Tuesday, August 27, 2013

लोक और तंत्र के बीच यह कौन बैठा है?

पिछले साल दिसम्बर में दिल्ली गैंगरेप की घटना के बाद अचानक लोगों का गुस्सा फूट पड़ा। वे समझ नहीं पा रहे थे कि किसके खिलाफ इस गुस्से का इजहार करें? और किससे करें? देश भयावह संदेहों का शिकार है। एक तरफ आर्थिक संवृद्धि, विकास और समृद्धि के कंगूरे हैं तो दूसरी ओर भ्रष्टाचार और बेईमानी की कीचड़भरी राह है। समझ में नहीं आता हम कहाँ जा रहे हैं? आजादी के 66 साल पूरे हो चुके हैं और लगता है कि हम चार कदम आगे आए हैं तो छह कदम पीछे चले गए हैं। दो साल पहले इन्हीं दिनों अन्ना हजारे का आंदोलन जब शुरू हुआ था तब उसके साथ करोड़ों आँखों की उम्मीदें जुड़ गई थीं। पर वह आंदोलन तार्किक परिणति तक नहीं पहुँचा। और अन्ना आज अपनी जनतांत्रिक यात्राओं के साथ देश के कोने-कोने में जा रहे हैं। पर संशय कम होने के बजाय बढ़ रहे हैं। संसद से सड़क तक देश सत्याग्रह की ओर बढ़ रहा है। सत्याग्रह यानी आंदोलन। कैसा आंदोलन और किसके खिलाफ आंदोलन? गांधी का सत्याग्रह सुराज की खोज थी। कहाँ गया सुराज का सपना?


सत्याग्रह का शाब्दिक अर्थ है सच के लिए आग्रह करना। यह शब्द भारत में नहीं दक्षिण अफ्रीका में गढ़ा गया था। उन्नीसवीं सदी के आखिरी दशक में दक्षिण अफ्रीका के भारतीयों के अधिकारों की रक्षा के लिए महात्मा गांधी ने कानून भंग करने का रास्ता खोजा था। पर उनके पास अपने आंदोलन का नाम नहीं था। गांधी ने अपनी डायरी में लिखा है, "हम में से किसी को भी ज्ञात नहीं था कि हम अपने आंदोलन को क्या नाम दें। मैंने तब इसके लिए अंग्रेज़ी नाम 'पैसिव रेजिस्टेंस' का प्रयोग किया परन्तु यह मुझे ठीक से पता नहीं था कि 'पैसिव रेजिस्टेंस' का क्या प्रभाव पड़ेगा। मैं केवल यह जानता था कि एक नए सिद्धांत ने जन्म लिया है. संघर्ष जैसे-जैसे आगे बढ़ा, 'पैसिव रेजिस्टेंस' शब्द ने उलझन पैदा कर दी और लज्जाजनक लगने लगा कि इस महान संघर्ष को केवल एक अंग्रेज़ी नाम से जाना जाए और फिर उस विदेशी शब्द का समाज में प्रचलन कठिन लग रहा था। हमारे संघर्ष के लिए सर्वश्रेष्ठ नाम सुझाने के लिए 'इंडियन ओपिनियन' में एक छोटे पुरस्कार की घोषणा की गई। हमें कई सुझाव मिले। मगनलाल गांधी एक प्रतियोगी थे और उन्होंने 'सदाग्रह' शब्द सुझाया जिसका अर्थ था- अच्छे कार्य के लिए दृढ़ता। मुझे यह शब्द पसंद आया परन्तु यह मेरे पूरे भाव की अभिव्यक्ति नहीं करता था इसलिए मैंने इसे सुधार कर 'सत्याग्रह' कर दिया।

सवाल है गांधी के उस सत्याग्रह की तार्किक परिणति क्या 1947 में हो गई? नहीं हुई तो क्या हासिल किया पिछले 66 साल में? भ्रष्टाचार क्या हमारी उपलब्धि है? या उसके खिलाफ चल रहा सतत आंदोलन उपलब्ध है? क्या हम अपनी समस्याओं को समझते हैं? क्या हमारे पास समाधानों के सूत्र हैं? इन सवालों को जवाब आपको ही देने हैं और दृढ़तापर्वक देने हैं। वही होता है सत्याग्रह!

