देश का राजनीतिक अर्थशास्त्र या आर्थिक राजनीति शास्त्र एक दिशा में चलता है और व्यावहारिक अर्थ व्यवस्था दूसरी दिशा में जाती है। सन 1991 में हमने जो आर्थिक दिशा पकड़ी थी वह कम से कम कांग्रेस की विचारधारात्मक देन नहीं थी। मनमोहन सिंह ने विश्व बैंक के 'वॉशिंगटन कंसेंसस' के अनुरूप ही अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाया। वह दौर वैश्वीकरण का शुरूआती दौर था। ऐसा कहा जा रहा था कि भारत इस दौड़ में चीन से तकरीबन डेढ़ दशक पीछे है, जापान और कोऱिया से और भी ज्यादा पिछड़ गया है। बहरहाल तमाम आलोचनाओं के उदारीकरण की गाड़ी चलती रही। एनडीए सरकार भी इसी रास्ते पर चली। सन 2004 में यूपीए सरकार ने दो रास्ते पकड़े। एक था सामाजिक कल्याण पर खर्च बढ़ाने की राह और दूसरी उदारीकरण की गाड़ी को आगे बढ़ाने की राह। 2009 के बाद यूपीए का यह अंतर्विरोध और बढ़ा। आज जिस पॉलिसी पैरेलिसिस का आरोप मनमोहन सिंह पर लग रहा है वह वस्तुतः सोनिया गांधी के नेतृत्व के कारण है। यदि वे मानती हैं कि उदारीकरण गलत है तो प्रधानमंत्री बदलतीं। आज का आर्थिक संकट यूपीए के असमंजस का संकट भी है। यह असमंजस एनडीए की सरकार में भी रहेगा। भारत की राजनीति और राजनेताओं के पास या तो आर्थिक दृष्टि नहीं है या साफ कहने में वे डरते हैं।
जिस विधेयक को लेकर राजनीति में ज्वालामुखी फूट रहे थे वह खुशबू
के झोंके सा निकल गया. लेफ्ट से राइट तक पक्षियों और विपक्षियों में उसे गले लगाने
की ऐसी होड़ लगी जैसे अपना बच्चा हो. उसकी आलोचना भी की तो जुबान दबाकर. ईर्ष्या भाव
से कि जैसे दुश्मन ले गया जलेबी का थाल. यों भी उसे पास होना था, पर जिस अंदाज में
हुआ उससे कांग्रेस का दिल खुश हुआ होगा. जब संसद के मॉनसून सत्र के पहले सरकार अध्यादेश
लाई तो वृन्दा करात ने कहा था, हम उसके समर्थक हैं पर हमारी आपत्तियाँ हैं. हम चाहते
हैं कि इस पर संसद में बहस हो. खाद्य सुरक्षा सार्वभौमिक होनी चाहिए. सबके लिए समान.
मुलायम सिंह ने कहा, यह किसान विरोधी है. नरेन्द्र मोदी ने प्रधानमंत्री को चिट्ठी
लिखी कि मुख्यमंत्रियों से बात कीजिए. पर लगता है उन्होंने अपनी ही पार्टी के वरिष्ठ
नेताओं से बात नहीं की. भाजपा के नेता इन दिनों अलग-अलग सुर में हैं. दिल्ली में विधान
सभा चुनाव होने हैं और पार्टी संग्राम के मोड में है. बिल पर संसद में जो बहस हुई,
उसमें तकरीबन हरेक दल ने इसे ‘चुनाव सुरक्षा
विधेयक’ मानकर ही अपने विचार व्यक्त किए. सोमवार की रात कांग्रेसी
सांसद विपक्ष के संशोधनों को धड़ाधड़ रद्द करने के चक्कर में सरकारी संशोधन को भी खारिज
कर गए. इस ‘गेम चेंजर’ का खौफ विपक्ष पर
इस कदर हावी था कि सुषमा स्वराज को कहना पड़ा कि हम इस आधे-अधूरे और कमजोर विधेयक का
भी समर्थन करते हैं. जब हम सत्ता में आएंगे तो इसे सुधार लेंगे.
विधेयक पास होने को अगले रोज रुपया 66 रुपए की सीमा पार कर गया.
