आप चाहें, तो दोनों बातों में ‘कॉन्ट्रास्ट’ या विसंगति देख सकते हैं. दोनों में कोई सीधा रिश्ता नहीं है, पर प्रकारांतर से है. पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर यानी ‘पीओके’ में चल रहे जनांदोलन को लेकर हमारे यहाँ कुछ लोगों को लगता है कि शायद वहाँ कोई बड़ी बात हो जाए. फिलहाल ऐसा लगता नहीं है, पर कश्मीर को लेकर जब भी विचार करें, तब मुज़फ़्फ़राबाद और मीरपुर पर भी बात करनी होगी.
दूसरी तरफ जम्मू-कश्मीर
में चल रहे लोकसभा चुनाव को लेकर सकारात्मक खबरें हैं, जिसके निहितार्थ अलग-अलग
लोगों ने अलग-अलग निकाले हैं. 2019 के लोकसभा चुनाव के ठीक पहले
फरवरी में पुलवामा प्रकरण हुआ था और माना जाता है कि उस परिघटना का सायास या
अनायास असर लोकसभा चुनाव पर भी पड़ा.
उस चुनाव के कुछ महीनों बाद ही भारत सरकार ने
अनुच्छेद-370 हटाने का फैसला किया था. उसके बाद से ही ‘पीओके’ को वापस लेने की
बातें देश में हो रही हैं. हाल में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने
कहा है कि केंद्र में नई सरकार बनने के बाद छह महीने के भीतर ‘पीओके’ हमारा होगा.
चुनाव-सभा की इस बात का बहुत ज्यादा राजनीतिक
महत्व नहीं है, पर इस बात को मान लीजिए कि जैसे पाकिस्तान के नेता कश्मीर को अपनी ‘शह-रग’ यानी जुग्युलर-वेन मानते हैं, वैसे ही कश्मीर भी बड़ी संख्या में भारतीयों
के दिल में रहता है.
‘पीओके’ को लेकर विदेशमंत्री एस जयशंकर ने हाल
में कहा है कि 370 हटा कर जम्मू-कश्मीर को एकीकृत करना पहला पार्ट था, जो पूरा कर लिया गया है. अब हमें दूसरे पार्ट का इंतज़ार करना
चाहिए. कुछ इसी आशय की बातें गृहमंत्री अमित शाह ने भी कही हैं. दूसरे पार्ट से
आशय है, उसकी भारत में वापसी.
विभाजन का बचा हुआ काम
नब्बे के दशक में जब पाकिस्तानी प्रधानमंत्री
बेनज़ीर भुट्टो बार-बार कह रहीं थीं कि कश्मीर का मसला विभाजन के बाद बचा अधूरा
काम है. इस पर तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंहराव ने कहा कि पाकिस्तान अधिकृत
कश्मीर की भारत में वापसी ही अधूरा रह गया काम है. वह समय था जब कश्मीर में हिंसा
चरमोत्कर्ष पर थी.
बढ़ती हुई आतंकवादी हिंसा के मद्देनज़र भारतीय संसद के दोनों सदनों ने 22 फरवरी 1994 को सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित किया और इस बात पर जोर दिया कि सम्पूर्ण जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है, इसलिए पाकिस्तान को अपने कब्जे वाले राज्य के हिस्सों को खाली करना होगा. पाकिस्तान बल पूर्वक कब्जाए हुए भारतीय राज्य जम्मू और कश्मीर क्षेत्रों को खाली करे.
राजनीतिक-बयानों में ‘पीओके’ की वापसी की बात
कहना आसान है, पर उसकी व्यावहारिकता के बारे में भी सोचना चाहिए. वापसी के तीन
तरीके ही हो सकते हैं. दोनों देशों के बीच या संरा के स्तर पर ऐसा कोई समझौता हो.
या फिर हम सैनिक कार्रवाई करके उसे वापिस ले लें और तीसरे ‘पीओके’ के भीतर भारत से
जुड़ने को लेकर इतना बड़ा जनांदोलन हो कि वह निर्णायक साबित हो.