यह जो नन्हा है भोला-भाला है
खूनीं सरमाए का निवाला है
पूछती है यह इसकी खामोशी
कोई मुझको बचाने वाला है!

अली सरदार ज़ाफरी की ये पंक्तियाँ यों ही याद आती हैं। पिछले कुछ साल से देश में आग जैसी लगी है। लगता है सब कुछ तबाह हो जाएगा। घोटालों पर घोटाले सामने आ चुके हैं। कुछ आने वाले हैं। हमें लगता है ये घोटाले ही सबसे बड़ा रोग है। गहराई से सोचें तो ये घोटाले रोग नहीं रोग का एक लक्षण है। रोग तो कहीं और है।

नीरा राडिया के टेप
सुप्रीम कोर्ट का कहना है राडिया-टेपों की बातचीत सुनकर लगता है कि हर सरकारी महकमे में दलाल मौजूद हैं। इनमें विदेशों में लेन-देन जैसे गंभीर मामलों की जानकारी भी है। कॉरपोरेट लॉबिस्ट नीरा राडिया के टेपों से जुड़े मामले की सुनवाई कर रही बेंच ने कहा, ‘सभी सरकारी हलकों में निजी लोगों की हर जगह मौजूदगी है। इन्हें आप लाइजनिंग ऑफिसर या दलाल बुलाते हैं। जस्टिस जीएस सिंघवी की अध्यक्षता वाली बेंच ने राडिया टेप की बातचीत के आधार पर कोई कार्रवाई न करने के लिए सरकारी एजेंसियों को फटकार लगाई। बेंच के मुताबिक बातचीत अलग-अलग मसलों से संबंधित है जो सरकारी एजेंसियों ने दरकिनार कर दिए। उन्होंने केवल उन्हीं अंशों पर ध्यान दिया जो 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन से संबंधित था। जबकि बातचीत 2जी के मुद्दे से कहीं ज्यादा व्यापक है। यह केवल टेलीकॉम क्षेत्र तक सीमित नहीं है। इसमें विदेशों में लेन-देन, कंपनियों की खरीदफरोख्त और अन्य गंभीर मसले हैं।अदालत ने सीबीआई से कहा है कि वह सभी 5800 बातचीतों को सुने और उनकी जाँच करे। सिर्फ और सिर्फ इन्हीं टेपों के आधार पर देश में भ्रष्टाचार के सूत्रों को खोजना शुरू किया जाएगा तो सैकड़ों केस देखते-देखते सामने आ जाएंगे। आप सोचिए देश में नीरा राडिया अकेली नहीं हैं। और उनके सारे वार्तालाप रिकॉर्ड नहीं हुए हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने नीरा राडिया की रिकार्ड की गई टेलीफोन बातचीत के आधार पर कोई कार्रवाई नहीं करने पर सरकारी एजेन्सियों को आड़े हाथ लिया। न्यायालय ने कहा कि राडिया की प्रमुख नेताओं, उद्योगपतियों और दूसरे व्यक्तियों से बातचीत से सीमा पार के लेन देन सहित अनेक गंभीर मामलों का पता चलता है। वित्त मंत्री को 16 नवंबर, 2007 को मिली एक शिकायत के आधार पर नीरा राडिया का टेलीफोन निगरानी पर रखा गया था और उसकी बातचीत रिकार्ड की गई थी । पर कहानी नीरा राडिया की नहीं है। नीरा राडिया के मार्फत जिन लोगों का कारोबार हुआ उनकी है। और इस कहानी में प्याज जैसी परतें ही परतें हैं। शायद नीरा राडिया के टेप कभी सुनाई न पड़ते। बताते हैं कि मुख्यधारा के मीडिया के बीच ये टेप इधर से उधर घूमते रहे। कोई हिम्मत नहीं कर रहा था। आखिर एक पत्रिका ने हिम्मत की और उसकी वैबसाइट पर ये टेप आ गए। उसके बाद एक और पत्रिका ने इस मामले को उठाया। मुख्यधारा के अखबारों और टीवी चैनलों ने इसकी ओर काफी देर से ध्यान दिया और फिर बिसरा दिया। अब जिम्मेदारी सीबीआई की है। शायद कुछ और बातें सामने आएं। पर सवाल सीबीआई का भी है। वह तो चाकरों की संस्था है। उसे जितना अधिकार प्राप्त है उतना ही काम करेगी। यह बात बरसों से कही जा रही है। कौन है जो इस बात को सुने?

