अब जब अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण शुरू हो गया है, तब तीन तरह की प्रतिक्रियाएं दिखाई और सुनाई पड़ रही हैं। सबसे आगे है मंदिर समर्थकों का विजय-रथ, उसके पीछे है कथित लिबरल-सेक्युलरवादियों की निराश सेना। उन्हें लगता है कि हार्डकोर हिन्दुत्व के पहियों के नीचे देश की बहुलवादी, उदार संस्कृति ने दम तोड़ दिया है। इन दोनों शिखरों के बीच मौन-बहुमत खड़ा है, जो कभी खुद को कट्टरवाद का विरोधी मानता है, और राम मंदिर को कट्टरता का प्रतीक भी नहीं मानता।
बीच वाले इस समूह में हिंदू तो हैं ही, कुछ मुसलमान भी शामिल हैं। भारत राष्ट्र-राज्य में मुसलमानों की भूमिका को लेकर विमर्श की क्षीण-धारा भी इन दिनों दिखाई पड़ रही है। आने वाले दौर की राजनीति और सामाजिक व्यवस्था व्यापक सामाजिक विमर्श के दरवाजे खोलेगी और जरूर खोलेगी। यह विमर्श एकतरफा नहीं हो सकता। भारतीय समाज में तमाम अंतर्विरोध हैं, टकराहटें हैं, पर एक धरातल पर अनेक विविधता को जोड़कर चलने की सामर्थ्य भी है। फिलहाल सवाल यह है कि क्या हमारी यह विशेषता खत्म होने जा रही है?
असहाय मुसलमान
दो साल पहले 17 मार्च 2018 के इंडियन एक्सप्रेस में मानवाधिकार
कार्यकर्ता हर्ष मंदर का लेख ‘सोनिया, सैडली’ (अफसोस
सोनिया) शीर्षक से प्रकाशित हुआ था। हर्ष मंदर ने लिखा कि मुसलमान आज त्याज्य
(कास्टअवेज़) हैं, बेघरबार राजनीतिक रूप से अनाथ, वस्तुतः हरेक दल ने उन्हें त्याग
दिया है। मंदर के अनुसार मुसलमानों की बड़ी आबादी खुद को अकेला और असहाय पा रही
है। मुसलमानों के प्रति खुली नफरत जीवन के हरेक क्षेत्र में है। मुसलमान माता-पिता
अपने बच्चों को हिदायत देते हैं कि वे ट्रेन में यात्रा करते समय फोन पर ‘सलामअलैकुम’ वगैरह न कहें। उनकी सार्वजनिक
लिंचिंग के कारण संदेश यह जा रहा है कि मुसलमान दूसरे दर्जे के नागरिक हैं। भारतीय
जनता पार्टी तो मुसलमानों के प्रति अपनी नफरत को व्यक्त करती ही है, बाकी राजनीतिक
दल भी मानने लगे हैं कि यदि हमें मुसलमानों के हमदर्द के रूप में देखा गया, तो
बहुसंख्यक हिन्दू वोट से हम हाथ धो बैठेंगे।
इस लेख के प्रकाशन के कुछ दिन बाद ही रामचंद्र गुहा ने उसी
अखबार में जवाबी लेख ‘लिबरल्स,
सैडली’ (अफसोस, लिबरल) शीर्षक
से जो लिखा, उससे विमर्श का दायरा बढ़ गया। गुहा का कहना था कि व्यक्तिगत
स्वतंत्रताओं की रक्षा करने के अपने प्रयासों के तहत भारतीय उदारवादियों को हिन्दू
और मुस्लिम दोनों तरह की साम्प्रदायिकता पर प्रहार करने चाहिए। उन्होंने हर्ष मंदर
के लेख का हवाला दिया, जिसमें एक दलित नेता अपनी बैठकों में आने वाले मुसलमानों से
कह रहे हैं कि आप बेशक हमारी बैठकों में बड़ी संख्या में आएं, पर मुस्लिम टोपी और
बुरके में न आएं।
आधुनिक मुसलमान
मंदर को यह बात अखरी और उन्होंने
माना कि इसका मतलब है कि मुसलमानों से कहा जाए कि वे राजनीति से खुद ही हट जाएं।
गुहा का कहना था कि इसके उलट यह सलाह प्रगतिशील थी। हालांकि बुरका कोई हथियार
नहीं है, पर यह प्रतीक रूप में त्रिशूल जैसा है। इसके सार्वजनिक प्रदर्शन पर
आपत्ति व्यक्त करना, असहिष्णुता नहीं है, बल्कि उदारवादी और स्वतंत्रताकामी विचार
है। इसके बाद गुहा ने जो लिखा, वह ध्यान देने वाला है।
उन्होंने लिखा, स्वतंत्रता के बाद से भारत में तीन मुस्लिम
