Friday, April 20, 2012

क्षेत्रीय क्षत्रपों का राष्ट्रीयकरण

ऐसे चित्र आपको कई बार दिखाई पड़ेंगे, सिर्फ चेहरे बदलते रहेंगे

म्यूनिसिपल कॉरपोरेशन ऑफ दिल्ली के हाल में हुए चुनाव में कांग्रेस की पराजय हुई। इसे बीजेपी की जीत भी कह सकते हैं। बीजेपी के खिलाफ एंटी इनकम्बैंसी फैक्टर जितना महत्वपूर्ण हो सकता था, नहीं हुआ। पर क्या नगरपालिका चुनाव को महत्व देना चाहिए? क्या उसका कोई राष्ट्रीय महत्व है? पालिका चुनाव में तो मुद्दे ही कुछ और होते हैं। दिल्ली के पहले मुम्बई नगर निगम के चुनाव में भी कांग्रेस की पराजय हो चुकी है।
हाल में हुए पाँच प्रदेशों के चुनाव परिणामों का एक निष्कर्ष यह था कि कांग्रेस हार रही है। पिछले साल के विधान सभा चुनावों में असम और केरल में कांग्रेस जीती थी, पर दोनों जगह जीत के साथ कई किन्तु-परन्तु जुड़े थे। केरल में आमतौर पर सत्तारूढ़ पार्टी हारती है। पर पिछले साल कांग्रेस की सबसे हास्यास्पद स्थिति केरल में ही बनी जहाँ एक दल के रूप में कांग्रेस से ज्यादा सीटें सीपीएम को मिली थीं। कांग्रेस को अब मुस्लिम लीग का सहारा है।


इस साल के विधान सभा चुनाव में कांग्रेस को पंजाब और उत्तर प्रदेश में सबसे बड़ा धक्का लगा। उत्तराखंड में सरकार बन गई, पर वैसी जीत नहीं मिली जिसकी उम्मीद थी। और वहाँ भी नए मुख्यमंत्री को विधानसभा चुनाव लड़ना होगा। हालात देखते हुए यह मुश्किल काम लगता है। दिल्ली पालिका चुनाव के परिणाम इस बात की ओर इशारा कर रहे हैं कि शहरों में कांग्रेस अलोकप्रिय हो रही है। इस बार के चुनाव अप्रत्याशित शहर की सफाई, स्ट्रीटलाइट और पानी के मुद्दों के बजाय राष्ट्रीय प्रश्नों पर केन्द्रित रहे। दिल्ली शहर ने अन्ना हजारे का आंदोलन देखा और यहाँ का मतदाता अक्सर राष्ट्रीय सवालों को उठाता है। सन 2009 के लोकसभा चुनाव में दिल्ली की सातों सीटें कांग्रेस को मिली थीं। दिल्ली विधानसभा चुनाव में एंटी इनकम्बैंसी के बावजूद कांग्रेस की सरकार लगातार जीतती रही है। पर इसबार दिल्ली का रुख बदला हुआ है। दिल्ली को मेट्रो मिली, कॉमनवैल्थ गेम्स मिले, लो फ्लोर बसें, फ्लाई ओवर और नई सड़कें मिलीं। और इन सबके बीच से निकला कांग्रेस की अलोकप्रियता का जिन्न। जिन वजहों से कांग्रेस की लोकप्रियता बढ़नी चाहिए थी, तकरीबन उन्हीं कारणों से उसकी अलोकप्रियता बढ़ी।