चोरों की मौज, शरीफों की नींद हराम
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पिछले साल अक्टूबर में सीबीआई तथा भ्रष्टाचार विरोधी सरकारी संगठनों के अधिकारियों की बैठक में कहा कि कॉरपोरेट सेक्टर के भ्रष्टाचार को भी भ्रष्टाचार निवारण कानून में शामिल किया जाना चाहिए। उनकी इस बात पर यकीन किया जाना चाहिए कि नई आर्थिक नीतियों ने पुराने तरीके के भ्रष्टाचार को कम किया है तो उसकी जगह नए तरीके के भ्रष्टाचार ने ली है। सन 1991 में जब पहली बार उर्वरक पर सब्सिडी खत्म करने की घोषणा की थी, उस वक्त देश की हजारों ऐसी कम्पनियों का पता लगा जो न तो खाद बनाती थीं और उन्हें बेचती थीं। बस सब्सिडी लेती थीं। गायों के कान काटकर बीमे की राशि वसूली जा रही थी। सरकारी राशन की दूकानों से लेकर रेलवे रिज़र्वेशन के काउंटर तक भ्रष्टाचार का जो रूप था वह कम हुआ है, पर टू-जी और सीडब्ल्यूजी जैसे नए रूपों में उभर कर आया है।

प्रधानमंत्री ने उस बैठक में यह भी कहा कि हमें नकारात्मकता से बचना चाहिए। देश में सरकार और व्यवस्था को लेकर गहरी नकारात्मक समझ है। क्या वास्तव में सब चोर हैं? ऐसा होता तो व्यवस्था कब की बैठ चुकी होती। जितने घोटाले सामने आए हैं वे भी सामने न आए होते। पर यह भी सही है कि चोरों की तादाद इतनी छोटी नहीं है, जितनी हम समझ रहे हैं। दूसरे व्यवस्थाएं ऐसी हैं कि चोरों की मौज है और शरीफों  की नींद हराम है। हमने जनता को जानकारी पाने का अधिकार तो दे दिया, पर सरकारी मशीनरी को उसके अनुरूप तैयार नहीं किया है। फिर भी बदलाव की अनिवार्य शर्त है कि होना इसी व्यवस्था के तहत है, इसलिए चोर-चोर का शोर मचाकर इसे बदनाम करने के बजाय इसे सुधारने की कोशिश की जाए।

सन 1991 के बाद अर्थव्यवस्था के जितने सेक्टर खुले हैं सब में किसी न किसी किस्म की शिकायत है। सबसे पहले सुखराम और कुछ सरकारी अधिकारियों को सजा मिली। उसके बाद ए राजा को जेल जाना पड़ा। कलमाडी जेल गए। और अभी अनेक राजनेता जाएंगे। व्यवस्था को इसके लिए तैयार होना है। पर उसे सड़क पर नहीं सुधारा जा सकता। उसके लिए संसद का सहारा चाहिए। इधर दो मामले ऐसे हुए हैं जिन्हें लेकर जनता को राजनेताओं से शिकायत है। पहला है मुख्य चुनाव आयुक्त का फैसला कि देश के छह राष्ट्रीय राजनीतिक दल जनता के जानकारी पाने के अधिकार के तहत आते हैं। दूसरा है सुप्रीम कोर्ट का फैसला कि अदालत से दो साल से ज्यादा की सजा पाने वाले जन प्रतिनिधि की सदस्यता स्वतः समाप्त हो जाएगी, भले ही उसने ऊँची अदालत में अपील की हो। इन दोनों बातों को राजनेता स्वीकारने को तैयार नहीं हैं। और सरकार भी उनकी राय से सहमत है।

