दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने अचानक इस्तीफा देने की घोषणा करके नाटकीयता तो जरूर पैदा कर दी है, पर इसकी वजह से वे सवालों के घेरे में भी आ गए हैं। पहला सवाल है कि उन्होंने तभी इस्तीफा क्यों नहीं दिया, जब उन्हें गिरफ्तार किया गया था? दूसरा है कि अब दो दिन बाद क्यों, अभी क्यों नहीं? नए मुख्यमंत्री के आने तक उन्हें कार्यवाहक रहना ही है, वैसे ही जैसे वे अब खुद को कार्यवाहक के रूप में पेश कर रहे हैं। केजरीवाल और बातों के अलावा राजनीतिक-नाटकीयता के लिए भी पहचाने जाते हैं। इस मामले में भी भगत सिंह और माता सीता के रूपक जोड़कर उन्होंने मामले को नाटकीय बना दिया है।
अगला सवाल है कि नए मुख्यमंत्री का नाम कौन तय करेगा, केजरीवाल या विधायक दल? पर व्यावहारिक सच यह है कि केजरीवाल पार्टी हाईकमान हैं। नाम किसी का हो, पर फैसला उनका ही होगा।केजरीवाल ने कहा कि मनीष सिसोदिया पर भी वही आरोप हैं, जो मुझ पर हैं। उनका भी यही सोचना है कि वे भी पद पर नहीं रहेंगे, चुनाव जीतने के बाद ही पद संभालेंगे। ऐसा क्यों? वे जल्दी चुनाव चाहते हैं, तो विधानसभा भंग करने की सिफारिश क्यों नहीं कर रहे हैं? बात समझ में आती है कि गिरफ्तारी के समय उन्होंने इस्तीफा इसलिए नहीं दिया, क्योंकि वे एक नैतिक और कानूनी सिद्धांत को साबित करना चाहते थे। और अब इसलिए दे रहे हैं, क्योंकि उनकी नैतिकता उन्हें अग्निपरीक्षा के लिए प्रेरित कर रही है। इस अग्निपरीक्षा में सिसौदिया को शामिल करना जरूरी क्यों है? उनकी भी अग्निपरीक्षा होनी है, तो इसकी घोषणा उन्होंने खुद क्यों नहीं की?
केजरीवाल को कई शर्तों के साथ जमानत पर अंतरिम
रिहाई मिली है। वे अपने दफ्तर या सचिवालय नहीं जा सकेंगे और केवल उन्हीं फाइलों को
देख या उनपर दस्तखत कर पाएंगे, जिन्हें एलजी की स्वीकृति लिए भेजना है। एक तरह से
वे पावर से दूर हो जाएंगे। जब तक वे जेल में थे, जनता यह देख नहीं पाती थी, पर अब
यह सब सामने होगा। इसलिए अब जो सबसे रोचक फैसला होना है, वह यह कि मुख्यमंत्री कौन
होगा। थोड़ी देर के लिए मान लें कि उनकी पार्टी जीतकर आ जाएगी, तब क्या वे
मुख्यमंत्री बनेंगे? अदालत की शर्तें तो तब भी होंगी। मुकदमे का
फैसला होने में टाइम लगेगा।
भारतीय राजनीति में बाउंडरी से बाहर जाती गेंद
पर कैच का आज तक का सबसे सफल प्रयोग बिहार में लालू यादव की गिरफ्तारी के समय हुआ
था। अन्यथा जो कुर्सी पर बैठा, वह हटना नहीं चाहता। बिहार में जीतन राम माझी और
झारखंड में चंपाई सोरेन वाले अनुभव सुखद नहीं रहे हैं। तमिलनाडु में जयललिता का
आभामंडल इतना बड़ा था कि दो बार ओ पन्नीरसेल्वम ने उनकी खड़ाऊँ की रक्षा की, पर
जयललिता के निधन के बाद उनका भी त्यागी रूप बदल गया।
केजरीवाल इन बातों को बेहतर समझते होंगे,
क्योंकि और कुछ हुआ हो या नहीं हुआ हो, उन्होंने इस राजनीति का अच्छे तरीके से वरण
किया है। यों भी जो मुख्यमंत्री बनेगा, उसके पास पावर के अलावा दिल्ली सरकार की
बहुत सी जानकारियाँ और आ जाएंगी। किसका भरोसा करेंगे, आज के ज़माने में?
कहा जा रहा है कि शराब नीति से जुड़े मामलों
में ईडी-सीबीआई ने आम आदमी पार्टी के नेताओं समेत अन्य जितने भी लोगों को गिरफ्तार
किया था, उनमें से ज्यादातर को सुप्रीम कोर्ट से जमानत
मिल चुकी है। केस की सुनवाई के दौरान अदालत की टिप्पणियों से सीबीआई की काफी
फज़ीहत हुई है। इन सब बातों को जोड़कर आम आदमी पार्टी ऐसा माहौल बना रही है कि
आबकारी-नीति मामले में वह पाक-साफ है। सीबीआई और ईडी ने उन्हें जबरन फँसाने की
साजिश की है।
ऐसा वे पहले से कहते रहे हैं। यह मान भी लिया
कि सीबीआई ने अदालत के सामने ऐसे तथ्य नहीं रखे, जिनसे जमानत पर उनकी रिहाई रुक
जाती, पर मुकदमा तो निचली अदालत में चलना है। जमानत पर रिहाई, तो यों भी देर-सबेर
होनी थी, पर इस मामले में तमाम नाम और परिस्थितियाँ कहीं न कहीं संदेह तो पैदा कर
ही रही हैं। एक-एक चीज का सबूत नहीं भी हो, पर जनता के मन के संदेह दूर करने की
जरूरत तो उन्हें होगी।
केजरीवाल ने पहले तो यह कहकर इस्तीफा नहीं दिया
कि उनका इस्तीफा लेकर बीजेपी दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार गिराने की साजिश
कर रही है। अब उनके इस्तीफे से क्या सरकार गिर जाएगी? शायद
उन्हें लगता है कि जनता की हमदर्दी उन्हें मिलेगी। वे यह मैसेज देना चाहते हैं कि
केजरीवाल को सत्ता का लालच नहीं है। पर जनता इन बातों को कई तरह से देखती है। वे
अतीत में कई बार इस किस्म के फैसले करते रहे हैं। कुछ लोगों को लगता है कि हमदर्दी
का लाभ उन्हें हरियाणा के चुनाव में मिलेगा। यह जरूरत से ज्यादा आशावाद है।
केजरीवाल चाहते हैं कि महाराष्ट्र के साथ
दिल्ली विधानसभा के चुनाव भी करा लिए जाएं। उनकी पार्टी महाराष्ट्र में भी सभी
सीटों पर चुनाव लड़ने की घोषणा कर चुकी है। उन्हें पिछले दिनों गुजरात में इसका
फायदा मिला था, पर नुकसान कांग्रेस का हुआ था। फिर भी वे बीजेपी-विरोध की खातिर
इंडिया गठबंधन में भी शामिल हो गए। हरियाणा में भी कांग्रेस के साथ गठबंधन की
बातें थी, जो हुआ नहीं। और अब लग रहा है कि दिल्ली के विधानसभा चुनाव में भी उनकी
पार्टी अकेले उतरेगी। यह उनका सबसे महत्वपूर्ण चुनाव होगा। आम आदमी पार्टी के
प्राण दिल्ली में बसते हैं। यहाँ वह सत्ता से खिसकी, तो ताश के पत्तों की तरह उनका
किला बिखर जाएगा।
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