नेता ऐसे हुए हैं, जिन्होंने अपने समुदाय को मध्ययुगीन दायरे से बाहर निकाल कर
आधुनिक दुनिया से जोड़ने की कोशिश की है। इनमें पहले थे शेख अब्दुल्ला, जो कश्मीर
की स्वतंत्रता के आकर्षण में उलझे रह गए। दूसरे थे हमीद दलवाई, जो असमय ही गुजर
गए, यानी चालीस वर्ष के आसपास की उम्र पार नहीं कर पाए। और तीसरे हैं आरिफ मोहम्मद
खान, जिनसे उनके ही प्रधानमंत्री ने दगा की।
इन तीनों में दलवाई की सबसे कम पहचान है, जबकि वे आधुनिक
उदारवादी विमर्श में सबसे ज्यादा प्रासंगिक हैं। गुहा ने साठ और सत्तर के दशक में
दलवाई की लिखी कुछ बातों को उधृत किया, जो हिन्दुओं और मुसलमानों दोनों को संबोधित
हैं। दलवाई की बात मोटे तौर पर यह है कि भारतीय मुसलमानों का नेतृत्व साम्प्रदायिक
समझ के लोगों के हाथों में है और हिन्दुओं के भीतर पुनरुत्थानवादी ताकतें सिर उठा
रही हैं। जरूरत इस बात की है कि मुसलमानों के भीतर आधुनिकतावादी तत्व आगे आएं और
वे हिन्दुओं के उदारवादी तत्वों के साथ मिलकर आगे की राह बनाएं। ऐसा नहीं हुआ, तो
हिन्दू उदारवाद नष्ट हो जाएगा। भारत में असल टकराव हर तरह की प्रतिगामी,
कट्टरपंथी और पुरातनपंथी ताकतों के बीच है।
दो तरह की कट्टरता
गुहा का कहना था कि मैं भी हिन्दू बहुसंख्यकवाद का विरोधी
हूँ, पर उदारवादियों को दोनों तरह के कट्टरतावाद का विरोध
करना चाहिए। इन आलेखों के हवाले से यह बहस कई सतहों पर चली। आज भी चल रही है। इस
सवाल के अलग-अलग पहलुओं पर विस्तार से चर्चा करने की जरूरत है। राम मंदिर प्रकरण
हिन्दुओं को इस विषय पर विचार करने का मौका दे रहा है कि वे चाहते क्या हैं? उनकी दृष्टि में भारत के बहु-जातीय, बहु-धर्मी समाज की एकता का वह कौन सा
सूत्र है, जो सबको समझ में आता हो? इसमें उनकी
भूमिका क्या है? क्या मुसलमानों के बीच भी इस तरह की कोई बहस है? क्या चलनी नहीं चाहिए?
पिछले साल जब अयोध्या मामले पर सुप्रीम कोर्ट के फैसला आया
तब एक बात कही जा रही थी कि भारतीय ‘राष्ट्र-राज्य
के मंदिर’ का निर्माण सर्वोपरि है और इसमें सभी धर्मों और समुदायों की भूमिका है। हमें
इस देश को सुंदर और सुखद बनाना है। मंदिर आंदोलन के कारण गाड़ी ऐसी जगह फँसी, जहाँ
से बाहर निकालने रास्ता सुझाई नहीं देता था। अदालत ने उस जटिल गुत्थी को सुलझाया,
जिस काम से वह पहले बचती रही थी। यह फैसला दो कारणों से उल्लेखनीय है। एक तो इसमें
सभी जजों ने एकमत से फैसला किया और केवल एक फैसला किया। उसमें कॉमा-फुलस्टॉप का भी
फर्क नहीं रखा। यह बात बहुत से लोगों को अच्छी लगी और बहुत से लोगों को खराब भी
लगी।
सुप्रीम कोर्ट के सामने कई तरह के सवाल थे और बहुत सी ऐसी
बातें, जिनपर न्यायिक दृष्टि से विचार करना बेहद मुश्किल काम था। पर उसने एक जटिल
समस्या के समाधान का रास्ता निकाला। और अब इस सवाल को हिन्दू-मुस्लिम समस्या के
रूप में देखने के बजाय राष्ट्र-निर्माण के नजरिए से देखा जाना चाहिए। सदियों की
कड़वाहट को दूर करने की यह कोशिश हमें सही रास्ते पर ले जाए, तो इससे अच्छा कुछ
नहीं होगा।
अदालत ने इस मामले की सुनवाई पूरी होने के बाद सभी पक्षों
से एकबार फिर से पूछा था कि आप बताएं कि समाधान क्या हो सकता है। इसके पहले अदालत
ने कोशिश की थी कि मध्यस्थता समिति के मार्फत सभी पक्षों को मान्य कोई हल निकल
जाए। ऐसा होता, तो और अच्छा होता। अदालत ने ऐसी कोशिशें क्यों कीं?