ज़ुबान पर रखी शहद की बूँद
कहा जा रहा है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ कड़ा कानून बन गया तो दिल्ली और मुम्बई के कॉमर्शियल कॉम्प्लेक्स जेलों में तब्दील हो जाएंगे। भ्रष्टाचार कोई नई बात नहीं है। हजारों साल से चला आ रहा है। कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में चालीस किस्म के आर्थिक घोटालों का जिक्र किया है। उन्होंने लिखा है कि यह सम्भव नहीं कि सरकारी कर्मचारी ज़ुबान पर रखी शहद की बूँद का स्वाद नहीं लेगा। यह नज़र रखना मुश्किल है कि मछली कितना पानी पीती है। कौटिल्य ने भ्रष्ट आचरण के खिलाफ बेहद कड़े कानूनों की व्यवस्था की थी। मुगल शासन में सरकारी घोड़ों की खरीद से लेकर राजस्व वसूली तक भ्रष्टाचार था। बख्शीश शब्द मुगल दरबारों से ही आया है। अंग्रेज कम्पनी सरकार ने आधुनिक भ्रष्टाचार की नींव डाली। गवर्नर जनरल वॉरेन हेस्टिंग्स के खिलाफ इसी किस्म के आरोपों को लेकर महाभियोग चला था। इसी तरह पॉल बेनफील्ड नाम के इंजीनियर की कहानी है, जिसे कई बार नौकरी से हटाया गया। वह जब वापस गया तो लाखों की कमाई करके ले गया। जैसे-जैसे कमाई के दरवाजे खुलते जाएंगे वैसे-वैसे बेईमानों पर नजर रखने वाले दरवानों को बढ़ाने की जरूरत होगी। पर ऐसा हो नहीं पा रहा है।

वीरप्पा मोइली की अध्यक्षता में बने दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग की चौदहवीं रपट गवर्नेंस की नैतिकता पर केन्द्रित है। जनवरी 2007 में पेश की गई यह रपट तमाम सरकारी रपटों की तरह कहीं पड़ी है। इसमें सार्वजनिक भ्रष्टाचार रोकने के ज्यादातर उपाय भ्रष्टाचार निरोधक कानूनों में बदलाव के बाबत हैं। भ्रष्टाचार रोकने के साथ-साथ जनता की सेवा के कानूनों में भी बड़े बदलाव की ज़रूरत है। सन 2011 के दिसम्बर में जब लोकपाल विधेयक पेश किया जा रहा था, दो और कानूनों की चर्चा थी। एक था ह्विसिल ब्लोवर संरक्षण कानून और दूसरा सिटिज़न चार्टर। यानी सरकारी सेवाओं की समयबद्ध गारंटी। सामान्य व्यक्ति को अपने काम में दिक्कत आती है तब वह परेशान होता है। आज भी ऐसी व्यवस्थाएं नहीं हैं जो जनता के सही काम सही वक्त पर पूरे करने की गारंटी दे सकें। इन कानूनों को पास होना चाहिए। ये कानून पास क्यों नहीं हो पाए?  अकेले विरोधी दल ही चाहते तो लोकपाल कानून पास हो सकता था। सीबीआई को स्वतंत्र बनाने के मामले में लगभग सारे दल एकमत हैं कि इसे स्वतंत्र नहीं होना चाहिए। यह सबसे बड़ा पाखंड है। राजनीति के प्राण तोतों में नहीं जनता के दिल में बसने चाहिए।

