिए भी थी, क्योंकि तमाम संसदीय कर्म अधूरे पड़े थे। इस सत्र के शुरू होने के पहले संसद के पास पहले से 46 विधेयक लंबित थे। इनके अलावा नए 22 विधेयक इस सत्र में लाए जाने थे। कुछ अध्यादेशों के स्थान पर विधेयकों को लाना था और कुछ विधेयकों को वापस लेना था। हमारी प्रशासनिक-व्यवस्था सफलता के साथ तभी चल सकती है, जब संसदीय कर्म कुशलता के साथ सम्पन्न होता रहे। संसदीय बहस, प्रश्नोत्तर और ध्यानाकर्षण प्रस्ताव सुनने में मामूली बातें लगती हैं, पर ये बातें ही लोकतंत्र को सफल बनाती हैं।
तमाम
सकारात्मकताओं के बावजूद यह सत्र कुछ नकारात्मक बातों के लिए भी याद रखा जाएगा।
पहली बार सांसदों ने रात भर संसद परिसर के अंदर धरना दिया। इस सत्र में ज़बरदस्त
हंगामा, विरोध प्रदर्शन भी हुआ और आठ सांसदों का निलंबन
भी हुआ। सोमवार 21 सितंबर को जब राज्यसभा के सभापति वेंकैया
नायडू ने आठ सदस्यों को निलंबित किया तो विपक्ष ने सदन का बहिष्कार किया। विपक्ष
की ग़ैर-मौजूदगी के बीच मंगलवार को राज्यसभा में चार घंटे के भीतर सात बिल बिना
लम्बी बहस के पास हो गए। इनमें लेबर कोड और फॉरेन कंट्रीब्यूशन (रेग्युलेशन)
संशोधन जैसे बिल भी थे, जिनपर बहस की जरूरत थी।
कम से कम उनके बारे में विरोधी दलों के विचार जनता के सामने आने चाहिए। ऐसा नहीं
हुआ, क्योंकि विरोधी दलों ने प्रदर्शन की रणनीति को
अपनाना ज्यादा पसंद किया।
एक अरसे तक माना
जाता था कि देश में श्रम कानूनों में बदलाव करना बहुत मुश्किल काम है, क्योंकि उसके राजनीतिक निहितार्थ को देखते हुए विरोधी दल
जबर्दस्त प्रतिरोध करेंगे। पर जितनी आसानी से ये बिल पास हुए उसका अंदाज सरकार को
भी नहीं रहा होगा। विरोधी दलों की नासमझी और उल्टी राजनीति का यह बेहतरीन उदाहरण
है। लगता है कि विरोधी दलों ने धरने-प्रदर्शन की रणनीति को इसलिए अपनाया, क्योंकि उन्होंने सदन में चर्चा के लिए पर्याप्त होमवर्क
करना उचित नहीं समझा।
इस सत्र में
समयाभाव के कारण प्रश्नोत्तर नहीं हो पाए, जिसकी विरोधी दलों ने
आलोचना भी की। पिछले कुछ दशकों का अनुभव है कि हंगामे के कारण अक्सर प्रश्नोत्तर
काल नहीं हो पाता है। विडंबना यह है कि प्रश्नोत्तर को मीडिया में कवरेज नहीं
मिलती। क्यों नहीं मिलती? क्योंकि उनमें वैसी सनसनी
नहीं होती, जैसी हंगामे में होती है। शोर भी संसदीय कर्म
है, पर शोर ही संसदीय कर्म नहीं है। संसदीय कर्म वह
विमर्श है, जिसका असर देर तक और दूर तक होता है।
संसद की बहस को
बरसों तक याद रखा जाता है। उसके उद्धरण राजनीति शास्त्र की पाठ्य पुस्तकों में
लिखे जाते हैं। विरोधी दलों ने ऐसे मौके को हाथ से क्यों निकल जाने दिया? राष्ट्रीय राजनीति में इन दलों के क्रमशः बढ़ते जाते क्षरण
के अनेक कारणों में यह भी एक बड़ा कारण है। इस बात की कोई उम्मीद नहीं है कि वे
इसपर विचार भी करेंगे, क्योंकि देश में विकसित
होती राजनीति संस्कृति में हरेक विचार का विकल्प है शोर।
संसद में एक
शानदार वक्तव्य जितना प्रभावशाली होता है, उसकी तुलना बड़े से बड़े
शोर और भारी से भारी हंगामे से नहीं की जा सकती। संसद और सड़क की राजनीति एक जैसी
नहीं हो सकती। पर वह एक जैसी नजर आती है, तो उसके पीछे जरूर गंभीर
कारण हैं। कांग्रेस पार्टी एक अरसे से बयान दे रही है कि कोरोना, चीन और अर्थव्यवस्था इन तीन बातों पर देश को ध्यान देना
चाहिए। देश तो बाद में ध्यान देगा, आपका कितना ध्यान है?
