इस हफ्ते भारतीय विदेश-नीति का फोकस अमेरिका पर रहेगा. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अमेरिका की यात्रा पर जा रहे हैं. पिछले साल जून की उनकी अमेरिका-यात्रा ने राजनीतिक और राजनयिक दोनों मोर्चों पर कुछ बड़ी परिघटनाओं को जन्म दिया था. इसबार हालांकि भारत-अमेरिका रिश्ते पूरी तरह विमर्श के केंद्र में नहीं होंगे, पर होंगे जरूर. साथ ही भारत और शेष-विश्व के रिश्तों पर रोशनी भी पड़ेगी.
हाल में बांग्लादेश में हुए सत्ता-परिवर्तन के
बाद इस क्षेत्र में अमेरिका की भूमिका की ओर अभी तक हमारा ध्यान गया नहीं है. अमेरिकी
विदेश विभाग में दक्षिण और मध्य एशिया के लिए सहायक विदेशमंत्री डोनाल्ड लू भारत का
दौरा पूरा करके सोमवार तक बांग्लादेश में थे.
बताया जा रहा है कि उनकी इस यात्रा का उद्देश्य
बांग्लादेश के ताजा हालात की समीक्षा करने के अलावा भारत और बांग्लादेश के बीच के
मसलों को समझना भी है. शायद कड़वाहट को दूर करना भी. इस दौरान वे भारत-अमेरिका ‘टू प्लस टू’ अंतर-सत्र वार्ता में
भी शामिल हुए. दोनों देशों के बीच छठी वार्षिक ‘टू प्लस टू’ वार्ता इस साल किसी वक्त वॉशिंगटन में होनी है.
टू प्लस टू
दोनों देशों के बीच 2018 से शुरू हुई ‘टू प्लस टू’ स्तर की वार्ता ने कई स्तर पर रिश्तों को पुष्ट किया है. पिछली वार्ता नवंबर में हुई थी, जिसमें भारत के विदेशमंत्री एस जयशंकर और रक्षामंत्री राजनाथ सिंह और अमेरिका के विदेशमंत्री एंटनी ब्लिंकन व रक्षामंत्री लॉयड ऑस्टिन ने भाग लिया.
ये वार्ताएं दोनों
देशों राजनीतिक, राजनयिक, आर्थिक और
सामरिक-सहयोग की सैद्धांतिक-पृष्ठभूमि तैयार करने का काम करती हैं. उस वार्ता के
पहले गज़ा में लड़ाई शुरू हो चुकी थी और यूक्रेन में उसके पहले से चल रही थी.
इसलिए हालात में खास बदलाव नहीं है.
दोनों देशों के बीच
‘टू प्लस टू’ स्तर की पहली वार्ता सितंबर 2018 में हुई थी. तब भारत की ओर से
तत्कालीन विदेशमंत्री सुषमा स्वराज और रक्षामंत्री निर्मला सीतारमण और अमेरिका की
ओर से विदेशमंत्री माइकेल पॉम्पियो और रक्षामंत्री जेम्स मैटिस की नई दिल्ली में
मुलाकात हुई थी.
देश की बदलती सामरिक-नीति
का पता इस बात से भी लगता है कि अब हमारी ऑस्ट्रेलिया, जापान और ब्रिटेन
के साथ ‘टू प्लस टू’ वार्ताएं होने लगी हैं। ये तीनों देश अमेरिका के सहयोगी हैं.
दूसरी तरफ भारत की रूस के साथ भी ‘टू प्लस टू’ वार्ताएं होती हैं. हमारी विदेश-नीति ने अपनी स्वतंत्रता को कायम रखा है. हम किसी के
पिछलग्गू नहीं बन सकते हैं. इस बात की
परीक्षा होने की घड़ी भी अब आ रही है.
भारत का उदय
सितंबर 2018 में माइक
पोम्पिओ ने संयुक्त ब्रीफिंग में कहा था कि हम वैश्विक शक्ति के रूप में भारत के
उभरने का पूरी तरह से समर्थन करते हैं तथा हम अपनी साझेदारी के लिए भारत की समान
प्रतिबद्धता का स्वागत करते हैं. भारत के वैश्विक-शक्ति के रूप से उभरने की
परिघटना को महत्वाकांक्षी मानने के बजाय व्यावहारिक मानना चाहिए.
अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन 21 सितंबर को
डेलावेयर में चौथे क्वाड शिखर सम्मेलन के लिए पीएम मोदी और अन्य नेताओं की मेजबानी
करेंगे. इस सम्मेलन का उद्देश्य स्वतंत्र और खुले हिंद-प्रशांत क्षेत्र के साझा
दृष्टिकोण को विकसित करना है. इसमें जो बाइडेन और पीएम मोदी के अलावा ऑस्ट्रेलिया
के प्रधानमंत्री एंथनी अल्बानीज़ और जापान के प्रधानमंत्री किशिदा फुमियो शामिल
होंगे.