मतदान-प्रतिशत
इन बातों से हटकर अब जम्मू-कश्मीर का रुख करें,
जहाँ श्रीनगर और बारामूला में हुए मतदान के बढ़े हुए प्रतिशत ने देश-दुनिया का
ध्यान खींचा है. लोकसभा चुनाव के फौरन बाद राज्य में विधानसभा के चुनाव भी होंगे.
उस समय खासतौर से राज्य की राजनीति और वहाँ के मतदाताओं की भूमिका पर ध्यान देना
होगा.
जम्मू-कश्मीर में श्रीनगर घाटी और बारामूला के
अलावा 25 को अनंतनाग-राजौरी में हो रहे मतदान से भी अनुमान लगाना होगा. श्रीनगर
में करीब 38 और बारामूला में 59 प्रतिशत मतदान हुआ है. लगता है कि अनंतनाग-राजौरी में
भी 50 प्रतिशत या उससे ज्यादा मतदान होगा.
मतदाता की दृष्टि
दशकों बाद हुए इतने ज्यादा मतदान का मतलब क्या
है? अनुच्छेद-370 की वापसी का समर्थन या
विरोध? एक विचार कहता है कि मतदाता अपने
प्रतिनिधि को भारतीय संसद में भेजना चाहते हैं, ताकि वे उनकी बात को पूरे देश को
बता सकें. घाटी के दोनों प्रमुख दलों पीडीपी और नेशनल कांफ्रेंस का कहना है कि
हताश मतदाता ने कश्मीर की पहचान या स्वायत्तता के प्रति अपने समर्थन को इस तरह से
व्यक्त किया है.
दूसरा मत कहता है कि अनुच्छेद-370 की वापसी के
बाद मतदाताओं के मन से आतंकवादियों का डर दूर हो गया है और वे निर्भय होकर वोट
देने निकले हैं. दोनों बातों से एक निष्कर्ष निकलता है कि मतदाता अपेक्षाकृत
निर्भय हुआ है और वह लोकतांत्रिक-गतिविधियों में भागीदारी चाहता है.
इस बात को अमित शाह ने जोर देकर कहा है. मोटे
तौर पर अरसे से लोकतांत्रिक-प्रक्रिया से दूर रही कश्मीर की जनता के मन में
लोकतंत्र के प्रति उत्साह है और वह अपने प्रतिनिधियों को चुनना चाहती है. यह
उत्साह आगामी विधानसभा चुनाव में भी देखने को मिलेगा.
रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने हाल में एक इंटरव्यू
में कहा, कश्मीर में जिस तरह से हालात बदल रहे हैं, ‘पीओके’ में रहने वाले लोग कहेंगे कि जल्द से जल्द हमें भी भारत का
हिस्सा बनाया जाए. ‘पीओके’ हमारा था, है और हमारा ही
रहेगा.
‘पीओके’ में आंदोलन
जिस समय जम्मू-कश्मीर में
लोकतांत्रिक-प्रक्रिया चल रही है, पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में विरोध-प्रदर्शन चल
रहा है. वहाँ इंटरनेट पूरी तरह से बंद है. पाकिस्तान फ्रंटियर कांस्टेबुलरी के
जवानों ने विद्रोहियों को तितर-बितर करने के लिए कई बार फायरिंग का सहारा भी लिया
है. इस दौरान बार-बार ‘आज़ादी’ की माँग
सुनाई पड़ रही है.
विरोध-प्रदर्शनों में भारत का तिरंगा लहराने की
तस्वीर और एक वीडियो क्लिप भी वायरल हुआ है. एक एक्स हैंडल ने दावा किया कि पाकिस्तानी
सेना और पुलिस के खिलाफ विरोध प्रदर्शन के दौरान पाकिस्तान अधिकृत जम्मू-कश्मीर के
रावलकोट में भारतीय झंडा फहराया गया.
इसी तस्वीर को कई लोगों ने इंस्टाग्राम और
फेसबुक पर समान दावों के साथ साझा किया, पर फैक्ट चेक में पाया गया कि रैली में
भारतीय झंडा नहीं लहराया गया. पर यह बात मानी जा रही है कि इस समय वहाँ पाकिस्तान
सरकार के प्रति गुस्सा आसमान पर है.
