मंजुल का कार्टून |
सचिन के तमाम भक्त सिर्फ इसलिए भक्त हैं, क्योंकि पिछले डेढ़ दशक से भारतीय मीडिया ने उन्हें क्या-क्या साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। टूथपेस्ट से लेकर मोबाइल फोन तक अब हम मीडिया की सलाह से लेते हैं। और मीडिया ने क्रिकेट के किसी खिलाड़ी को नही छोड़ा जिसने पान मसाले से लेकर अगरबत्ती खरीदने तक में हमें एक्सपर्ट सलाह न दी हो। मीडिया-संक्रमित देशवासी अपनी स्वतंत्र राय रखने में समर्थ ही नहीं हैं। पर भारतीय जनमानस उपभोक्ता उत्पादों और राजनीति में फर्क करता है। वह टूथपेस्ट आपके कहने से खरीद लेता है, पर वोट डालते समय किसी और आधार पर फैसला करता है।
सचिन तेन्दुलकर के क्रियाकलाप पर नज़र डालें तो आप पाएंगे कि देश का एक प्रभावशाली वर्ग उन्हें लगातार चढ़ाए रखना चाहता है। इसी वर्ग ने उन्हें खेल से संन्यास लेने से रोक रखा है। और इसी ग्रुप की मुहिम उन्हें भारत रत्न देने की थी। सचिन के बाद आए तमाम खिलाड़ी संन्यास ले चुके हैं, पर सचिन लगातार खेल रहे हैं। उनके एक हवाई महाशतक के लिए इतने लम्बे समय तक इंतज़ार किया गया। वस्तुतः वे जितने अच्छे खिलाड़ी हैं उससे ज्यादा उन्हें भुनाने की कामनाएं हैं।
सचिन के बजाय किसी और को राज्यसभा में मनोनीत किया जाता तो इतना विवाद न होता। चूंकि हम संगीत, साहित्य और कला के सवालों पर मनोनयन देखते रहे हैं। खिलाड़ी का मनोनयन पहली बार हुआ है इसलिए यह सवाल खड़ा हुआ है कि सचिन ही क्यों? जहाँ तक मनोनयन की बात है इसमें गलत कुछ नहीं है। पहले खिलाड़ी के रूप में सचिन स्वाभाविक नाम है। विवादों से घिरी यूपीए सरकार ने सारी बातों को नया मोड़ देने के लिए ऐसा किया है तो इसमें भी कुछ गलत नहीं। पर इतना ज़रूर है कि इस फैसले से सरकार की बजाय वाहवाही के फजीहत ही ज्यादा होगी। और सचिन के नाम पर वोट मिलने की उम्मीद लगानी भी नहीं चाहिए। सोनिया गांधी के गिर्द-गिर्द जो मंडली जमा है उसने अपने एजेंडा के मुताबिक यह काम कराया है। वह अपने प्रभा मंडल को व्यापक करने में व्यस्त है। कांग्रेस पार्टी इस किस्म के कामों में टाँग अड़ाकर जनता के करीब जाने के बजाय दूर चली जाती है। इसे देखें कि कैसे।
सचिन तेन्दुलकर देश के सबसे बड़े खेल प्रतीक बने यह सही है। पर उन्हें हौले से राजसत्ता के जागीरदारों ने अपने अमले में शामिल कर लिया। सचिन के महा-सैकड़े के बाद मुम्बई में हुई महा-पार्टी में बिजनेस, खेल, बॉलीवुड सितारों और ठेकेदारों का वही हुजूम देखने को मिला जिससे देश की जनता नाराज़ है। यह सिर्फ संयोग नहीं है कि इस वक्त के ज्यादातर बड़े आरोप राजनीति और खेल के ठेकेदारों पर लगे हैं। यह इंडियन पोलिटिकल लीग अपनी तार्किक परिणति की ओर बढ़ रही है। सचिन अपने आप को इस हुजूम से किस तरह अलग रखेंगे कहना मुश्किल है।