‘उदारवाद’ खतरे में
क्या मंदिर का निर्माण भारत में ‘उदारवाद’ की पराजय है? इस साल के शुरू में हुए दिल्ली के दंगों के बाद
से कहा जा रहा है कि उदारवाद खतरे में है। भारत में ही नहीं, दुनिया के अनेक देशों
में। धुर-दक्षिणपंथ लगातार उठान पर है और वह ‘लिबरल लॉबी’ की प्रासंगिकता को लेकर सवाल खड़े
कर रहा है। बहुत से लोग राम मंदिर के निर्माण को भारत में ‘उदारवाद’ की पराजय के रूप में भी देख रहे
हैं। दूसरी धारणा यह है कि पराजय उदारवाद की नहीं उदारवादियों की है। हमारे समाज
की बुनियाद ही उदारता पर टिकी है, उससे वह हट नहीं सकता।
फरवरी में दिल्ली के शाहीनबाग
आंदोलन के समांतर यह बहस भी चल रही है कि क्या भारतीय उदारवादियों के तौर-तरीकों
में कोई खामी है? एक तबका चाहता था कि शाहीनबाग आंदोलन को देश की
धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था और सांविधानिक अधिकारों का आंदोलन बनाया जाए। काफी लोग इसके
लिए आगे भी आए, जिनमें मुसलमान नौजवानों की संख्या काफी बड़ी थी। वह बहस अभी खत्म
नहीं हुई है।
शाहीनबाग भावना को सफल बनाने के लिए इस आंदोलन को दिल्ली,
लखनऊ या देश के दूसरे शहरों के ‘गैर-मुस्लिम
इलाकों’ में होना चाहिए था। ऐसा क्यों नहीं हो पाया? पिछले चार
दशकों में कम से कम पाँच घटनाक्रमों ने जनता का ध्यान खींचा है। खालिस्तानी
आंदोलन, मंदिर, मंडल और कश्मीर। इन चार बातों के बीच में शाहबानो वाला मामला हुआ।
इन सभी घटनाक्रमों का समय एक-दूसरे से जुड़ा हुआ है। हमारे लिबरल-सेक्युलर नैरेटिव
के अंतर्विरोध भी इन परिघटनाओं से जुड़े हुए हैं। कश्मीर में पाकिस्तानी आईएसआई की
साजिश के पहले दौर में हालांकि काफी संख्या में कश्मीरी मुसलमानों की मौत भी हुई,
पर करीब तीन लाख पंडितों के पलायन का असर शेष भारत पर काफी गहरा पड़ा।
इसके बाद हुर्रियत के माध्यम से एक धीमी आँच घाटी में जला
दी गई। सन 2010 की गर्मियों में पत्थर मार आंदोलन शुरू हुआ। भारतीय संविधान को
फाड़ने और तिरंगे को जलाने की घटनाएं हुईं। कश्मीर बहुत बड़ा टेस्ट केस था। देश का
अकेला राज्य जहाँ मुसलमानों का स्पष्ट बहुमत है। ऐसे राज्य के नागरिक भारत की
धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था के संरक्षक के रूप में खड़े होते, तो देश के बहुमत पर नैतिक
दबाव पड़ता। लिबरल तबके को देश के मुसलमानों को साथ लेकर उस आंदोलन के विरोध में
खड़ा होना चाहिए था।
वामपंथी अहंकार
उदार हिंदू मानस भारत को धर्मनिरपेक्ष देश के रूप में ही
देखता है और इसकी रक्षा भी उसे ही करनी है। पर बीजेपी के राजनीतिक हिंदुत्व का
विरोध करने की हड़बड़ी में लिबरल तबके ने अपनी कमीज पर ‘हिंदू-विरोध’ के दाग लगते नहीं देखे। शाहबानो से लेकर कश्मीर घाटी और ट्रिपल तलाक तक, उसकी
