भारत से रिश्तों को सुधारने के लिए नवाज शरीफ के विशेष दूत शहरयार खान ने एक दिन पहले कहा कि दाऊद इब्राहीम पाकिस्तान में था, पर उसे वहाँ से खदेड़कर बाहर कर दिया गया है। अगले रोज वे अपने बयान से मुकर गए। भारत-पाकिस्तान रिश्तों में ऐसे क्षण आते हैं जब लगता है कि हम काफी पारदर्शी हो चले हैं, पर तभी झटका लगता है। इसी तरह जनवरी 2009 में पाकिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार महमूद दुर्रानी को इस बात के लिए फौरन बर्खास्त कर दिया गया जब उन्होंने कहा कि मुम्बई पर हमला करने वाला अजमल कसाब पाकिस्तानी है। दोनों देशों के बीच रिश्तों को बेहतर बनाना इस इलाके की बेहतरी में हैं, पर जल्दबाजी के तमाम खतरे हैं।
इसी शुक्रवार को सेना, खुफिया एजेंसियों और नागरिक प्रशासन के
40 पूर्व प्रमुख अधिकारियों ने एक वक्तव्य जारी करके कहा है कि भारत को पाकिस्तान के
साथ नरमी वाली नीति खत्म कर देनी चाहिए। अब हमें ऐसा इंतजाम करना चाहिए कि हरेक आतंकवादी
गतिविधि की कीमत पाकिस्तान को चुकानी पड़े। भले ही भारत पाकिस्तान के अधिकारियों के
साथ बातचीत जारी रखे, पर अब नए सिरे से सोचना शुरू करे। अब अति हो गई है। उनका आशय
है कि हमें उसके साथ संवाद फिर से शुरू करने की जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए।
पुंछ में पाँच भारतीय सैनिकों की हत्या के बाद भारत-पाकिस्तान
रिश्तों में फिर से तनाव है। दोनों के रिश्ते खुशनुमा तो कभी नहीं रहे। पर जैसा तनाव
इस साल जनवरी में पैदा हुआ था और और अब फिर पैदा हो गया है, वह परेशान करता है। पाकिस्तान
के भीतर कोई तत्व ऐसा है जो दक्षिण एशिया में शांति-स्थापना की किसी भी कोशिश को फेल
करने पर उतारू है। पर वहाँ ऐसे लोग भी हैं जो रिश्तों को ठीक करना चाहते हैं। कम से
कम सरकारी स्तर पर तल्खी घटी है। इसका कारण शायद यह भी है कि पाकिस्तान में पिछले पाँच
साल से लोकतांत्रिक सरकार कायम है। यह पहला मौका है, जब वहाँ सत्ता का हस्तांतरण शांतिपूर्ण
और लोकतांत्रिक तरीके से हुआ है। क्या यह सिर्फ संयोग है कि वहाँ नई सरकार के आते ही
भारतीय सैनिकों पर हमला हुआ? सन 2008 में
जब दोनों देश कश्मीर पर सार्थक समझौते की ओर बढ़ रहे थे मुम्बई कांड हो गया? क्या वजह है कि दाऊद इब्राहीम के पाकिस्तान में रहने का इंतजाम किया है और
वहाँ की सरकार इस बात को मानती नहीं? इन सवालों का जवाब खोजने
के पहले हमें पाकिस्तान के पिछले दो साल के घटनाचक्र पर नजर डालनी चाहिए।
दो साल पहले पाकिस्तान के वॉशिंगटन स्थित पूर्व राजदूत हुसेन
हक्कानी पर पाकिस्तान के कट्टरपंथी तबके ने आरोप लगया कि उन्होंने अमेरिकी सेनाओं के
अध्यक्ष माइकेल मुलेन को चिट्ठी लिखी थी कि वे पाकिस्तान में हस्तक्षेप करें, क्योंकि वहाँ सेना सत्ता अपने हाथ में लेना चाहती है। यह चिट्ठी
लिखी गई या नहीं यह साबित नहीं हुआ। पर आरोप लगने के बाद उन्हें अपने पद को छोड़ना
पड़ा। इसके बाद यह मामला वहाँ की सुप्रीम कोर्ट में गया और अब भी उसपर पड़ताल चल रही
