पाकिस्तान के नए प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ 29वें और व्यक्तिगत रूप से 23वें प्रधानमंत्री हैं। कुछ प्रधानमंत्री एक से ज्यादा दौर में भी पद पर रहे हैं। मसलन उनके बड़े भाई नवाज़ शरीफ को अपने पद से तीन बार हटाया गया था। पहली बार 1993 में राष्ट्रपति गुलाम इसहाक खान ने उन्हें बर्खास्त किया, दूसरी बार 1999 में फौजी बगावत के बाद जनरल मुशर्रफ ने पद से हटाया और तीसरी बार 2017 में वहाँ के सुप्रीम कोर्ट ने। 2013 के पहले तक एकबार भी ऐसा नहीं हुआ, जब लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई किसी सरकार ने दूसरी चुनी हुई सरकार को सत्ता का हस्तांतरण किया हो।
पाकिस्तान का
लोकतांत्रिक-इतिहास उठा-पटक से भरा पड़ा है। लोकतंत्र में उठा-पटक होना अजब-गजब
बात नहीं। पर पाकिस्तानी लोकतंत्र भिंडी-बाजार जैसा अराजक है। देश को अपना पहला
संविधान बनाने और उसे लागू करने में नौ साल लगे थे। पहले प्रधानमंत्री लियाकत अली खां की हत्या हुई।
उनके बाद आए सर ख्वाजा नजीमुद्दीन बर्खास्त हुए। फिर आए मोहम्मद अली बोगड़ा। वे भी
बर्खास्त हुए। 1957-58 तक आने-जाने की लाइन लगी रही। वास्तव में पाकिस्तान में
पहले लोकतांत्रिक चुनाव सन 1970 में हुए, पर उन चुनावों से देश में लोकतांत्रिक
सरकार बनने के बजाय देश का विभाजन हो गया और बांग्लादेश नाम से एक नया देश बन गया।
बर्खास्तगीनामा
देश में प्रधानमंत्री
का पद 1947 में ही बना दिया गया था, पर सर्वोच्च पद गवर्नर जनरल का था, जो
ब्रिटिश-उपनिवेश की परम्परा में था। देश के दूसरे प्रधानमंत्री को गवर्नर जनरल ने
बर्खास्त किया था। 1951 से 1957 तक देश के छह प्रधानमंत्रियों को बर्खास्त किया
गया। छठे प्रधानमंत्री इब्राहिम इस्माइल चुंदरीगर केवल 55 दिन प्रधानमंत्री पद पर
रहे। आठवें प्रधानमंत्री नूरुल अमीन 7 दिसंबर, 1971 से 20 दिसंबर, 1971 तक केवल दो
हफ्ते तक अपने पद पर रहे। वे देश के चौथे और अंतिम बंगाली प्रधानमंत्री थे। बांग्लादेश
बन जाने के कारण उन्हें पद छोड़ना पड़ा।
जब 1956 में पहला
संविधान लागू हुआ, तब गवर्नर जनरल के पद को राष्ट्रपति का नाम दे दिया गया। 1958
में राष्ट्रपति इस्कंदर मिर्जा ने देश के सातवें प्रधानमंत्री को बर्खास्त किया और
मार्शल लॉ लागू कर दिया। ऐसी मिसालें भी कहीं नहीं मिलेंगी, जब लोकतांत्रिक-सरकार
ने अपने ऊपर सेना का शासन लागू कर लिया। विडंबना देखिए कि इस्कंदर मिर्जा ने जिन
जनरल अयूब खां को चीफ मार्शल लॉ प्रशासक बनाया उन्होंने 20 दिन बाद 27 अक्तूबर को
सरकार का तख्ता पलट कर मिर्ज़ा साहब को बाहर किया और खुद राष्ट्रपति बन बैठे।
सन 1962 में संविधान का एक नया संस्करण लागू हुआ, जिसमें प्रधानमंत्री के पद को खत्म करके सारी सत्ता राष्ट्रपति के नाम कर दी गई। 1970 में प्रधानमंत्री की पुनर्स्थापना हुई और नूरुल अमीन प्रधानमंत्री बने, केवल दो हफ्ते के लिए। बांग्लादेश के रूप में एक नया देश बन जाने के बाद 1973 में फिर से संविधान का एक नया सेट तैयार हुआ, जो आजतक चल रहा है।
देश के
लोकतांत्रिक-इतिहास में ज़ुल्फिकार अली भुट्टो का नाम बार-बार आता है। उन्हें 1979