छवि मुस्लिम कट्टरता के समर्थक की बनी। वामपंथी तबके को अपनी वैचारिक श्रेष्ठता का
अहंकार भी है। इस सिलसिले में अभय दुबे की पुस्तक ‘हिन्दू एकता बनाम ज्ञान की राजनीति’ का जिक्र
करना प्रासंगिक होगा, जिसकी ज्यादा चर्चा नहीं हो पाई
है। हाल में योगेन्द्र यादव ने अपने एक लेख में इस किताब का जिक्र करते हुए लिखा
कि इसका जिक्र न होना दुबे की बात को रेखांकित करता है कि अंग्रेजी बोलने वाले
लिबरल, सेक्युलर मध्य वर्ग और शेष देश के बीच कैसा अलगाव है।
दुबे का निष्कर्ष है कि यदि देश का सेक्युलर प्रोजेक्ट
ऐतिहासिक पराजय के कगार पर खड़ा है, तो इसके लिए उसे किसी दूसरे को दोष नहीं देना
चाहिए। यह सोचना गलत है कि देश की सेक्युलर राजनीति की पराजय इसलिए हो गई, क्योंकि
नरेंद्र मोदी या अमित शाह की चतुर और कुटिल साजिशें कामयाब हो गईं।
अभय ने लिखा है
कि पश्चिमी ज्ञान-परंपरा में पनपा वामपंथी-उदारवादी-धर्मनिरपेक्ष तबका अपनी अकड़
में हिन्दू विचारधारा की गहरी परंपराओं को भी खारिज करता रहा। वे यह भी नहीं देख
पाए कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हिन्दू-धर्म के भीतर मौजूद समाज-सुधार की परंपरा
को अपनी जमीन बनाकर चल रहा है और तथाकथित निम्न जातियों को अपने दायरे में शामिल
कर रहा है।
धर्मनिरपेक्षता
कायम रहेगी
यह चर्चा ज्यादा
आगे नहीं बढ़ी, पर राजमोहन गांधी ने जवाबी लेख में कहा, भारत में धर्मनिरपेक्षता
के पैरोकारों की चाहे जो भी गलतियां और नाकामियां रही हों, वे हिंदू राष्ट्रवादी विचारधारा के उत्कर्ष के मुख्य जिम्मेदार
नहीं हैं। वास्तव में, इनमें से कुछ पैरोकार अगर
राष्ट्रीय मंच पर न उभरते तो वह उत्कर्ष बहुत पहले हो गया होता। उन्होंने माना कि
सेक्युलर विचारकों ने अपने अहंकार के कारण संघ परिवार के बारे में बुनियादी तथ्यों
की अनदेखी की। धर्मनिरपेक्ष राजनीति की कमजोरी यह रही कि वह अल्पसंख्यकों
के अधिकारों पर ही ज़ोर देती रही और कांग्रेस की खामियों पर पर्दा डालती रही। उन्होंने अक्सर संघ
परिवार, उसके विविध तत्वों, उसकी ताकत-उपलब्धियों-विफलताओं पर तटस्थ होकर देखने से
इनकार किया।
दूसरी तरफ
उन्होंने लिखा, शाहबानो मामले में अल्पसंख्यकों की सांप्रदायिकता का प्रतिकार करने
में कांग्रेस की विफलता उसकी भारी भूल थी। फिर भी मैं इस निष्कर्ष से सहमत नहीं
हूं कि धर्मनिरपेक्षता की विचारधारा पराजित हो गई है। ‘न्याय’, ‘स्वाधीनता’, ‘समानता’, ‘भाईचारा’, ‘व्यक्ति की गरिमा’ आदि शब्द जब तक संविधान की प्रस्तावना
में कायम हैं और उन्हें संविधान के अनुच्छेदों से सुरक्षा हासिल है तब तक यह मान
लेने की जरूरत नहीं है कि धर्मनिरपेक्षता का विचार पराजित हो गया है।
अच्छा विश्लेषण
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