नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बनी तीसरी सरकार के शपथ-ग्रहण समारोह में पिछली दो बार के साथ एक प्रकार की निरंतरता रही, जिसमें उनकी सरकार की विदेश-नीति के सूत्र छिपे हैं. इसमें देश की आंतरिक-नीतियों के साथ विदेश और रक्षा-नीति के संदेश भी पढ़े जा सकते हैं.
रविवार को राष्ट्रपति भवन के प्रांगण में हुए
शपथ-ग्रहण समारोह में सात पड़ोसी देशों के नेता शामिल हुए थे. भारत सरकार ने
पड़ोसी पाकिस्तान, चीन, अफगानिस्तान और म्यांमार को
समारोह में शामिल होने का न्योता नहीं दिया.
अफगानिस्तान के शासनाध्यक्ष का इस समारोह में
नहीं होना समझ में आता है, क्योंकि अभी तक वहाँ के शासन को वैश्विक-मान्यता नहीं
मिली है, पर पाकिस्तान को न बुलाए जाने का विशेष मतलब है.
बिमस्टेक की भूमिका
2014 में सरकार ने दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (सार्क) के सभी नेताओं को आमंत्रित किया था, जिसमें अफगानिस्तान और पाकिस्तान भी शामिल थे, पर 2019 के समारोह में भारतीय विदेश-नीति की दिशा कुछ पूर्व की ओर मुड़ गई. उसमें पाकिस्तान को नहीं बुलाया गया. दूसरी तरफ म्यांमार और थाईलैंड सहित बंगाल की खाड़ी बहु-क्षेत्रीय तकनीकी और आर्थिक सहयोग पहल (बिमस्टेक) के नेताओं ने समारोह में भाग लिया था.
ऐसा अनायास नहीं हुआ था, बल्कि वह भारतीय
विदेश-नीति का महत्वपूर्ण मोड़ था. भारत ने पाकिस्तान के साथ रिश्तों को जोड़ने की
कोशिश पूरी तरह से त्यागने की नीति पर चलने का फैसला कर लिया, जो फिलहाल अभी तक
जारी है.
भारत-पाकिस्तान रिश्ते
2014 के शपथ ग्रहण समारोह में नरेंद्र मोदी ने
अपने शपथ समारोह को वस्तुतः दक्षिण एशिया के शिखर सम्मेलन में तब्दील कर दिया था.
2019 के शपथ-समारोह में शामिल होने के लिए सरकार ने पड़ोसी देशों के नाम पर
बिमस्टेक समूह के नेताओं को आमंत्रित किया. बुनियादी तौर पर उसमें पाकिस्तान के
लिए एक संदेश था.
नवम्बर, 2014
में काठमांडू के दक्षेस शिखर सम्मेलन के बाद से लगने लगा है था कि भारत की
दिलचस्पी इस फोरम में नहीं है. उस सम्मेलन में दक्षेस देशों के मोटर वाहन और रेल
सम्पर्क समझौते पर सहमति नहीं बनी, जबकि पाकिस्तान को छोड़ सभी देश इसके
लिए तैयार थे. पाकिस्तान सरकार भी समझौता चाहती थी, पर
सम्भवतः अंतिम क्षणों में वहाँ की सेना ने वह समझौता नहीं होने दिया. नरेंद्र मोदी
के 2014 से 2019 के कार्यकाल में पाकिस्तान के साथ रिश्ते सुधरने और बिगड़ने की
कहानी चली.
काठमांडू सम्मेलन के बाद दक्षेस का अगला शिखर
सम्मेलन नवम्बर, 2016 में पाकिस्तान में होना था. भारत,
बांग्लादेश और कुछ अन्य देशों के बहिष्कार के कारण वह शिखर सम्मेलन
नहीं हो पाया और उसके बाद से गाड़ी जहाँ की तहाँ रुकी पड़ी है.