में तानाशाह जिया-उल-हक ने फाँसी पर लटका दिया। भुट्टो को भी इस उठा-पटक के लिए
जिम्मेदार माना जाता है, पर फाँसी से पहले भुट्टो ने माना कि देश में ‘संविधान की हत्या’ हो चुकी है। वहाँ
आज राष्ट्रपति शोभा का पद है, पर उसके अधिकारों को लेकर भी झगड़ा चलता रहा। 1977
में प्रधानमंत्री पद फिर खत्म हुआ, जो 1985 के चुनावों में फिर से नमूदार हुआ।
मुहम्मद जुनेजो प्रधानमंत्री बने।
उसी दौरान संविधान का
आठवाँ संशोधन पास किया गया, जिसके तहत राष्ट्रपति को अधिकार दिया गया कि वह चाहे,
तो प्रधानमंत्री और संसद को बर्खास्त कर दे। इस अधिकार का इस्तेमाल करते हुए एक के बाद एक सरकारें बर्खास्त होने
लगीं। सन 1988 में पाकिस्तान
पीपुल्स पार्टी की बेनजीर भुट्टो प्रधानमंत्री बनीं। किसी मुस्लिम देश की पहली
महिला शासनाध्यक्ष। उनकी बर्खास्तगी भी हुई। 1988 से 1993 तक तीन प्रधानमंत्रियों
को बर्खास्त किया गया।
सन 1997 में
पीएमएल-नून को संसद में दो तिहाई बहुमत मिला और तब जाकर 13वें और 14वें संविधान
संशोधन हुए, जिनके तहत राष्ट्रपति की शक्ति खत्म की गईं। प्रधानमंत्री के रूप में
नवाज शरीफ ने ताकत पाकर दूसरे किस्म का व्यवहार शुरू कर दिया। उन्होंने सेनाध्यक्ष
तक को बर्खास्त किया। उनका तख्ता 1999 में जनरल परवेज मुशर्रफ ने पलटा।
सेना की
भूमिका
पाकिस्तानी समाज ने शुरू से ही
लोकतंत्र को गलत छोर से पकड़ा। वे मानते हैं कि यह अंग्रेजी-राज की व्यवस्था है,
हम इसे लोकतंत्र मानते ही नहीं। लोकतंत्र वहाँ की पसंदीदा व्यवस्था नहीं है और
अराजकता वहाँ का स्वभाव है। ऐसे में सेना वहाँ की सबसे विश्वसनीय संस्था है, जिसे एस्टेब्लिशमेंट या प्रतिष्ठान
कहा जाता है। संविधान के अनुसार वहाँ की सुप्रीम कोर्ट चाहे तो सेना को सत्ता सौंप
सकती है। पाकिस्तान के उद्देश्यों का प्रस्ताव रखते हुए 1949 में प्रधानमंत्री
लियाकत अली ने कहा था कि इस भूखंड के मुसलमान दुनिया को बताना चाहते हैं कि
इंसानियत को लगी तमाम बीमारियों का इलाज़ इस्लाम के पास है। दूसरी तरफ जनता के मन
में खौफ बैठाया जाता है कि इस्लाम खतरे में है।
दूसरी ओर सत्ता पर कई
बार सेना का कब्ज़ा रहा है,
जिसका लोकतंत्र से
वास्ता नहीं है। वह केवल प्रशासन का संचालन ही नहीं करती, बल्कि इसकी कारोबारी
भूमिका भी है। पाकिस्तान में सेना का फौजी फाउंडेशन देश की सबसे बड़ी वित्तीय
संस्था है। इस संस्था के ऊर्जा, उर्वरक, सीमेंट, खाद्य सामग्री, बिजली उत्पादन, गैस की खोज, रसोई गैस की मार्केटिंग, वित्तीय, रोजगार और सिक्योरिटी सेवाओं से जुड़े कारोबार हैं। इसका
संचालन पूर्व फौजी करते हैं। सन 1954 में एक दातव्य ट्रस्ट के रूप में गठित यह
संस्था आज देश का सबसे बड़ा कारोबारी संस्थान है। इसकी तीन कंपनियाँ फौजी सीमेंट, फौजी फर्टिलाइजर बिन कासिम और फौजी फर्टिलाइजर कंपनी
लिमिटेड पाकिस्तान शेयर बाजार में सूचीबद्ध भी हैं। जुलाई 2016 में पाकिस्तानी
सीनेट को सरकार ने सूचना दी कि देश की सेना 50 से ज्यादा कारोबारी संस्थाओं को
चलाती है, जिनकी सकल संपदा 29 अरब डॉलर से ज्यादा है।
