Sunday, April 22, 2012

अग्नि ज़रूरी है उसकी तपिश ज़रूरी नहीं

पिछले बुधवार को भारतीय मीडिया में सुबह से ही अग्नि-5 के परीक्षण की तैयारियों का विवरण जिस तरह आ रहा था उससे लगता है कि किसी स्तर पर इस खबर को सायास ओवरप्ले करने का फैसला किया गया था। पिछले कुछ समय से सेना और रक्षा व्यवस्था को लेकर नकारात्मक बातें मीडिया में आ रही थीं। शायद इस परीक्षण से उनका असर कुछ कम हो। बुधवार की शाम परीक्षण नहीं हो पाया, क्योंकि मौसम साथ नहीं दे रहा था, पर गुरुवार की सुबह परीक्षण सफल हो गया। उसके बाद दिनभर अग्नि की खबरें छाई रहीं।
देश की सुरक्षा और भारतीय तकनीकी विकास के लिहाज से यह खबर महत्वपूर्ण है और इस परीक्षण से जुड़े लोगों को बधाई देनी भी चाहिए, पर इससे जुड़े कुछ और सवालों पर भी हमें सोचना चाहिए।


विदेश नीति के लिहाज से पिछले दो हफ्तों में काफी सरगर्मियाँ रहीं हैं। पाकिस्तानी राष्ट्रपति आसिफ अली ज़रदारी के दौरे के बाद दोनों के बीच व्यापार को बढ़ाने की कोशिशें तेज़ हो गईं हैं। एक महत्वपूर्ण बात पाकिस्तानी सेनाध्यक्ष अशफाक कियानी ने सियाचिन के संदर्भ में कही है। यह बात सिर्फ सियाचिन तक सीमित होती तब इसका अर्थ कुछ और होता। जनरल कियानी ने सुरक्षा की ज़रूरतों और आर्थिक विकास के बीच संतुलन बनाने और भारत के साथ शांतिपूर्ण सह अस्तित्व स्थापित करने का सुझाव दिया है। पिछले हफ्ते काबुल सहित अफगानिस्तान के कई शहरों में हुए तालिबानी हमलों और पाकिस्तान के पश्चिमोत्तर सीमा क्षेत्र पर में बन्नू जेल पर हमला करके बड़ी संख्या में आतंकी अपराधों से जुड़े लोगों को छुड़ा ले जाने की घटनाओं के तार भी कहीं न कहीं इन सब बातों से जुड़े हैं। शांति, सुरक्षा और विकास का तालमेल कैसे हो? और हमारी मूल समस्या क्या है?

अग्नि मिसाइल पर चर्चा के दौरान हमारे एंकर इस बात पर खासतौर से जोर दे रहे थे कि दुनिया के सिर्फ पाँच देशों के पास ही अंतर महाद्वीपीय प्रक्षेपास्त्र हैं। और यह भी कि अब समूचा चीन हमारे निशाने पर है। हमारे मीडिया ने चीन के ग्लोबल टाइम्स में प्रकाशित एक ऑप-एड लेख में व्यक्त विचारों को भी प्रसारित किया जिसमें कहा गया था कि भारत को चीन से बराबरी की कोशिश नहीं करनी चाहिए। उसमें यह भी कहा गया था कि भारत के लोग मिसाइली विभ्रम में रहते हैं। हालांकि इस लेख में भारत के प्रति ऐसी कोई कड़वी बात नहीं थी, पर हमारे मीडिया को ऐसी बातों की तलाश थी। चीन के इस अखबार की प्रतिक्रिया के मुकाबले वहाँ के विदेश विभाग के प्रवक्ता की प्रतिक्रिया संयत थी। उन्होंने कहा कि भारत हमारा प्रतिस्पर्धी नहीं सहयोगी देश है। पर मीडिया का ध्यान इस प्रतिक्रिया पर नहीं गया।

क्या हमारे मीडिया की प्रतिक्रिया अतिरंजित और भड़काऊ थी? क्या हमें अपनी सुरक्षा पर ध्यान नहीं देना चाहिए? और क्या अपनी उपलब्धियों पर गर्व करना गलत है? एक चैनल पर बातचीत के दौरान पत्रकार प्रफुल्ल बिदवई ने कहा कि यह हायपर नेशनलिज्म है। दूसरे विश्वयुद्ध के पहले इटली और जर्मनी में इसी प्रकार की प्रतिक्रियाएं आती थीं। प्रफुल्ल बिदवई इस किस्म के खर्चों को निरर्थक मानते हैं। यह धारणा भी एकांगी है। इतने बड़े और विविधता से भरे देश की सुरक्षा व्यवस्था नहीं होगी तो उसे चलाना मुश्किल हो जाएगा। एक बड़ी अर्थव्यवस्था को सुरक्षा भी चाहिए। यह सुरक्षा जापान, दक्षिण कोरिया वियतनाम, जर्मनी, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका को भी चाहिए। न्यूयॉर्क टाइम्स ने भी यही सवाल किया है कि भारत को चीनी प्रेत-बाधा क्यों लगी है? तकनीक विकसित करना ठीक है, पर ऐसा क्यों लगे कि हम हथियारों की दौड़ चाहते हैं।

