संयुक्त राष्ट्र के अंतरराष्ट्रीय न्यायालय (आईसीजे) ने शुक्रवार 24 मई को इसराइल को आदेश दिया है कि वह दक्षिणी गज़ा के राफा शहर पर चल रही कार्रवाई को फौरन रोक दे और वहाँ से अपनी सेना को वापस बुलाए.
यह आदेश दक्षिण अफ्रीका की उस अपील के आधार पर
दिया गया है, जिसमें इसराइल पर फलस्तीनियों के नरसंहार का आरोप लगाया गया था. बावजूद
इस आदेश के, लगता
नहीं कि इसराइली कार्रवाई रुकेगी. इस आदेश के बाद 48 घंटों में इसराइली
विमानों ने राफा पर 60 से ज्यादा हमले किए हैं.
उधर पिछले रविवार को फलस्तीनी संगठन हमास ने तेल
अवीव पर एक बड़ा रॉकेट हमला करके यह बताया है कि साढ़े सात महीने की इसराइली
कार्रवाई के बावजूद उसके हौसले पस्त नहीं हुए हैं. दोनों पक्षों को समझौते की मेज
पर लाने में किसी किस्म की कामयाबी नहीं मिल पा रही है.
आईसीजे के प्रति इसराइली हुक्म-उदूली की वजह उसकी
फौजी ताकत ही नहीं है, बल्कि उसके पीछे खड़ा अमेरिका भी है, जो उसे रोक नहीं रहा
है. दूसरी तरफ मसले के समाधान से जुड़ी जटिलताएं भी आड़े आ रही हैं.
इसराइल के वॉर कैबिनेट मिनिस्टर बेनी गैंट्ज़ ने कहा है कि फैसला सुनाने के बाद आईसीजे के जज तो अपने घर जाकर चैन की नींद सोएंगे, जबकि हमास द्वारा बंधक बनाए गए 125 इसराइली अब भी यातना झेलने को मजबूर हैं. राफा में जारी हमले को तत्काल रोकने का सवाल ही नहीं उठता. जब तक हम बंधकों को छुड़ा कर वापस नहीं ले आते तब तक यह युद्ध जारी रहेगा.
लागू कराना मुश्किल
इस साल यह तीसरा मौका है, जब आईसीजे ने इस
मामले में हस्तक्षेप किया है. यह आदेश हालांकि कानूनन बाध्यकारी है, पर आईसीजे के
पास अपनी कोई सेना या पुलिस नहीं होती है, जो इसे लागू करा सके.
इस वजह से और इसराइल के पीछे अमेरिकी-समर्थन से
जुड़ी ज़मीनी वास्तविकता को देखते हुए भी लगता नहीं कि इसराइल इस आदेश का पालन
करेगा. अलबत्ता, बैकरूम बातचीत से उम्मीद लगाई जा सकती है. पर, ऐसी बातचीत भी तभी
सफल होगी, जब इससे जुड़े सभी असरदार देश एक पेज पर हों.
इसमें दो राय नहीं कि पश्चिम एशिया की समस्या
का समाधान अनेक दूसरी समस्याओं का समाधान भी करेगा. भारत की दृष्टि से यह समाधान
हमारी आर्थिक-प्रगति के लिहाज से भी बहुत जरूरी है. इस लड़ाई के कारण भारत और
यूरोप के बीच पश्चिम एशिया कॉरिडोर का काम थम गया है. वहीं हाल में हुआ चाबहार
बंदरगाह समझौता भी सही मायनों में तभी सफल होगा, जब इन झगड़ों का समाधान
होगा.
फलस्तीन को मान्यता
इस आदेश के अलावा पिछले हफ्ते 22 मई को यूरोप
के तीन देशों, स्पेन, नॉर्वे और आयरलैंड ने फ़लस्तीन को राष्ट्र के तौर पर मान्यता
देने की घोषणा की है. इस घोषणा से यूरोप के दूसरे देशों पर दबाव बढ़ रहा है कि वे फ़लस्तीनियों
के आत्मनिर्णय के अधिकार का समर्थन करें. इनमें ब्रिटेन, फ़्रांस,
जर्मनी भी भूमिका है.
व्यावहारिक रूप से तीन देशों की मान्यता से
इसराइल पर दबाव बनता नज़र नहीं आ रहा है, अलबत्ता इससे पश्चिम एशिया की स्थिति को
लेकर अमेरिका और यूरोप के देशों के बीच बढ़ती असहमति पर रोशनी जरूर पड़ रही है. कह
सकते हैं कि पश्चिम एशिया की समस्या के स्थायी-समाधान के रास्ते खोलने की कोशिशों
को बल मिल रहा है.
फरवरी में फ़्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल
मैक्रों ने कहा था-फ़लस्तीन को राष्ट्र के तौर पर मान्यता देने में हमें दिक्कत
नहीं है. 10 मई को संयुक्त राष्ट्र महासभा के 193 सदस्य देशों में से 143 ने फ़लस्तीन को
संयुक्त राष्ट्र की पूर्ण सदस्यता दिलाने के पक्ष में वोट दिया था. इनमें भारत भी
शामिल था.