है। लगभग उसी समय से देश की नागरिक सरकार और सुप्रीम कोर्ट के बीच तनातनी शुरू हो गई।
इस तनातनी के न्यायिक कारण जो भी रहे हों, पर कट्टरपंथी तबका नागरिक सरकार के खिलाफ
था। खासतौर से ओसामा बिन लादेन की हत्या के बाद से कट्टरपंथियों की अपनी सरकार से शिकायतें
बढ़ गईं। सेना और नागरिक सरकार के बीच के रिश्ते भी खराब होने लगे।
हुसेन हक्कानी वाले मामले में जब अदालत ने सेनाध्यक्ष को समन
किया तब सेनाध्यक्ष ने नागरिक सरकार से अनुमति नहीं ली। उन्हीं दिनों प्रधानमंत्री
गिलानी ने एक चीनी अखबार से कहा कि कहा कि सेनाध्यक्ष ने अदालत में खड़े होने के लिए
हमसे अनुमति नहीं ली। और फिर जब रक्षा सचिव नईम खालिद लोधी ने सुप्रीम कोर्ट में जाकर
कहा कि सेनाध्यक्ष हमारे अधिकार क्षेत्र में नहीं आते तो प्रधानमंत्री ने इस काम को
न सिर्फ ‘ग्रॉस मिसकंडक्ट’ कहा बल्कि उन्हें पद से हटा दिया। इसके बाद आईएसआई चीफ शुजा पाशा भी हटाए गए। यानी
नागरिक सरकार अपने अधिकार क्षेत्र को लेकर दृढ़ता पूर्वक खड़ी होने लगी। यह बात फौजी
जनरलों के गले नहीं उतरी।
अंततः यूसुफ रजा गिलानी को पद से हटना पड़ा। पर उसमें सेना का
नहीं, सुप्रीम कोर्ट का हाथ था। देश में अब दूसरा जम्हूरी निजाम आया है। राष्ट्रपति
नए हैं। और अगले दो महीनों में वहाँ नए सेनाध्यक्ष और सुप्रीम कोर्ट के नए मुख्य न्यायाधीश
की नियुक्ति होगी। आप पूछ सकते हैं कि इस बात का हमारे सैनिकों की हत्या से क्या रिश्ता
है। रिश्ते को पूरी तरह समझाना अभी सम्भव नहीं है, पर इतना साफ है कि पाकिस्तानी सेना
और भारतीय सेना की संरचना में अंतर है। वह किसी न किसी रूप में देश की राजनीति और नीतियों
में भागीदार है। सेना के अलावा वहाँ धार्मिक कट्टरपंथियों की समानांतर सत्ता है। और
हाफिज सईद जैसे लोगों पर उसका वरदहस्त है। इसलिए एके एंटनी ने मंगलवार को राज्यसभा
में जो वक्तव्य दिया था उसके पीछे कुछ जानकारियाँ और कुछ संशय जरूर होंगे। पर इतना
स्पष्ट है कि जो भी हुआ उसमें वहां की सेना भी शामिल होगी।
रक्षामंत्री ने गुरुवार को पाकिस्तानी सेना के खिलाफ कड़ा वक्तव्य
जारी करके राजनीतिक रूप से यूपीए सरकार के खिलाफ पैदा हुए जनाक्रोष को रोक भले लिया,
पर यह सवाल अपनी जगह कायम है कि किया जाए? क्या पाकिस्तान की सरकार आतंकवादी नेटवर्कों, संगठनों और ढांचे को ध्वस्त कर सकती है? क्या वह मुंबई हमले के लिए जिम्मेदार लोगों को सजा दिला सकती है? यह सब नहीं कर सकती तो हम उससे बात
करके क्या हासिल कर लेंगे? पर यह भी सच है कि मामले को शांत करने
में पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ के वक्तव्य ने भी भूमिका अदा की। उन्होंने
कहा कि मुझे भारतीय सैनिकों की हत्या पर अफसोस है, पर भारत और पाकिस्तान दोनों के लिए
यह ज़रूरी है कि वे कश्मीर सीमा पर युद्धविराम को प्रभावशाली तरीके से कायम करें। यदि
पाकिस्तान की मुख्यधारा इस हद तक भारत विरोधी है तो वहाँ के प्रधानमंत्री भारत से बात
क्यों करना चाहते हैं?