मिसाइल परीक्षण का यह काम अचानक नहीं हो गया और न अग्नि कार्यक्रम आज शुरू हुआ है। यह एक योजनाबद्ध कार्यक्रम है, जिसमें अग्नि-5 से आगे की मिसाइलों के परीक्षण भी होंगे। पर यह एक सामान्य गतिविधि है। इसके जुड़ा आवेश निरर्थक है। बेहतर होता कि हम इस बात पर ध्यान देते कि जब अग्नि का परीक्षण हो रहा था मुम्बई के लोकल ट्रेन यात्री भटक रहे थे। उसके सिग्नल सिस्टम में आई खराबी को ठीक करने में कई दिन लगे। हमें लाखों करोड़ रुपए चाहिए ताकि ग्रामीण और शहरी परिवहन व्यवस्था सुधर सके। हमारा आधार ढाँचा बेहद कमज़ोर है। उसे सुधारने की ज़रूरत है। किसी देश की सुरक्षा उसके नागरिकों की ताकत पर निर्भर करती है, हथियारों पर नहीं। तकरीबन यही बात अब अशफाक कियानी कह रहे हैं। यह बात अफगानिस्तान के लोगों को भी समझनी चाहिए कि ज़रूरी है लोगों का और लोकतांत्रिक संस्थाओं का विकास और सार्वजनिक खुशहाली। अब समय लड़ाइयों का नहीं है।

सब ठीक रहा तो भारत की विकास दर अगले साल फिर से आठ फीसदी को छू लेगी। सन 2014 में चन्द्रयान-2 का प्रक्षेपण होगा। उसी साल भारत का आदित्य-1 प्रोब सूर्य की ओर रवाना होगा। सन 2016 में पहली बार दो भारतीय अंतरिक्ष यात्री स्वदेशी यान में बैठकर पृथ्वी की परिक्रमा करेंगे। इसी दशक में भारत अपना मंगल ग्रह का अभियान भी शुरू करेगा। देश का हाइपरसोनिक स्पेसक्राफ्ट अवतार अब किसी भी समय सामने आ सकता है। न्यूक्लियर इनर्जी का महत्वाकांक्षी कार्यक्रम तैयार है। एटमी शक्ति से चलने वाली भारतीय पनडुब्बी अरिहंत पिछले साल नौसेना के बेड़े में शामिल हो चुकी है। नए राजमार्गों और बुलेट ट्रेनों का दौर भी शुरू होने वाला है। प्रायः सभी बड़े शहरों में मेट्रो ट्रेन चलाने की योजना है। देश की ज्ञान-आधारित संस्थाओं को जानकारी उपलब्ध कराने के लिए हाईस्पीड नेशनल नॉलेज नेटवर्क काम करने लगा है। हम विज्ञान और तकनीक के नए दौर में प्रवेश कर रहे हैं। पर यह सब कतार में सबसे पीछे खड़े व्यक्ति की खुशहाली पर निर्भर करेगा।

इन बातों का मतलब यह नहीं है कि हम अपनी सुरक्षा की अनदेखी करें। पर सुरक्षा प्रतिष्ठानों पर ज़रूरत से ज्यादा भरोसा भी न करें। हाल में हमारे फौजी जनरल ने प्रधानमंत्री के चिट्ठी लिखकर सुरक्षा ज़रूरतों में रह गई कुछ खामियों की ओर इशारा किया था। एक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि हमारी 70 फीसदी रक्षा जरूरतें विदेशी खरीद से पूरी होती हैं। इसीलिए हम दुनिया के सबसे बड़े हथियार आयातक माने जाते हैं। इस उद्योग का स्वदेशीकरण क्यों नहीं हो पाया? इस किस्म के सवालों पर से हमारा ध्यान हट जाता है और हम एक मिसाइल के साथ जुड़े राष्ट्रवाद में खो जाते हैं। सुरक्षा ज़रूरी मसला है, पर ठंडे मिजाज से विचार करने वाला है। आवेश की ज़रूरत नहीं है। ज़रूरत है समूचे दज्ञिण एशिया में शांति और सहयोग की।



सी एक्सप्रेस में प्रकाशित

1 comment:

  1. टीआरपी का दबाव कुछ इस क़दर हावी होता है कि अतिरंजना में बहना नीति बना ली जाती है, चाहे इस पार या नहीं तो उस पार। मतलब या तो घनघोर निराशाजनक स्थिति बताई जाए, इसके लिए खींच-खींच कर तर्क जुटाए जाएं, नहीं तो जोश और उत्साह का ऐसा दरिया बहाया जाए कि दर्शक देखे तो रुक जाए और बिना उसमें गोता लगाए (यानी बिना उस चैनल पर टिके) रह न पाए। खैर इस आपाधापी में खुशी के और गर्व के पल कम ही आते हैं और इन्हें भुनाने में किसी तरह के सवाल से बचना चाहते हैं तमाम चैनल। इक्का दुक्का ऐसे मीडिया हाउस हैं जहां विश्लेषण में बैलेंस पर ज़ोर दिया जाता है जो ज़रुरी और जिम्मेदारी है।

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