पिछले दो दशक का इतिहास घोटालों का इतिहास है। सूची बनाई जाए तो अकारादिक्रम से सैकड़ों ऐसे मसलों की सूची बनती है, जो राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा में आए। पिछले तीन साल से भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनों ने हमें घेर रखा है। एक लिहाज से हमारे जीवंत लोकतंत्र के लिए यह शुभ लक्षण है। आखिरकार जनता सामने आकर अपना विरोध व्यक्त कर रही है। पर क्या भ्रष्टाचार देश की सबसे बड़ी समस्या है? और है तो उसके लिए हम कर क्या रहे हैं? यह अगस्त का महीना है। स्वतंत्रता दिवस और अगस्त क्रांति का महीना। सन 2011 के अगस्त महीने में अन्ना हजारे ने एक आंदोलन की घोषणा की थी। और 15 अगस्त को उन्हें गिरफ्तार कर लिया। अन्ना के उस आंदोलन ने एक दिन में ही जबर्दस्त मोड़ लिया और सरकार ने उन्हें रिहा कर दिया। अन्ना के अनशन के आगे सरकार झुक गई और 30 अगस्त को भारतीय संसद ने भ्रष्टाचार के खिलाफ कानून पास करने की मंशा व्यक्त की थी। वह कानून आज तक पास नहीं हुआ। उसके बाद अन्ना का आंदोलन भी तितर-बितर हो गया। और जनता मायूस होकर रह गई।

लोकतंत्र और हम
लगता है हम लोकतंत्र से भाग रहे हैं। या फिर हम अभी लोकतंत्र के लायक नहीं हैं। या लोकतंत्र हमारे लायक नहीं है। या लोकतंत्र को हम जितना पाक-साफ समझते हैं, वह उतना नहीं हो सकता। उसकी व्यावहारिक दिक्कतें हैं। वह जिस समाज में है, वह खुद पाक-साफ नहीं है। अन्ना के आंदोलन के दौरान बार-बार यह बात कही जाती थी कि कानून बनाने से भ्रष्टाचार खत्म नहीं होगा। इसके लिए बड़े स्तर पर सामाजिक बदलाव की जरूरत है। बहरहाल न सामाजिक बदलाव हुआ और न कानून बना। हम जहाँ के तहाँ खड़े हैं।

हाल में एक राजनेता ने घोषणा की कि राज्यसभा की एक सीट 100 करोड़ रुपए में मिलती है। किसी को उसकी बात पर विस्मय नहीं हुआ। इधर एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) की ओर से आपराधिक रिकॉर्ड वाले जनप्रतिनिधियों पर किए गए सर्वे के परिणाम सामने आए हैं। यह सर्वे भी नहीं है, बल्कि इलेक्शन वॉच के दस साल के आँकड़ों का विश्लेषण है। ये आँकड़े जन प्रतिनिधियों के हलफनामों से निकाले गए हैं। पहला निष्कर्ष है कि जिसका आपराधिक रिकॉर्ड जितना बड़ा है उनकी संपत्ति भी उतनी ज्यादा है। साफ-सुथरे प्रत्याशियों के जीतने की सम्भावना 12 प्रतिशत है और आपराधिक पृष्ठभूमि वालों की सम्भावना 23 प्र.श.। एक रोचक तथ्य यह है कि आपराधिक पष्ठभूमि के जन प्रतिनिधियों में से 74 फीसदी को दूसरी बार भी टिकट मिलता है। इस सर्वे में दुबारा चुनाव लड़ने वाले 4181 प्रत्याशियों की सम्पदा का विश्लेषण किया गया है। इन प्रत्याशियों की औसत सम्पदा 1.74 करोड़ से बढ़कर पाँच साल में 4.08 करोड़ रु हो गई। इसे सामान्य बात मान लेते हैं, पर इनमें से 1615 की सम्पदा 200 प्रतिशत से ज्यादा, 684 की 500 प्रतिशत से ज्यादा, 420 की 800 प्रतिशत से ज्यादा और 317 की 1000 प्रतिशत से ज्यादा बढ़ी। इनका कारोबार चाहे जो भी रहा हो, एक हजार फीसदी से ज्यादा आमदनी बढ़ने का मतलब आप समझ सकते हैं।