व्यावहारिक-स्थिति
फ़्रांस ने भी सदस्यता दिलाने के पक्ष में
वोटिंग भी की थी, पर महासभा के प्रस्ताव का व्यावहारिक अर्थ नहीं होता. उसके लिए
सुरक्षा परिषद की सहमति चाहिए. इसके पहले अप्रेल में सुरक्षा परिषद में ऐसे ही एक प्रस्ताव
पर अमेरिका ने वीटो कर दिया था.
मान्यता देने में अमेरिका को भी आपत्ति नहीं
है, पर वह इस नीति के व्यावहारिक-पक्ष को समझना चाहता है. अर्थात, इस समस्या का
स्थायी समाधान. ब्रिटेन के विदेशमंत्री डेविड कैमरन और कुछ दूसरे यूरोपीय देश ने
बीते कुछ महीनों में फ़लस्तीन के मसले पर अपना रुख़ बदला है.
वे अब यह मानने लगे हैं कि फ़लस्तीन को पहले
मान्यता देनी चाहिए, ताकि राजनीतिक समाधान का माहौल तैयार
करने में मदद मिले. यह सदस्यता सिर्फ़ संप्रभु देशों को मिलती है. संयुक्त राष्ट्र
में फ़िलहाल फ़लस्तीन को पर्यवेक्षक यानी ऑब्ज़र्वर का दर्जा हासिल है. उसे सीट तो
मिली है, पर वोट देने का अधिकार उसके पास नहीं है.
इस समाधान में इसराइल और सऊदी अरब देशों के राजनयिक
संबंधों को सामान्य बनाना और इस इलाके में सहयोग का वातावरण तैयार करना भी शामिल
है. पिछले साल सितंबर में लग रहा था कि इस दिशा में कोई बड़ी घोषणा होने वाली है,
तभी 8 अक्तूबर को हमास ने हमला बोल दिया. प्रश्न है कि इस हमले का उद्देश्य क्या
था? और क्या उस उद्देश्य को प्राप्त करने में सफलता
मिली?
सवाल ही सवाल
कुछ दूसरे यूरोपीय देशों और अमेरिका का कहना है
कि पश्चिम एशिया की समस्या के स्थायी राजनीतिक समाधान के तहत ही फ़लस्तीन को
राष्ट्र के तौर पर मान्यता दी जाएगी. इसे ‘टू-स्टेट
समाधान’ कहा जाता है.
इसके तहत देश के रूप में इसराइल और फ़लस्तीन की सरहद को परिभाषित करना होगा.
मसले के समाधान से जुड़े अनेक प्रश्न हैं. सरहद
के अलावा यह भी कि दोनों देशों की राजधानियाँ कहाँ बनेगी? यरूशलम
का क्या होगा? और यह भी कि दोनों पक्ष ऐसा करने के लिए पहले क्या क़दम उठाएंगे? क्या सभी फलस्तीनी ग्रुपों को एक साथ लाया जा सकेगा? इसमें हमास की भूमिका क्या होगी वगैरह?
यूरोप के कुछ देशों ने फ़लस्तीन को पहले ही
राष्ट्र के तौर पर मान्यता दे रखी है. इनमें हंगरी, पोलैंड,
रोमानिया, चेक रिपब्लिक, स्लोवाकिया,
बुल्गारिया जैसे देश शामिल हैं. इन देशों ने फ़लस्तीन के लिए अपना यह
रुख़ 1988 में अपनाया था. स्वीडन, साइप्रस
और माल्टा संयुक्त राष्ट्र को मान्यता देने वाले कुछ और देश हैं.
राजनीतिक-प्रक्रिया
आयरलैंड, स्पेन
और नॉर्वे का कहना है कि मान्यता देकर हम उस राजनीतिक प्रक्रिया को शुरू कर रहे
हैं, जिससे समाधान होगा. मौजूदा संकट का स्थायी समाधान तभी निकल सकता है, जब दोनों पक्ष किसी तरह का राजनीतिक लक्ष्य तय करें. दुनिया के 143 देशों
ने फ़लस्तीन को राष्ट्र के तौर पर मान्यता दे दी है. इनमें भारत भी शामिल है.
आज यानी 28 मई को स्पेन, आयरलैंड
और नॉर्वे का नाम जुड़ने के बाद यह संख्या बढ़कर 146 हो जाएगी. पर इससे भई समस्या
का समाधान नहीं होगा. अमेरिका, कनाडा, पश्चिमी
यूरोप के अनेक देश, ऑस्ट्रेलिया, जापान
और दक्षिण कोरिया अभी उसे मान्यता देने के पक्ष में नहीं हैं. इसराइल का कहना है
कि फलस्तीन को मान्यता देने और राफा पर कार्रवाई रोकने के आदेशों से हमास का हौसला
बढ़ेगा. यह आतंकवाद को पुरस्कृत करने जैसा है.