सन 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की जीत के बाद लगा था कि यह पार्टी फिर से वापसी कर रही है। उसे सबसे बड़ा समर्थन उत्तर प्रदेश में मिला जहाँ इसे किसी किस्म की उम्मीद नहीं थी। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की वापसी का मतलब राष्ट्रीय स्तर पर जबर्दस्त कामयाबी का मिलना है। उसके बाद कांग्रेस ने आंध्र प्रदेश विधानसभा का चुनाव जीता। 2009 के पहले कांग्रेस पार्टी के खिलाफ सीपीएम ने मोर्चा खोल रखा था। उस जीत ने कांग्रेस के हौसले बढ़ा दिए और उसने बंगाल में ममता बनर्जी के साथ मिलकर सीपीएम के सफाए की तैयारी शुरू कर दी। बीजेपी में अटल बिहारी वाजपेयी युग खत्म हो रहा था। आडवाणी जी जिन्ना से जुड़े वक्तव्यों के कारण किनारे जा चुके थे। नितिन गडकरी एकदम अनजाने नए नेता थे। पार्टी के पास कोई मुद्दा ही नहीं था। यानी कांग्रेस को चुनौती देने वाली कोई शक्ति नहीं थी। पर शायद वह सफलता कांग्रेस के पराभव का कारण बनी।

अभी 16 अप्रेल को हुए मुख्यमंत्री सम्मेलन में नेशनल काउंटर टेररिज्म सेंटर (एनसीटीसी) को लेकर विपक्षी दलों के मुख्यमंत्रियों ने विरोध का झंडा बुलंद किया है। दिसम्बर के अंतिम सप्ताह में जब लोकपाल विधेयक पर संसद में बहस चल रही थी तब केन्द्र-राज्य सम्बन्धों को लेकर सवाल उठाए जा रहे थे। उसके पहले ममता बनर्जी खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश के बाबत सरकारी आदेश को वापस करवा चुकी थीं। तीस्ता नदी के पानी के इस्तेमाल पर बांग्लादेश के साथ समझौता पश्चिम बंगाल के हस्तक्षेप के कारण रोक दिया गया था। टू-जी का पूरा मामला क्षेत्रीय क्षत्रपों के बढ़ते प्रभाव का उदाहरण है। हाल में रेलमंत्री दिनेश त्रिवेदी को हटाते वक्त दो बातें साबित हुईं। एक यह कि अपने मंत्री तय करने का काम प्रधानमंत्री का नहीं है। और यह भी कि रेल बजट, खुदरा कारोबार और नदी के पानी का समझौता करना भी व्यावहारिक रूप से केन्द्र के अधीन नहीं है, भले ही सैद्धांतिक रूप से हो।

यह कांग्रेस की विफलता है या क्षेत्रीय पार्टियों के आगमन की सहज प्रक्रिया है? 2009 के बाद अचानक देश में क्षेत्रीय क्षत्रपों का समय आ गया है। ममता बनर्जी, जयललिता, नवीन पटनायक, नीतीश कुमार, मुलायम सिंह, मायावती, प्रकाश सिंह बादल की भूमिका बढ़ रही है। प्रश्न क्षेत्रीयता से ज्यादा क्षत्रपता का है। ज्यादातर क्षेत्रीय पार्टियाँ एक नेता के एक परिवार के झंडे तले हैं। जब तक नेता हैं तब तक की कहानी है। असम में सर्व भारतीय संयुक्त गणतांत्रिक मोर्चा नाम से मुसमानों की नई पार्टी उभर रही है। यह पार्टी कांग्रेस के बाद दूसरे नम्बर पर है। यह एक नई ताकत है।