मंगलवार को राज्य सभा में वित्त मंत्री पी चिदम्बरम ने कहा कि रुपए की कीमत केवल बाहरी
कारणों से ही नहीं गिरी. अंदरूनी कारण भी हैं. सन 2008 के मेल्टडाउन के वक्त हमने गलतियाँ
कीं और राजस्व घाटे पर ध्यान नहीं दिया. चालू खाते के असंतुलन को नहीं रोका. बहरहाल
खाद्य सुरक्षा पर कोई भी पार्टी खुद को जन-विरोधी साबित नहीं करेगी. पर इसे लेकर दो
प्रकार की अर्थशास्त्रीय दृष्टियाँ हैं. एक कहती है कि अंततः इसकी कीमत गरीब जनता चुकाएगी.
इसकी कीमत बहुत ज्यादा है और भ्रष्टाचार की एक और लहर का खतरा है. बेईमानों को भी भोजन
का अधिकार मिलेगा. किसानों के समर्थन मूल्य में कटौती होगी. तंगहाल सरकार कम कीमत पर
अनाज खरीदेगी. खुले बाजार में अनाज कम जाएगा, उसकी कीमत बढ़ेगी. किसान के इनपुट महंगे
होंगे और आउटपुट सस्ता. पैसे की कमी से आर्थिक संवृद्धि के उपाय कम होंगे, आधार-ढाँचे
का विकास नहीं होगा. ग्रोथ रुकने से रोजगार कम होंगे. शहरी विकास प्रभावित होगा. यह
नजरिया कहता है कि गरीबों को भोजन नहीं पुष्टाहार की जरूरत है. उसके लिए अलग किस्म
के हस्तक्षेप की जरूरत है. वे गरीबी के फंदे से बाहर निकलें, इसके लिए उनके बच्चों
को स्वस्थ और शिक्षित बनाने की जरूरत है. उनके लिए रोजगारों की रचना होनी चाहिए. दुनिया
में वृद्धिरुद्ध (स्टंटेड) बच्चों की सबसे बड़ी तादाद भारत में है. कमजोर बच्चे कमजोर
नागरिक बने रहेंगे. मजबूत देश के लिए स्वस्थ नागरिक चाहिए. सस्ता अनाज देने से उनका
कुपोषण दूर नहीं होगा.
बात में दम होने के बावजूद खाद्य सुरक्षा की परिकल्पना गलत नहीं
है. हमारे देश में काफी बड़ी संख्या में लोगों की पहली प्राथमिकता रोटी है. यह सच है
कि उन्हें केवल रोटी तक सीमित नहीं रखा जा सकता, पर रोटी उन्हें गुलाम बनाती है. उन्हें
रोटी के दुष्चक्र से बाहर निकालने की जरूरत है. तकरीबन सवा लाख करोड़ के सालाना खर्च
वाली यह स्कीम बेहद महंगी है. पर यह राशि पूरी योजना का खर्च है, जिसका काफी बड़ा हिस्सा
आज भी खाद्य सब्सिडी के रूप में जा रहा है. फिलहाल 25,000 करोड़ का अतिरिक्त खर्च है.
यह अतिरिक्त राशि हम बेहतर टैक्स वसूली से हासिल कर सकते हैं. भारत में जीडीपी के अनुपात
में टैक्स से होने वाली सरकारी आय दुनिया के दूसरे देशों की तुलना में कम है. इसका
मतलब है बेहतर गवर्नेंस. आज भी बड़ी आमदनी वाले टैक्स के दायरे से बाहर हैं. सिर्फ
वेतन-भोगियों से ही सरकार टैक्स वसूलने में कामयाब है. खाद्य सुरक्षा विधेयक को पास
करने में राजनीतिक दल जिस कदर खुलकर सामने आते हैं, उतना ही खुलकर वे डायरेक्ट टैक्स
कोड या दूसरे ऐसे कानूनों को पास करने में क्यों नहीं आगे आते जिनसे अर्थ-व्यवस्था
की गाड़ी पटरी पर आए?