‘आज़ादी’ के स्वर
यह इलाका जम्मू से लगा हुआ है और जम्मू-कश्मीर
के विभाजन का सबसे ज्यादा असर भी इसी इलाके पर पड़ा है. इसबार यह आंदोलन महंगाई को लेकर शुरू हुआ है,
पर इसके भीतर से ‘आज़ादी’ के जो स्वर
सुनाई पड़े हैं, उनपर ध्यान देने की ज़रूरत है.
इसके पहले भी इस इलाके
में आंदोलन होते रहे हैं, पर ‘आज़ादी’ जैसा शब्द पहले सुनाई नहीं पड़ा. इसबार जो आंदोलन है,
उसमें मूलतः पाकिस्तान के पंजाब-केंद्रित सत्ताधारियों के प्रति नाराज़गी दिखाई
पड़ रही है.
इसके पहले 5 अगस्त,
2019 को जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद-370 की वापसी के बाद इस इलाके में भारत के उस
कदम के विरोध में आंदोलन खड़ा हुआ था और घोषणा की गई थी कि इस इलाके के नागरिक
नियंत्रण-रेखा तक मार्च करेंगे. ऐसा मार्च हुआ भी, पर पाकिस्तानी सेना ने उसे काफी
पहले रोक लिया था.
तब के और इसबार के
आंदोलनों में अंतर है. पिछला आंदोलन भारत सरकार के फैसले के खिलाफ था, जबकि इसबार का
आंदोलन पाकिस्तानी-प्रशासन के खिलाफ है. ‘पीओके’ का यह
वही इलाका है, जहाँ 1947 में पाकिस्तान की शह पर मुस्लिम आबादी ने महाराजा हरिसिंह
के प्रशासन के विरुद्ध बगावत की थी.
पुंछ की बगावत
उस दौरान इस इलाके के लोगों ने अपनी एक फौज भी
बना ली थी, जिसे ‘आज़ाद फौज’ कहा गया. उन्होंने अपनी सरकार भी बना ली थी. फरवरी, 1955
में पुंछ के इस इलाके में पाकिस्तान के विरुद्ध बगावत
हुई. मीरपुर के सुधन-पठानों की ‘आज़ादी’ की वह महत्वाकांक्षा थी. पर वह सफल नहीं हुई
और 1956 में सेना की मदद से उसे दबा दिया गया.
इससे इतनी बात जरूर समझ में आती है कि मीरपुरी
समुदाय के भीतर स्वायत्तता की कामना है. एक प्रकार से यह पहचान की लड़ाई है. इस
इलाके के लोग हालांकि मुसलमान हैं, पर वे कश्मीर की घाटी के निवासियों से
सांस्कृतिक रूप से फर्क हैं. इन्हें सुधन पठान कहा जाता है, जिनकी संस्कृति
पश्तूनों से मिलती है.
पीर पंजाल पहाड़ी या जम्मू के पश्चिम में रहने
वाले इन लोगों और पूर्वी जम्मू के डोगरा लोगों में सांप्रदायिक और सामुदायिक अंतर
है. बावजूद इसके उनके बीच ऐसे काफी लोग हैं, जो कश्मीर की पहचान, भारत और
पाकिस्तान से अलग मानते या चाहते हैं.
1947 में बागियों को पाकिस्तानी पंजाब से
सहायता और कुमुक मिली थी. इस हिंसा के सहारे पाकिस्तानी सेना ने जम्मू-कश्मीर के
काफी बड़े इलाके पर कब्जा कर लिया था. अंततः 26 अक्तूबर को महाराजा हरिसिंह ने
भारत में विलय के पत्र पर दस्तखत किए और भारतीय सेना ने कार्रवाई करके काफी बड़े
हिस्से को वापस ले लिया. 15 अगस्त के बाद करीब ढाई महीने में यह सब हो गया.