इस सर्वे के तमाम तथ्यों को इस जगह पर रखना सम्भव नहीं है। अलबत्ता यह जरूर बताया जाना चाहिए कि यह जानकारी चुनाव आयोग की उस पहल के कारण सामने आई, जिसे राजनीतिक दलों के विरोध का सामना करना पड़ा था। और अब राजनीतिक दल इस व्यवस्था को पारदर्शी बनाने का विरोध कर रहे हैं। दुर्गाशक्ति नागपाल के मामले को भी इससे जोड़ें। एक जमाने तक राजनीति में अपराधियों का दिखाई पड़ना हड़कम्प मचा देता था। और अब इसमें शान है। दुर्गाशक्ति को निलम्बित करने का कारण सरकार कुछ और बताती है, पर जिस नेता पर आरोप है वह खुद कहता है कि मैने सस्पेंड कराया। यह किसी एक पार्टी की कहानी नहीं है। यह भी सच है कि राजनीति में झूठे आरोप लगते हैं। पर जनता को भी नजर आता है कि झूठ और सच क्या है। यह जनता की परीक्षा की घड़ी है।

सीबीआई की आजादी
भारतीय राज-व्यवस्था के प्राण तोतों में बसने लगे हैं। एक तोता सीबीआई का है, जिसमें अनेक राजनेताओं के प्राण हैं। फिर मायावती, मुलायम सिंह, ममता, करुणानिधि से लेकर पवन बंसल तक के तोते हैं। तू मेरे प्राण छोड़, मैं तेरे प्राण छोड़ूं का दौर है। ये सब तोते सात समंदर और सात पहाड़ों के पार सात परकोटों से घिरी मीनार की सातवीं मंजिल में सात राक्षसों के पहरे में रहते हैं। तोतों, पहाड़ों और राक्षसों की अनंत श्रृंखलाएं हैं, और राजकुमार लापता हैं। तिरछी गांधी टोपी सिर पर रखकर अरविन्द केजरीवाल दिल्ली में कटी बत्तियाँ जोड़ रहे हैं। पिछले 66 साल में भारतीय राजनीति में तमाम प्रतीक और रूपक बदले पर टोपियों और तोतों के रूपक नहीं बदले। इस दौरान हमने अपनी संस्थाओं, व्यवस्थाओं और नेताओं की खिल्ली उड़ानी शुरू कर दी है। आम आदमी मैंगो पीपुलमें तब्दील हो गया है। संज़ीदगी की जगह घटिया कॉमेडी ने ले ली है।

पिछले साल इन्हीं दिनों कोयला खानों के आबंटन के मामले ने सिर उठाया था। सीएजी रपट के कारण पहले यह मसला संसद में उठा और फिर सुप्रीम कोर्ट में गया। अदालत ने इस मामले की जाँच सीबीआई को दी और साथ में हिदायत दी कि जाँच के निष्कर्षों की जानकारी सरकार को न दी जाए। पर तत्कालीन कानून मंत्री और कुछ अधिकारियों ने न केवल रपट को देखा और उनमें कुछ बदलावों की सलाह भी दी। जैन हवाला मामले से जुड़े सन 1997 के विनीत नारायण केस के सिलसिले में सुप्रीम कोर्ट के आदेश में यह बात साफ कर दी गई थी कि सीबीआई को किसी भी बाहरी हस्तक्षेप से मुक्त रखा जाए। यानी सीबीआई की रपट को देखने का अधिकार उस मंत्री को भी नहीं है, जिसके अधीन सीबीआई है। चूंकि सीबीआई सीधे प्रधानमंत्री के अधीन है, इसलिए उन्हें भी यह अधिकार नहीं है। कानून मंत्री को तो है ही नहीं।