सच यह भी है कि पाकिस्तान के नेता नवाज़ शरीफ
के साथ प्रधानमंत्री मोदी के अच्छे रिश्ते हैं. इन रिश्तों के कारण पाकिस्तान में
शरीफ के और भारत में मोदी के विरोधियों को आलोचना करने का मौका मिलता है. संभव है
कि इस बार दोनों पक्ष काफी सोच-समझकर कदम उठाएंगे.
ग्लोबल साउथ की आवाज़
भारत की विदेश-नीति में इस समय ग्लोबल साउथ
केंद्रीय भूमिका में है. इस मामले में चीन हमारा सबसे बड़ा प्रतिस्पर्धी है, जो
अपने ‘बेल्ट एंड रोड’ कार्यक्रम के
साथ विकासशील देशों में पैठ बना रहा है.
रविवार के समारोह के बाद, श्रीलंका के राष्ट्रपति रानिल विक्रमासिंघे, मालदीव
के राष्ट्रपति मोहम्मद मुइज़्ज़ू, सेशेल्स के उपराष्ट्रपति अहमद अफ़ीफ़,
बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना, मॉरिशस
के प्रधानमंत्री प्रविंद जगन्नाथ, नेपाल के प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल 'प्रचंड' और भूटान के प्रधानमंत्री शेरिंग तोब्गे
समेत सभी सात नेताओं ने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा आयोजित औपचारिक भोज में
भाग लिया और एकसाथ मोदी से मुलाकात भी की.
विदेश मंत्रालय की ओर से जारी प्रेस विज्ञप्ति
में कहा गया है कि सात नेताओं के साथ अपनी चर्चा के दौरान, प्रधानमंत्री ने ‘क्षेत्र में लोगों के बीच गहरे संबंध
और संपर्क’ का आह्वान किया और कहा कि भारत ‘अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र में ग्लोबल-साउथ
की आवाज़’ को उठाना जारी रखेगा.
मुइज़्ज़ू का गमन
इस कार्यक्रम में मालदीव के राष्ट्रपति मोहम्मद
मुइज़्ज़ू का शामिल होना खासतौर से महत्वपूर्ण है. नवंबर 2023 और जनवरी 2024 में
क्रमशः निर्वाचित होने के बाद मुइज़्ज़ू और शेख हसीना की यह पहली भारत यात्रा है.
पिछले साल दिसंबर में यूएई में हुए एक कार्यक्रम मुइज़्ज़ू की मुलाकात मोदी से हुई
थी.
मालदीव को भारत से उपहार में मिले विमानों के
रखरखाव के लिए तैनात भारतीय सैनिकों की वापसी को लेकर दोनों देशों के बीच हाल में
रिश्ते कड़वे हो गए थे. मुइज़्ज़ू के इस समारोह में शामिल होने से लगता है कि संबंधों
में सुधार होगा.
भूटान के प्रधानमंत्री तोब्गे 2014 के बाद
दूसरी बार शपथ ग्रहण समारोह में शामिल हुए, जब
वे आखिरी बार सत्ता में थे. शेख हसीना पहली बार मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में
शामिल हुईं हैं, हालांकि उन्हें पहले भी आमंत्रित किया
गया था. 2014 और 19 में बांग्लादेश, भूटान, नेपाल और श्रीलंका को आमंत्रित किया गया था.
भारत की यात्रा का भूटान और बांग्लादेश ने लाभ
उठाया और शेख हसीना और तोब्गे रविवार की दोपहर दिल्ली में द्विपक्षीय वार्ता भी की.
इसमें भूटान से जलविद्युत आयात करने की बांग्लादेश की इच्छा पर चर्चा की गई. ऐसे
ही एक समझौते पर बांग्लादेश की नेपाल से भी बातचीत चल रही है. इन दोनों को लागू
करने के लिए भारत के साथ त्रिपक्षीय पारगमन समझौते की जरूरत होगी.