जम्मू-कश्मीर में नियंत्रण रेखा को स्थायी
सीमा-रेखा बनाने की कोशिशें भी पाकिस्तान में हुई हैं. गिलगित-बल्तिस्तान को 1947-48 में ही जम्मू-कश्मीर से
अलग करके देखा जाने लगा. फिर 2018 में एक संवैधानिक-संशोधन के बाद ‘पीओके’ को
पाकिस्तान के एक सूबे का दर्जा दे दिया गया है। अब उसकी स्थिति वैसी ही है, जैसी
जम्मू-कश्मीर के केंद्र शासित राज्य की है. लद्दाख को आप गिलगित-बल्तिस्तान की तरह
मान लें, तो 1947 के जम्मू-कश्मीर के अब चार हिस्से दिखाई पड़ रहे हैं.
भूले नहीं हैं हम
27 अक्टूबर, 2022 को श्रीनगर में शौर्य दिवस के
मौके पर रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने कहा था कि हमारी यात्रा उत्तर की दिशा में
जारी है. हम पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर को भूले नहीं हैं, बल्कि एक दिन उसे वापस हासिल करके रहेंगे. जम्मू और कश्मीर और लद्दाख
में सर्वांगीण विकास का लक्ष्य ‘पीओके’ के हिस्से वाले गिलगित-बल्तिस्तान तक
पहुंचने के बाद ही हासिल होगा.
उन्होंने यह भी कहा कि हमारी यात्रा तब पूरी
होगी जब हम 22 फ़रवरी 1994 को भारतीय संसद में पारित प्रस्ताव को अमल में लाएंगे
और उसके अनुरूप हम अपने बाक़ी बचे हिस्से जैसे गिलगित-बल्तिस्तान तक पहुंचेंगे. इस सिलसिले में भारतीय
संसद का यह प्रस्ताव बहुत महत्वपूर्ण है.
तीन साल पहले 5 अगस्त, 2019
को भारत ने कश्मीर पर अनुच्छेद 370 और 35 को निष्प्रभावी करके लंबे समय से चले आ
रहे एक अवरोध को समाप्त कर दिया. राज्य का पुनर्गठन भी हुआ है और लद्दाख को
जम्मू-कश्मीर से अलग कर दिया गया है. पर पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर का मामला अभी
अधूरा है.
समय मत पूछिए
अमित शाह ने नवंबर 2019 में एक टीवी कार्यक्रम
में कहा था कि पाक अधिकृत कश्मीर और जम्मू-कश्मीर के लिए हम जान भी दे सकते हैं और
देश में करोड़ों ऐसे लोग हैं, जिनके मन में यही भावना है. उन्होंने
यह भी कहा कि इस सिलसिले में सरकार का जो भी ‘प्लान ऑफ एक्शन’ है, उसे टीवी डिबेट में घोषित नहीं किया जा सकता. ये सब देश की सुरक्षा
से जुड़े संवेदनशील मुद्दे हैं, जिन्हें ठीक वैसे ही करना चाहिए,
जैसे अनुच्छेद 370 को हटाया गया. इसके समय की बात मत पूछिए तो अच्छा
है.
गृहमंत्री के इस बयान के पहले विदेशमंत्री एस
जयशंकर ने सितंबर 2019 में एक मीडिया कॉन्फ्रेंस में कहा कि पाकिस्तान के कब्जे
में जो कश्मीर है, वह भारत का हिस्सा है और हमें उम्मीद
है कि एक दिन इस पर हमारा अधिकार हो जाएगा.
इन दोनों बयानों के बाद जनवरी 2020 में
तत्कालीन भारतीय सेनाध्यक्ष जनरल मनोज मुकुंद नरवणे ने सेना दिवस के पहले एक
संवाददाता सम्मेलन में कहा कि यदि देश की संसद पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर को वापस
लेने का आदेश देगी तो हम कारवाई कर सकते है. उन्होंने कहा, संसद
इस बारे में प्रस्ताव पास कर चुकी है कि ‘पीओके’ भारत का अभिन्न अंग है.
बयान अच्छे हैं | जैसे दाग अच्छे हैं (साबुन) |
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