अगला क्वाड शिखर सम्मेलन भारत में होने वाला
है. इस सम्मेलन की बातें भारत में और आगे बढ़ेंगी. क्वॉड की पृष्ठभूमि आज भी पूरी
तरह स्पष्ट नहीं है, पर इतना स्पष्ट है कि यह सामरिक-गठबंधन नहीं है. इसमें अब स्वास्थ्य
सुरक्षा, प्राकृतिक आपदा प्रतिक्रिया, समुद्री सुरक्षा, उच्च गुणवत्ता वाली बुनियादी संरचना,
महत्वपूर्ण और उभरती प्रौद्योगिकी, जलवायु
और स्वच्छ ऊर्जा तथा साइबर सुरक्षा के विचार भी शामिल हो गए हैं.
यूक्रेन-युद्ध
हिंद-प्रशांत क्षेत्र से दूर यूरोप में भारत की
भूमिका ने भी दुनिया का ध्यान खींचा है. पिछले दिनों पीएम मोदी की यूक्रेन-यात्रा के बाद संभावनाएं बढ़ी हैं कि रूस
और यूक्रेन के बीच बातचीत में भारत की भूमिका हो सकती है. यूक्रेन
से लौटने के बाद पीएम मोदी और पुतिन की फ़ोन पर बातचीत हुई थी.
इसके बाद राष्ट्रीय
सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल ने 10-12 सितंबर को सेंट पीटर्सबर्ग में हुए ब्रिक्स
के सम्मेलन में भाग लेने के अलावा रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से मुलाकात
करके कुछ नई संभावनाओं को जन्म दिया है. आमतौर पर राष्ट्रपति
पुतिन अपने समकक्षों से मिलते हैं, लेकिन अजित डोभाल से उन्होंने मुलाक़ात की.
अजित डोभाल ने पिछले साल भी मॉस्को में पुतिन
से भेंट की थी. यह मुलाक़ात ऐसे वक़्त में हुई, जब पिछले दो महीनों में पीएम मोदी
ने रूस और यूक्रेन दोनों देशों का दौरा किया था. ऐसे में डोभाल और पुतिन की
मुलाक़ात पर सबकी नज़रें थीं.
संदेशवाहक
विशेषज्ञ मानते हैं, हालांकि रूस-यूक्रेन के
बीच शांति स्थापित करने के लिए भारत के पास कोई तयशुदा शांति प्रस्ताव नहीं है, पर
सीधी बातचीत ना होने के कारण भारत संदेशवाहक की भूमिका निभाने और संघर्ष कम करवाने
में भूमिका निभा सकता है. इसके लिए वह तैयार भी है. यूक्रेन संकट को ख़त्म करवाने
में भारत की ओर दुनिया की नज़रें होने के कई कारण हैं. सबसे बड़ा कारण है भारत और
रूस की पुरानी मैत्री.
यूक्रेन पर युद्ध शुरू किए जाने के बाद रूस पर
पश्चिमी देशों ने प्रतिबंध लगाए थे. भारत ने इस प्रतिबंध की परवाह ना करते हुए रूस
से व्यापारिक रिश्ते जारी रखे थे. भारत ने युद्ध के दौरान रिकॉर्ड स्तर पर रूस से
तेल ख़रीदा. जुलाई के महीने में जब पीएम मोदी रूस गए थे तो पुतिन से गले मिले थे.
इस तस्वीर पर ज़ेलेंस्की समेत कई पश्चिमी देशों
और खासतौर से वहाँ के मीडिया ने आपत्ति जताई थी. पीएम मोदी जब यूक्रेन दौरे पर गए
तो वे ज़ेलेंस्की से भी गले मिले. पर्यवेक्षकों ने इसे भारत की संतुलित-नीति के
तौर पर देखा. फरवरी 2022 में यूक्रेन पर रूसी आक्रमण की शुरुआत से ही भारत का
दृष्टिकोण रहा है कि संवाद के मार्फत समस्या का समाधान होना चाहिए, पर शांति का
आह्वान करना और शांति स्थापित करना दो अलग-अलग बातें हैं.
अमेरिकी-भूमिका
दूसरी बात, जो स्पष्ट है कि यूक्रेन में शांति
तभी स्थापित होगी, जब अमेरिका और रूस के बीच नए यूरोप को लेकर समझौता होगा. अमेरिका
और रूस ने ही दूसरे विश्वयुद्ध के बाद 1945 में और शीत युद्ध के अंत में 1991 में
यूरोपीय व्यवस्था को शक्ल दी थी.
यह यूक्रेन और रूस के बीच की समस्या नहीं है,
बल्कि अमेरिका और रूस के बीच की समस्या है. रूस एक नई व्यवस्था चाहता है और केवल
अमेरिका के पास यूरोपीय सुरक्षा-व्यवस्था की पुनर्रचना की सामर्थ्य है. इस सिलसिले
में जून 2021 में जिनीवा में राष्ट्रपति जो बाइडेन और पुतिन के बीच बातचीत हुई थी,
जो टूट गई और यूक्रेन में लड़ाई की भूमिका तैयार हो गई.