सीबीआई की स्वायत्तता औपचारिक रूप से संस्थागत उपचार का हिस्सा बन गई है। अब इसे तार्किक परिणति तक पहुँचना होगा। सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि विनीत नारायण मामले के बाद यह बात साफ हो जानी चाहिए थी कि सीबीआई के काम में किसी को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। और अब सरकार को इस बारे में कानूनी व्यवस्था करनी होगी। यों भी अदालत का यह साफ निर्देश था कि रपट सीधे अदालत को दी जाएगी, सरकार से शेयर नहीं की जाएगी। अदालत ने सरकार से कहा है कि वह बताए कि सीबीआई को आजाद करने के लिए क्या उपाय किए जा रहे हैं। उसने सीबीआई से भी पूछा है कि क्या होना चाहिए। पर लगता है कि सरकार सीबीआई की इच्छा पूरी करने के पक्ष में नहीं है। केंद्र सरकार ने सीबीआई चीफ का न्यूनतम कार्यकाल तीन साल करने के सुझाव को नहीं माना और कहा है कि नियंत्रण नहीं होने पर इसका प्रमुख 'निरंकुश' हो जाएगा। सरकार ने एजेंसी पर नजर रखने के लिए अकाउंटेबिलिटी कमीशन का सुझाव दिया है। यानी उसका एक बॉस और बढ़ाने का सुझाव दिया है, जबकि सीबीआई ने इसका विरोध किया है। अबी समझ में नहीं आता कि सरकार के पास सीबीआई को स्वतंत्र बनाने की योजना क्या है।

फिल्म सत्याग्रह
संयोग है कि 30 अगस्त 2011 के भारतीय संसद के प्रस्ताव के ठीक दो साल बाद प्रकाश झा की नई फिल्म सत्याग्रह30 अगस्त को रिलीज हो रही है। सत्याग्रहमें अमिताभ बच्चन, अजय देवगन, करीना कपूर, अर्जुन रामपाल, मनोज वाजपेयी और अमृता राव की मुख्य भूमिकाएं हैं। प्रकाश झा राजनीतिक विषयों पर फिल्में बनाने के लिए प्रसिद्ध हैं। उनकी पिछली फिल्म आरक्षण कई कारणों से विवादास्पद रही। बताया जा रहा है कि यह फिल्म अन्ना हजारे के आंदोलन की पृष्ठभूमि में बनी है। अलबत्ता प्रकाश झा ने का कहना है कि 'सत्याग्रह' में अन्ना हजारे के विरोध प्रदर्शन की कोई झलक नहीं है। हाँ यह महात्मा गांधी और अन्ना हजारे की याद जरूर दिलाती है। इसमें अमिताभ बच्चन, अन्ना हजारे से मिलते-जुलते ऐसे आम आदमी के किरदार में नजर आएंगे, जो भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाता है। हालांकि अंदेशा यह भी है कि टीम अन्ना या किसी और को इस फिल्म को लेकर आपत्ति हो सकती है, इसलिए इसका प्रिव्यू नहीं किया जा रहा है। प्रकाश झा का कहना है, "सत्याग्रह के पात्र अन्ना हजारे व अरविंद केजरीवाल से प्रेरित नहीं हैं। 'राजनीति' के दौरान भी कयास लगाए जा रहे थे कि मैंने पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी व उनकी पत्नी को लेकर फिल्म बनाई है।" झा ने कहा, "मैं जानता हूं कि अन्ना हजारे के समर्थकों में मेरी नई फिल्म को लेकर संदेह है। मेरी फिल्म भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई को लेकर है। उसका किसी चरित्र विशेष से कोई संबंध नहीं।"

राज माया में प्रकाशित

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