कुछ समय पहले एक भारतीय टीवी चैनल पर पत्रकार शेखर गुप्ता से
बात करते हुए हुसेन हक्कानी ने कहा कि भारत के लोगों को मैं बताना चाहूँगा कि समूचा
पाकिस्तान एक जैसा ही नहीं है। यह जेहादी देश भी नहीं है। हाँ वहाँ काफी जेहादी हैं, पर वे इसलिए सक्रिय हैं, क्योंकि चुनाव नहीं जीत पाते हैं। हुसेन हक्कानी मानते हैं कि पाकिस्तानी लोकतंत्र
अपनी शक्ल ले रहा है। उनका यह भी मानना है कि पाकिस्तान को अपने सैद्धांतिक आधार को
बदलना होगा। उसे लड़ाइयाँ लड़ने और जीतने की धारणा त्याग कर अपनी जनता के हितों के
बारे में सोचना चाहिए।
सवाल कई हैं। पहला यही है कि क्या हमें इस बात पर यकीन है कि
पाकिस्तान के भीतर समझदार लोग भी हैं? दूसरा यह कि नवाज शरीफ क्या गम्भीरता के साथ हमारे प्रधानमंत्री से बात करना
चाहते हैं? हमें यह भी याद करना चाहिए कि नवाज शरीफ के एक अखबारी
इंटरव्यू के जवाब मेंअटल बिहारी वाजपेयी बस लेकर लाहौर यात्रा पर निकल पड़े थे। और
यह भी याद है कि उस यात्रा के फौरन बाद करगिल पर हमला हो गया था। और उस वक्त नवाज शरीफ
ने कहा था कि पाकिस्तानी सेना ने करगिल में जो कुछ किया उसकी मुझे भनक भी नहीं लगने
दी। तत्कालीन पाकिस्तानी सेनाध्यक्ष परवेज मुशर्रफ का कहना था कि नवाज शरीफ झूठ बोल
रहे हैं। झूठ-सच जो भी हो परवेज मुशर्ऱफ ने शरीफ का तख्ता पलट दिया। आज परवेज मुशर्रफ
जेल में हैं। और सवाल वही है, क्या भारत और पाकिस्तान के बीच सामान्य रिश्ते बना पाना
सम्भव है?
रिश्ते सामान्य तभी होंगे जब दोनों देशों की जनता चाहेगी। पर
इतना तय है कि रिश्तों के सामान्य होने से दोनों देशों की प्रगति की राहें खुलेंगी।
पर मन में संदेहों के ज्वालामुखी जलेंगे तो काहे की प्रगति? सही यह भी है कि सीमा के दोनों ओर ऐसी राजनीतिक शक्तियाँ भी हैं
जो रिश्तों को सामान्य बनाने में बाधक हैं। इसलिए दोस्ती का हाथ बढ़ाने का मतलब है
आग से खेलना। इसके विपरीत संवाद तोड़ने का मतलब भी पाकिस्तानी चरमपंथियों की मुराद
पूरी करना है। आखिर वे भी यही चाहते हैं।
हरिभूमि में प्रकाशित
सतीश आचार्य का कार्टून |
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