इतना लगता है कि अमेरिका की कोशिश थी कि रूस
पूरी तरह से चीन के खेमे में जाने के बजाय अमेरिका के साथ भी जुड़ा रहे. भारत के
लिए भी यह स्थिति अच्छी होगी, पर चीन से जुड़े रहने में भी रूस के अपने हित
है.
उस वार्ता में रूस के लिए ‘महान-शक्ति’ विशेषण का इस्तेमाल करके जो बाइडेन ने रूस को खुश करने की कोशिश भी
की थी. बातचीत को दो दौर में होना था और दोनों के बीच मध्यांतर की योजना थी,
पर वार्ता लगातार चलती रही और एक ही दौर में पूरी हो गई.
ग्लोबल-साउथ
इस समय वैश्विक-राजनीति में उभरते ‘ग्लोबल
साउथ’ की भूमिका बढ़ रही है. अमेरिका में पीएम मोदी 22-23
सितंबर को संरा के ‘समिट ऑफ द फ्यूचर’ में शामिल होंगे,
जहाँ उनकी भेंट कई महत्वपूर्ण हस्तियों से होगी. इसके बाद 28 को संरा महासभा में
सालाना वक्तव्य होगा, जो इसबार विदेशमंत्री एस जयशंकर देंगे.
इस वक्तव्य से भारतीय
विदेश-नीति प्रतिध्वनित होगी. इसमें संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावित सुधार और
सुरक्षा परिषद में स्थायी सीट और पड़ोसी देशों, खासतौर से पाकिस्तान के साथ
रिश्तों को लेकर वे कोई महत्वपूर्ण बात कह सकते हैं.
22-24 अक्तूबर को
ब्रिक्स के सम्मेलन के लिए पीएम मोदी को फिर से रूस जाना है. रूसी राष्ट्रपति पुतिन ने 22 अक्टूबर को कज़ान में द्विपक्षीय बैठक
का प्रस्ताव भी रखा है. भारत ने अतीत
में गुट-निरपेक्ष आंदोलन का नेतृत्व किया था, पर व्यावहारिक अर्थ में आज का वक्त
पहले के मुकाबले ज्यादा महत्वपूर्ण है.
पश्चिम को जवाब
भारत की विदेशनीति से जुड़े कुछ सवालों का जवाब
गत 12 सितंबर को जिनीवा सेंटर फॉर सिक्योरिटी पॉलिसी में राजदूत जीन-डेविड लेविटे
के साथ बातचीत में विदेशमंत्री एस जयशंकर ने दिया है. यह इंटरव्यू कई मायनों में
काफी रोचक और महत्वपूर्ण था. खासतौर से उन्होंने जिस अंदाज़ में पश्चिमी देशों को
जवाब दिया, वह गौर करने लायक है.
उन्होंने इस तर्क को खारिज किया कि ब्रिक्स
नामक एक और क्लब की कोई आवश्यकता नहीं है, और कहा कि इस समूह
को लेकर विकसित दुनिया में व्याप्त असुरक्षा से हमें ठेस लगती है. उन्होंने कहा, जी-20
के रहते जी-7 का अस्तित्व रह सकता है, तो कोई कारण
नहीं है कि ब्रिक्स का अस्तित्व न हो.
सवाल पूछा गया कि जब एक क्लब था, तब नया क्लब
क्यों? उन्होंने कहा, इसे जी-7 कहा जाता था और आप किसी
और को उस क्लब में आने नहीं देंगे. इसलिए, हम अपना खुद का
क्लब बनाएंगे, जयशंकर ने दर्शकों के जोरदार समर्थन के बीच कहा.
शांति की तलाश
रूस और यूक्रेन दोनों चाहते हैं कि लड़ाई खत्म
हो. दुनिया का हित भी इसमें है. पुतिन ने ब्राज़ील, चीन
और भारत के शांति-प्रयासों का स्वागत किया. यूक्रेनी राष्ट्रपति भी चाहते हैं कि ‘ग्लोबल
साउथ’ के
नेता शांति के लिए आगे आएं. इसमें यूरोपीय संघ और जर्मनी जैसे देशों की भूमिका भी
है, जो रूसी भावनाओं को समझने का सुझाव भी दे रहे हैं.
यह साल अमेरिकी राष्ट्रपति-चुनाव का साल भी है.
जो बाइडेन को नहीं, अब अमेरिकी-व्यवस्था को तय करना है कि विश्व-शांति में उसकी
भूमिका क्या होगी. पुतिन और ज़ेलेंस्की दोनों के लिए चुनाव के नतीजे बहुत मायने रखेंगे.
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