इक्कीसवीं सदी
सन 2008 के बाद जब परवेज मुशर्रफ ने
लोकतंत्र का रास्ता पूरी तरह साफ किया और खुद हट गए, तब लगा कि शायद लोकतंत्र अब
जड़ें जमाएगा। पर चुनाव प्रचार के दौरान ही बेनजीर भुट्टो की हत्या हो गई। उस खूनी
चुनाव के बाद पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी को बहुमत मिला, मार्च 2008 में युसुफ रजा
गिलानी के प्रधानमंत्री बनने के बाद लगा कि वे पाँच साल पूरे करेंगे। पर जून 2011
में ऐसी साजिश में, जिसमें वहाँ की अदालत भी शामिल थी, चुने हुए प्रधानमंत्री को
हटा दिया गया।
परवेज मुशर्रफ ने पहले
तो फौजी-शासन चलाया फिर अपने नेतृत्व में नागरिक सरकार बनाई। ज़फरुल्ला जमाली
प्रधानमंत्री बने और संसद ने 17वाँ संविधान संशोधन पास कर दिया, जिससे राष्ट्रपति
की शक्तियाँ फिर से वापस आ गईं। उसमें एक नई बात जोड़ दी गई कि संसद भंग करने के
लिए सुप्रीम कोर्ट की अनुमति लेनी होगी। प्रधानमंत्रियों का आना-जाना लगा रहा।
अंततः 2008 के चुनाव के बाद से राजनीति का एक नया दौर शुरू हुआ, जो आज तक चल रहा
है। सन 2010 में संसद ने 18वाँ संशोधन पास किया, जिसके तहत फिर से संसदीय व्यवस्था
लागू हो गई और राष्ट्रपति के अधिकार खत्म हो गए। 2008 के बाद से 2013 और फिर 2018
में पहली बार देश में असैनिक सरकारों का सत्ता-हस्तांतरण शांतिपूर्ण तरीके से हुआ।
विदेशी हाथ
पाकिस्तानी सत्ता में हर बदलाव के
पीछे कहीं न कहीं सेना का हाथ होता है. पर इमरान खान मानते हैं कि इसबार सेना का
नहीं अमेरिका का हाथ है। सच यह भी है कि वहाँ सत्ता की राजनीति के पीछे
अमेरिकी-इशारा भी होता है। सवाल है कि इसबार इमरान और अमेरिका के बीच ऐसी क्या ठनी,
जो खुलकर अमेरिका-अमेरिका हो रहा है? वहाँ जनता के मन में राजनीति के प्रति एक प्रकार
की वितृष्णा है। इसके पीछे कुछ तो राजनेताओं के स्वार्थों का हाथ है और कुछ
वास्तविक सत्ता-प्रतिष्ठान सेना का। इसे पैदा करने में राजनेताओं की भूमिका भी है।
जैसा आंदोलन इन दिनों विरोधी दलों ने इमरान खान की सरकार के खिलाफ चलाया है, वैसा
ही आंदोलन 2016-17 में इमरान खान नवाज शरीफ के खिलाफ चला रहे थे। इमरान खां खुले
आम कह रहे थे कि सेना को सत्ता हाथ में ले लेनी चाहिए।
ऐसा नहीं कि समूचा
पाकिस्तान जेहादी। वहाँ आधुनिकता का असर
भी है। आधुनिक शिक्षा प्राप्त
नए मैनेजर, टेक्नोक्रेट, महिलाएं दूसरे
शब्दों में सिविल सोसायटी और कारोबारी लोग इससे ऊब चुके हैं। अंग्रेज़ी मीडिया में
यह वर्ग मुखर है, पर कट्टरपंथियों का दबाव भी कायम है। वहाँ
सबसे बड़ी जरूरत स्वतंत्र और ताकतवर संस्थाओं की है। जिस तरह से इसबार सुप्रीम
कोर्ट ने फैसला सुनाया है, वह भी ऐतिहासिक है। इमरान खान के कार्यकाल में सेना की
छत्रछाया में जो व्यवस्था चली, उसे ‘हाइब्रिड’ व्यवस्था कहा जा रहा है। यानी कुछ सेना की कुछ हमारी।
संकेत हैं कि सेना के भीतर भी अब दो तरह की धारणाएं पनप रही हैं। इमरान की बैटिंग
खत्म हुई, अब शहबाज़ की पाली है। आगे-आगे देखिए होता है क्या।
राष्ट्रीय सहारा हस्तक्षेप में प्रकाशित
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