इन दिनों अमर्त्य सेन और जगदीश भगवती के सहारे इस बात पर बहस
चल रही है कि हमें आर्थिक संवृद्धि चाहिए या विकास? दोनों में टकराव कहाँ है? विकास में मानवीय विकास भी
शामिल है. संवृद्धि और वितरण का बेहतर रिश्ता होना चाहिए. पर वह तभी होगा, जब हाशिए
के लोग अपने हक लेने लायक जागरूक होंगे. भारत दुनिया की सबसे तेज विकसित होती अर्थ
व्यवस्थाओं के समूह में शामिल है पर मानवीय विकास में अफ्रीका के गरीब देशों से भी
पीछे है. इसे कौन दुरुस्त करेगा? मनरेगा, शिक्षा का अधिकार और
खाद्य सुरक्षा के बाद भूमि अधिग्रहण कानून भी पास करने की जरूरत है, क्योंकि बुनियादी
आर्थिक विकास का सवाल अभी अनुत्तरित है. यूपीए-2 की सरकार के कुछ महीने बचे हैं. खाद्य सुरक्षा का असली बोझ अगली
सरकार पर पड़ेगा. उसे इस काम के लिए धनराशि हासिल करने के लिए आर्थिक उदारीकरण के पहिए
को तेज करना होगा. आर्थिक गतिविधियों के बगैर मानव-कल्याण के कार्यों की उम्मीद भी
नहीं करनी चाहिए. फिलहाल हमने दुनिया की सबसे बड़ी सामाजिक-कल्याण योजना लागू करने
की ठान ली है तो उसे तार्किक परिणति तक पहुँचना होगा.
कांग्रेस मानती है कि यह कार्यक्रम गेम चेंजर है. यानी चुनाव
जिताने का मंत्र. विपक्ष मानता है कि दिल्ली, राजस्थान,
मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ विधान सभा चुनाव के पहले इसकी घोषणा
करके सरकार प्रचारात्मक लाभ लेना चाहती है. वृन्दा करात का कहना है कि सरकार चार साल
से सोई थी. जयललिता,
ममता बनर्जी, नवीन पटनायक,
रमन सिंह और शिवराज सिंह इसे केन्द्र-राज्य सम्बन्धों के लिए
अहितकर भी मानते हैं. इस योजना में राज्य सरकारों को न केवल लाभार्थियों की पहचान करनी
है,
इसके खर्च में हिस्सा भी बँटाना है. जयललिता कहती हैं कि सामाजिक
सुरक्षा का मसला राज्य सरकारों के अधीन रहना चाहिए. दरअसल उत्तर प्रदेश, बिहार तथा
कुछ अन्य पिछड़े इलाकों को छोड़ दें तो राज्य सरकारें अपने साधनों के आधार पर खाद्य
सुरक्षा की योजनाएं चला भी रहीं है. दक्षिण के राज्यों में सार्वजनिक वितरण प्रणाली
जीवित है.
अकाली दल कहता है कि इससे बेहतर हमारी ‘आटा-दाल’ स्कीम है जो हम
सन 2007 से चला रहे हैं. छत्तीसगढ़ नब्बे फीसदी नागरिकों को सस्ता अनाज देता है. मध्य
प्रदेश में भी यह स्कीम है. तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल और
ओडीशा में भी सार्वजनिक वितरण प्रणालियाँ काम कर रहीं हैं. राष्ट्रीय सलाहकार परिषद
(एनएसी) ने सभी नागरिकों को कवर करने वाली योजना बनाई थी. पर सरकार ने लागू करने की
हिम्मत नहीं दिखाई. अब जब यह कानून पास हो गया है तो इसके उपबंधों की व्यवहारिकता की
परीक्षा होगी. देखना यह है कि इस कानून में लोगों की शिकायतों की सुनवाई की व्यवस्था
किस तरह काम करेगी. केन्द्र और राज्यों के मसले किस तरह निपटेंगे और लाभार्थियों को
किस तरह चुना जाएगा. किसी को खाद्य सुरक्षा नहीं मिले तो वह किससे शिकायत करेगा? इसके लागू होते-होते
चुनाव आ जाएंगे. यानी अगली सरकार के सामने दुधारी तलवार है. एक तरफ उदारीकरण और दूसरी
ओर खाद्य सुरक्षा. सोनिया गांधी को यकीन है कि अगली सरकार यूपीए की होगी, तो उन्होंने
इन बातों पर भी सोचा होगा.
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