‘पड़ोसी-पहले’ नीति
विदेश-मंत्रालय ने विदेशी गणमान्य व्यक्तियों
के मौजूदा समूह को आमंत्रित करने के पीछे के तर्क को स्पष्ट करते हुए कहा, ‘प्रधानमंत्री
नरेंद्र मोदी के लगातार तीसरे कार्यकाल के शपथ ग्रहण समारोह में भाग लेने के लिए
नेताओं की यात्रा भारत द्वारा अपनी 'पड़ोसी पहले (नेबरहुड फर्स्ट)' नीति
और 'सागर (सिक्योरिटी एंड ग्रोथ फॉर ऑल इन द रीज़न)' दृष्टिकोण
को दी गई सर्वोच्च प्राथमिकता के अनुरूप है.’
हालाँकि, अफगानिस्तान
में तालिबान शासन और म्यांमार में फौजी सरकार को भारत औपचारिक रूप से मान्यता नहीं देता है. इसे देखते
हुए रविवार को दिल्ली में जुड़ा पूरा पड़ोस नहीं था. यह बिमस्टेक ग्रुप भी नहीं
था, क्योंकि इसमें सेशेल्स और मॉरिशस के शासनाध्यक्ष भी शामिल थे. भारत की हिंद
महासागर नीति से संकेत इस अतिथि-समूह में देखे जा सकते हैं.
विदेश-यात्राएं
सरकार बनने के फौरन बाद प्रधानमंत्री के
ज्यादातर कार्यक्रम विदेश-यात्राओं से जुड़े हैं. वे 13-14 जून को इटली जाएंगे,
जहाँ जी-7 देशों की बैठक बुलाई गई है. इस दौरान उनकी मुलाकात अमेरिकी राष्ट्रपति
जो बाइडेन के अलावा फ्रांस, जर्मनी, कनाडा, ईयू और जापान के नेताओं से होगी.
नरेंद्र मोदी ने स्विट्ज़रलैंड का आमंत्रण
स्वीकार नहीं किया, जहाँ 14 जून को शांति-शिखर सम्मेलन हो रहा है. इसमें भारत का
प्रतिनिधित्व कोई महत्वपूर्ण प्रतिनिधि करेगा. जी-7 और स्विट्ज़रलैंड का सम्मेलन यूक्रेन-युद्ध
के संदर्भ में है और इटली में जी-7 की बैठक में पश्चिम एशिया में युद्ध रोकने से
जुड़े समझौते पर विचार होगा.
यह भी देखना होगा कि मोदी पड़ोस के किस देश में
पहली यात्रा करेंगे. 2014 में वे भूटान और नेपाल गए थे और 2019 में मालदीव. अगले
महीने 3-4 जुलाई को मोदी शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) के शिखर सम्मेलन में शामिल
होने के लिए वे कजाकिस्तान के अस्ताना जाएंगे.
अस्ताना सम्मेलन
इस सम्मेलन में रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर
पुतिन, चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग, पाकिस्तानी प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ के अलावा
मध्य एशिया, तुर्की और ईरान के नेता भी शामिल होंगे. जी-7 के समानांतर यह रूस-चीन
प्रभाव वाला संगठन है. भारत दोनों के बीच संतुलन बनाकर रखता है.
एससीओ की शिखर बैठक पिछले साल नई दिल्ली में
आयोजित होनी थी, लेकिन बाद में इसे वर्चुअल तरीके से आयोजित किया गया. कोविड के
बाद से इस संगठन का शिखर भौतिक रूप से आयोजित नहीं हो पाया है. इस साल ऐसा होने जा
रहा है. पिछले साल संगठन का विस्तार भी किया गया है. इस लिहाज से अस्ताना का यह
सम्मेलन काफी महत्वपूर्ण है.
इस साल के शुरू में भारत में क्वॉड का शिखर
सम्मेलन प्रस्तावित था, जो वैश्विक-स्थिति में तेजी से आ रहे बदलाव के कारण संभव
नहीं हुआ. अब यह सम्मेलन नवंबर में होने वाले अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव के बाद
ही होगा.
बहुत सी बातें अमेरिका के नए राष्ट्रपति की
नीतियों पर भी निर्भर करेंगी. इस लिहाज से मोदी 3.0 के लिए आने वाला समय बहुत सी
चुनौतियाँ और संभावनाएं एक साथ लेकर आ रहा है.
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