इस फैसले से जुड़ी कुछ और बातें भी हैं। कोई कह सकता है कि क्रिकेट ही महत्वपूर्ण है तो कपिल देव क्यों नहीं? उनकी टीम ने देश को उस मुकाम पर पहुँचाया जिसके बाद भारत में क्रिकेट क्रांति आई जिसकी पौध सचिन तेन्दुलकर भी थे। फिर सुनील गावस्कर, राहुल द्रविड़, सौरभ गांगुली, और अनिल कुम्बले का योगदान भी कम नहीं रहा। साथ ही इन खिलाड़ियों की सामाजिक भूमिका भी प्रशंसनीय रही। विश्वनाथन आनन्द, अभिनव बिन्द्रा, प्रकाश पादुकोण, पी गोपीचन्द, पीटी उषा, मिल्खा सिंह, रामनाथन कृष्णन, रमेश कृष्णन, लेंडर पेस और सानिया मिर्ज़ा भी हैं। इस सिलसिले में पी गोपीचन्द का नाम याद आता है जिन्होंने किसी कोला कम्पनी के विज्ञापन में हिस्सा लेने से इस आधार पर मना कर दिया था कि जिस चीज़ को मैं आपके स्वास्थ्य के लिए हितकर नहीं समझता उसका विज्ञापन नहीं करूँगा।
सचिन ने हाल में कहीं कहा कि मैने शराब और सिगरेट के विज्ञापन नहीं किए। हमारे यहाँ इन उत्पादों के विज्ञापन नही किए जाते, पर होते तो क्या सचिन उन्हें मना करते? वे कम से कम 32 प्रोडक्ट्स के विज्ञापन करते हैं। पर जनता क्या अपने सासंद से इस किस्म के विज्ञापन की अपेक्षा करती है? पिछले दिनों हेमा मालिनी ने संसद में स्वच्छ पेयजल का सवाल उठाया तो किसी ने कहा, आप तो वॉटर प्योरीफायर और आरओ का विज्ञापन करती हैं। जनता के करीब होने के लिए व्यक्ति को सादगी और सरलता की ज़रूरत होती है। सचिन का जीवन निर्मल और निष्कलंक है, पर उन्हें खुद को इलीट बनने से रोकना चाहिए। कम से कम तब जब वे अपनी सामाजिक भूमिका देख रहे हैं।
सचिन को किसी सम्मान और पुरस्कार की ज़रूरत नहीं है। पुरस्कार तो कृतज्ञ समाज देता है। सचिन का नाम इतना सहज है कि किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए। आपत्ति उस हड़बड़ी पर है जो ऐसे फैसलों को विवादास्पद बना देती हैं। भारत रत्न की पात्रता में खिलाड़ियों का नाम जोड़ने की बात शुरू ही इस बात से हुई कि हमें सचिन को यह पुरस्कार देना है। पुरस्कार देने की भावना और मंतव्य से जुड़े सवाल ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। हमने अपने खेल इतिहास को देखने की ज़रूरत नहीं समझी। हमने यह भी नहीं देखा कि खेलों का व्यावसायिक रूप हाल में सामने आया है। अब तो एक आईपीएल खेलने मात्र से खिलाड़ी की लाइफ बन जाती है। पर पुराने खिलाड़ी अपनी मेहनत, अपनी कमाई और अपने सहारे खेलते थे। देश में व्यक्तिगत रूप से ओलिम्पिक खेलों का पहला पदक लाने वाले पहलवान केडी जाधव को 1952 में हेलसिंकी जाने के पहले कोल्हापुर के कुछ दुकानदारों से मदद मिली थी। जब वे पदक जीतकर घर आए तो कोई इंटरव्यू, कोई मीडिया, कोई हाहाकार नहीं था। महाराष्ट्र के करड कस्बे से उनके गाँव तक 101 बैलगाड़ियों का काफिला आया था, बस इतना ही।
सचिन का सम्मान अच्छी बात है, पर सम्मान करने वाली व्यवस्था की साख अच्छी नहीं है। हमारा समाज और हमारी राज-व्यवस्था खेल-समर्थक नहीं है। हम प्रसिद्धि और आनन्दोत्सवों के मायाजाल में घिरे हैं। और इन्हें चलाने वालों के हाथों में डोर है। सबसे अच्छा सम्मान समाज करता है, बशर्ते वह करना चाहे।
हाईटेक न्यूज़ में प्रकाशित
aksharashah saty!
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