हमारे लोकतंत्र
के सिद्धांत और व्यवहार में किस तरह की विसंगतियाँ हैं, इसका पता राजनीति के कार्य-व्यवहार से लगता है। समाज के
श्रेष्ठ और निकृष्ट दोनों इसी राजनीति में है। इसकी एक परीक्षा संसद के सत्रों में
होती है। इसमें दो राय नहीं कि भारतीय संसद समय की कसौटी पर खरी उतरी है, पर अफसोस के मौके भी आए हैं। मसलन इतने छोटे सत्र में संसद
ने इतना काम किया, पर जिन प्रश्नों पर विचार की घड़ी आई, तब राजनीति ने हंगामे को वरीयता दी, क्योंकि मीडिया कवरेज उसमें ज्यादा है।
संसद हमारे
विमर्श का सर्वोच्च मंच है। 13 मई, 2012 को उसके 60 वर्ष पूरे होने पर उसकी
विशेष सभा हुई थी। इस सभा में सांसदों ने आत्म-निरीक्षण किया। उन्होंने संसदीय
गरिमा को बनाए रखने और कुछ सदस्यों के असंयमित व्यवहार पर और संसद का समय बर्बाद
होने पर चिंता जताई और यह संकल्प किया था कि यह गरिमा बनाए रखेंगे। बहस के दौरान
ऐसा मंतव्य व्यक्त किया गया कि हर साल कम से कम 100 बैठकें अवश्य
हों। यह संकल्प उस साल ही टूट गया। आज जो सत्ताधारी हैं, वे उस समय विपक्ष में थे।
कहने का मतलब यह कि इस राजनीति के पीछे किसी एक पार्टी या विचार की भूमिका नहीं
है। यह मौके की बात है। यह हमारे लोकतंत्र का बड़ा अंतर्विरोध है। राजनीति अच्छे
वक्ताओं को तैयार नहीं कर रही है, क्योंकि लगता है कि
संजीदा बहस, बल्कि संजीदगी उपयोगी नहीं रही।
चुनाव और संसदीय
सत्र दो परिघटनाएं राजनीतिक सरगर्मियों से भरी रहती है। दोनों ही गतिविधियाँ देश
के जीवन और स्वास्थ्य के साथ गहरा वास्ता रखती हैं। चुनाव और संसदीय कर्म ठीक रहे
तो काया पलटते देर नहीं लगेगी। पर दुर्भाग्य से देश की जनता को दोनों मामलों में
शिकायत रही है। चुनाव के दौरान सामाजिक अंतर्विरोध और व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप
चरम सीमा पर होते हैं और संसदीय सत्र के दौरान स्वस्थ बहस पर शोर-शराबा हावी रहता
है। आप सोचें क्या ऐसा नहीं है?
लोकतंत्र एक शब्द शब्दकोश में परिभाषित। मायने समय बदलता हुआ। सटीक विश्लेषण।
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