कांग्रेस के पराभव के विकल्प में भाजपा का उदय भी सम्भव था, पर ऐसा होता भी नज़र नहीं आता। हाँ भाजपा इस क्षेत्रीयतावाद का फायदा उठाने की कोशिश करती ज़रूर नज़र आती है। एनसीटीसी की बहस में बीजेपी इस बात पर ज़ोर दे रही है कि दिल्ली की सरकार ने राज्य सरकारों को भरोसे में लिए बगैर फैसला कैसे कर लिया? बीजेपी की कोशिश है कि वह इसके सहारे एनडीए को फिर से तैयार कर ले। 2009 के लोकसभा चुनाव के बाद एनडीए लगातार बिखराव की ओर है। डीएमके का साथ उसने 2004 के चुनाव के पहले ही छोड़ दिया था। तेलगु देशम पार्टी और बीजू जनता दल भी दूर चले गए। अकाली दल और शिवसेना उसके साथ हैं। जेडीयू उसके साथ है, पर नरेन्द्र मोदी और मंदिर जैसे सवालों पर अपनी राय को सामने रखने में गुरेज नहीं करती। पार्टी के भीतर नरेन्द्र मोदी को केन्द्र में लाने के सवाल पर सहमति नहीं है। उधर नरेन्द्र मोदी एनसीटीसी को लेकर जयललिता और नवीन पटनायक वगैरह के साथ मिलकर एक राजनीतिक मोर्चा बनाने की कोशिश कर रहे हैं। यह मोर्चा किसी गठबंधन की शक्ल लेगा या नहीं कहना मुश्किल है।

कांग्रेस के पराभव के साथ-साथ यह भी साफ है कि क्षेत्रीय राजनीति अब राष्ट्रीय क्षितिज पर ज्यादा महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगी। पर क्या इस राजनीति में इतनी संजीदगी है? बेशक यह राजनीति कांग्रेस के वर्चस्व को खत्म कर देगी, पर वह विकल्प क्या देगी? गैर-कांग्रेसी मोर्चों का इतिहास बहुत अच्छा नहीं है। 1989 में केन्द्र में बनी वीपी सिंह की सरकार और उसके बाद 1996 से 2004 तक की सरकारें गैर-कांग्रेसी सरकारें थीं। इनमें एनडीए की सरकार में स्थिरता थी। एक माने में कांग्रेस के समानांतर बीजेपी एक राष्ट्रीय शक्ति है, जिसके इर्द-गिर्द क्षेत्रीय दल एकत्र हुए। इस लिहाज से क्षेत्रीय दलों के राष्ट्रीय गठबंधन तभी सफल हो पाते हैं जब उनमें कोई एक बड़ा राष्ट्रीय दल भी शामिल हो। फिलहाल राजनीतिक गणित ऐसा है कि कुछ पार्टियाँ एक साथ नहीं आ सकतीं। जैसे कि ममता बनर्जी और सीपीएम, मायावती और मुलायम, लालू और नीतीश, कांग्रेस और बीजेपी, डीएमके और जयललिता। एक इस मोर्चे में होगा तो दूसरा दूसरे मोर्चे में चला जाएगा। इसमें वैचारिक कारण भी हैं, पर उनसे ज्यादा व्यक्तिगत कारण हैं।

क्षेत्रीय पार्टियों का एक बड़ा दोष यह है कि वे अपने प्रदेश और अपने प्रभाव क्षेत्र के बारे में ही सोचती हैं। वे राष्ट्रीय राजनीति में ऐतिहासिक कारणों से प्रवेश कर रहीं हैं, किसी योजना या डिजाइन से नहीं। इस वजह से उन्होंने देश की अर्थ-व्यवस्था, विदेश नीति और राष्ट्रीय दृष्टिकोण को विकसित नहीं किया है। अच्छी बात यह है कि अब डीएमके के नेता उत्तर भारत के लोगों से बेहतर संवाद कर पाते हैं या उत्तर भारत के लोग असम, मणिपुर और गोवा की राजनीति को समझने लगे हैं। ज़रूरत इस बात की होगी कि वे राष्ट्रीय सवालों पर आमराय बनाएं। क्षेत्रीय राजनीति का इस किस्म का राष्ट्रीयकरण नहीं होगा तो दिक्कतें आएंगी। इसके साथ ही इन पार्टियों को आंतरिक लोकतंत्र का विकास भी करना चाहिए। यह बात राष्ट्रीय दलों पर भी बराबरी से लागू होती है।
जनवाणी में प्रकाशित

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