प्रतीकात्मक-कदम
उपरोक्त तीनों देश अब यूरोपीय संघ (ईयू) के उन
आठ सदस्य देशों के साथ आ गए हैं, जो पहले ही फलस्तीनी राष्ट्र को मान्यता दे चुके
हैं. हो सकता है कि इससे जमीन पर स्थिति में कुछ खास बदलाव न आए, लेकिन जैसा कि आयरिश प्रधानमंत्री साइमन हैरिस ने कहा कि यह ‘शक्तिशाली
राजनीतिक व प्रतीकात्मक मूल्य वाला कदम’ है.
वैसे तो लगभग हर देश ने हमास के आतंकी हमले की
निंदा की है, पर हैरिस ने कहा कि पश्चिमी किनारे पर कायम वैध
फलस्तीनी सरकार की अनदेखी भी नहीं होनी चाहिए. उन्होंने कहा कि हमास और फलस्तीन के
लोग एक ही नहीं हैं. नॉर्वे के प्रधानमंत्री जोनस गार स्तूर ने बुधवार को कहा,
‘अगर मान्यता नहीं दी गई तो पश्चिम एशिया में शांति स्थापित नहीं हो
सकती।’
इसराइल ने प्रतिक्रिया में तीनों देशों के
राजनयिकों को तलब किया है और अपने राजनयिकों को इन देशों से वापस बुलाया है.
बावजूद इसके लगभग-वैश्विक सहमति के इन संदेशों का मतलब यह है कि इसराइल पर राफा में
कार्रवाई रोकने तथा गज़ा में मानवीय सहायता पहुंचने की इजाजत देने का दबाव बनेगा.
इसराइल पर इस बात का वैश्विक-दबाव होगा कि भले
ही उसने ‘दो-देश के समाधान’ से अलग कर लिया हो, लेकिन एक यही सूत्र है जिसे दुनिया शांति का रोडमैप मानती है. इन
संदेशों की अनसुनी करके, इसराइल सिर्फ अपना अलगाव बढ़ा रहे हैं,
खासकर उस अंतरराष्ट्रीय समुदाय से, जिसने 7 अक्तूबर
की हिंसा की निंदा करके पूरी हमदर्दी से उसका साथ दिया.
फलस्तीनी-एकता?
अब यदि अमेरिका भी फलस्तीन-राज्य
की वैधानिकता को स्वीकार कर ले, तब सवाल पैदा होगा कि क्या अरब देश फलस्तीनी-एकता
कायम करने में सफल होंगे?
पिछले साढ़े सात महीनों से गज़ा में चल रही लड़ाई के दौरान भी हमास और
अल-फतह गुटों की एकता कायम नहीं हो पाई है.
हमास और फतह गुट की प्रतिद्वंद्विता से इसराइल
को लाभ मिलता है, क्योंकि अब उसपर फतह का दबाव कम है. हमास की स्थापना हालांकि 1987 में हो गई थी, पर
उसे लोकप्रियता तब मिली, जब फतह ग्रुप के अधीन फलस्तीन अथॉरिटी
अलोकप्रिय होने लगी. उसकी अलोकप्रियता के तमाम कारण थे. उसे इसराइल के प्रति नरम
माना गया. प्राधिकरण, भ्रष्टाचार का शिकार भी था.
2004 में यासर अरफात के निधन के बाद फतह गुट के
पास करिश्माई नेतृत्व भी नहीं बचा. एक
जमाने तक अरफात का गुट ही फलस्तीनियों का सर्वमान्य समूह था. उसने ही इसराइलियों
के साथ समझौता किया था. पर प्रकारांतर से आक्रामक हमास गुट बड़ी तेजी से उभर कर
आया, जिसने फतह पर इसराइल से साठगाँठ का आरोप लगाया.
गिरफ्तारी की माँग
पिछले हफ्ते, अंतरराष्ट्रीय
आपराधिक न्यायालय (आईसीसी) के अभियोजक ने इसराइल के प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू
और रक्षामंत्री योआव गैलेंट की गिरफ्तारी वारंट के लिए आवेदन आगे बढ़ाया है.
उन्होंने इन कृत्यों को युद्ध अपराध करार दिया है.
यह माँग सनसनीखेज जरूर है, पर व्यावहारिक नहीं.
सुरक्षा परिषद के पाँच स्थायी सदस्यों में से तीन आईसीसी के सदस्य नहीं हैं. चीन, भारत और अमेरिका सहित महाशक्तियों में से कोई भी आईसीसी के
हस्ताक्षरकर्ता नहीं हैं. इसके कई फैसले अक्सर लागू नहीं होते.
दूसरी तरफ आईसीसी-पीठ वारंट को अस्वीकार भी कर
सकता है. बहरहाल अभियोजक के अनुरोध को अंतरराष्ट्रीय कानून के पाँच प्रमुख विशेषज्ञों
के एक पैनल की सर्वसम्मत राय का समर्थन प्राप्त है. इसलिए इसका कम से कम
प्रतीकात्मक महत्व जरूर है.
युद्ध कहीं भी हो असर सारे विश्व में होता है | सटीक |
ReplyDelete