इमरान खान का खिलाड़ी-करिअर विजेता के रूप में खत्म हुआ था, पर लगता है कि राजनीति का करिअर पराजय के साथ खत्म होगा। उनका दावा है कि उन्हें हटाने के पीछे अमेरिका की साजिश है। यूक्रेन पर हमले के ठीक पहले उनकी मॉस्को-यात्रा से अमेरिका नाराज है। पर बात इतनी ही नहीं है। वे देश की समस्याओं का सामना नहीं कर पाए। साथ ही सेना का भरोसा खो बैठे, जिसे पाकिस्तान में सत्ता-प्रतिष्ठान कहा जाता है। उन्होंने अपने विरोधियों को कानूनी दाँव-पेचों में फँसाने का काम किया। अब उनके विरोधी एक हो गए हैं। कोई चमत्कार नहीं हुआ, तो पूर्व प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ के भाई शहबाज़ शरीफ प्रधानमंत्री बनेंगे। शरीफ बंधुओं पर भी भ्रष्टाचार के आरोप हैं, पर पाकिस्तान में आरोप किस पर नहीं हैं। फिलहाल देश की व्यवस्था एक बड़ा मोड़ लेगी। इस मोड़ का भारत पर क्या असर होगा, इसपर विचार करने का समय है। अलबत्ता सेनाध्यक्ष कमर जावेद बाजवा ने अविश्वास-प्रस्ताव पर फैसला होने के एक दिन पहले दो महत्वपूर्ण बातें कहकर विदेश-नीति के मोड़ को स्पष्ट कर दिया है। उन्होंने इस्लामाबाद सिक्योरिटी डायलॉग में कहा है कि यूक्रेन पर रूसी हमला फौरन बंद होना चाहिए। उन्होंने पिछले साल इसी कार्यक्रम में भारत से रिश्ते सुधारने की जो पहल की थी, उसे शनिवार को भी दोहराया है। दोनों बातें महत्वपूर्ण हैं।
आज
होगा फैसला
इमरान खान की
हार पर संसद की मोहर आज लग जाएगी। उन्होंने इस हार को स्वीकार नहीं किया है और खुद
को शहीद साबित करने पर उतारू हैं। नवीनतम दावा है कि उनकी हत्या की साजिश की जा
रही है। उन्होंने देश की विदेश-नीति को दाँव पर लगा दिया है। जनता को अमेरिका के
खिलाफ भड़का कर उन्होंने पाकिस्तानी सत्ता-प्रतिष्ठान को बुरी तरह झकझोर दिया है।
अनाप-शनाप बोल रहे हैं। हालांकि 25 मार्च से संसद का सत्र शुरू हो चुका है, पर इमरान खान के इशारे पर अविश्वास-प्रस्ताव पर
विचार लगातार टलता रहा। 23 मार्च को देश में ‘पाकिस्तान-दिवस’ मनाया गया, जिसमें पहली बार 57 इस्लामिक देशों के
विदेशमंत्रियों के अलावा चीन के विदेशमंत्री वांग यी भी शामिल हुए थे। उस रोज
इमरान खान ने दावा किया कि मेरे पास एक ‘तुरुप का पत्ता’ है, जिससे मेरे विरोधी हैरत में पड़ जाएंगे।
तुरुप
का पत्ता
उन्होंने संसदीय-प्रक्रिया को दूसरा मोड़ दे दिया। 27 मार्च को उन्होंने अपने समर्थकों की विशाल रैली आयोजित की, जिसमें दो घंटे का भाषण दिया। उन्होंने दावा किया कि विदेशी ताकतें मुझे हटाना चाहती हैं, जिसका ‘सबूत’ मेरी जेब में है। फिर एक कागज हवा में लहराते हुए कहा कि यह खत है सबूत। उन्होंने उस देश का नाम नहीं बताया था, जहाँ से यह पत्र आया था, पर 31 मार्च के राष्ट्रीय-संदेश में अमेरिका का नाम भी लिया। पाकिस्तान के अमेरिका स्थित राजदूत का वह पत्र था, जिसे राजनयिक भाषा में ‘टेलीग्राम’ कहा जाता है। यह अनौपचारिक सूचना होती है, जिसमें मेजबान देश के राजनेताओं या अधिकारियों से हुई बातों का विवरण राजदूत लिखकर भेजते हैं।
अमेरिका
की नाराजगी
पत्र में
लिखा था कि अमेरिका के विदेश विभाग के एक अंडर सेक्रेटरी ने पाकिस्तानी राजदूत असद
मजीद खान से मुलाकात करके उन्हें संदेश दिया कि जब तक इमरान खान प्रधानमंत्री हैं, रिश्ते सुधरेंगे नहीं। वे हटेंगे, तो हम पाकिस्तान को माफ कर देंगे। प्रायः
मेजबान देश दूसरे देश के राजनयिकों के माध्यम से ऐसे अनौपचारिक संदेश भेजते हैं, जिन्हें डिप्लोमैटिक-चैनल से भेजना सम्भव नहीं
होता है। दूतावास उनकी बातें सुनने का जरिया होता है। संदेश का जवाब संदेश होता, पर इसे राजनीतिक अखाड़े का विषय इमरान खान ने
बनाया। इससे साबित होता है कि वे मर्यादाओं का कितना पालन करते हैं। तमाम बातें
पाकिस्तानी अधिकारियों ने भी कही होंगी। वे सामने लाई जाएंगी, तो हो सकता है कि इमरान खान को भी खिसियाना
पड़े।
नाराजगी
क्यों?
पाकिस्तान
अराजकता का शिकार है। माली हालत खराब है। महंगाई आसमान पर है। पुराने कर्जे चुकाने
के लिए नए लिए जा रहे हैं। एफएटीएफ की तलवार सिर पर लटकी हुई है। अफगानिस्तान में
उसकी भूमिका को लेकर अमेरिका नाराज है। बार-बार अनुरोध के बावजूद जो बाइडेन ने
इमरान खान से फोन पर बात नहीं की है। इमरान खान ने जोश में आकर पिछले तीन साल में
अपने प्रतिस्पर्धियों को कानूनी दाँव-पेच में फँसा जरूर लिया, पर अब वे खुद इसमें फँस गए हैं। हालांकि वे
सेना की मदद से सत्ता में आए थे, पर सेना की
तटस्थता से परेशान हैं। उन्होंने कहा है, इंसान
पक्ष लेते हैं, ‘केवल जानवर तटस्थ होते हैं।’
उन्होंने बार-बार कहा है कि हम अमेरिका के गुलाम नहीं है। हाल में ईयू के राजदूतों
ने यूक्रेन की लड़ाई में पाकिस्तान से समर्थन माँगने के लिए एक पत्र लिखा था, जिसपर इमरान ने कुछ कड़वी बातें कही हैं।
भारत
से रिश्ते
भारत के साथ
रिश्ते भी पाकिस्तान की राजनीति में महत्वपूर्ण होते हैं। पिछले साल पाकिस्तानी
सेना ने दोनों देशों के बीच व्यापार की पहल की थी, पर
इमरान खान ने पहले उसे स्वीकार करके और फिर ‘यू-टर्न’ लेकर सारे मामले को
गड्ड-मड्ड कर दिया। पिछले साल फरवरी में नियंत्रण रेखा पर गोलाबारी रुकने के बाद
से शांति बनी हुई है। हाल में भारत की एक मिसाइल दुर्घटनावश पाकिस्तान में गिरने
के बावजूद तनाव नहीं बढ़ा। इससे लगता है कि सैन्य-स्तर पर बैकरूम सम्पर्क बेहतर
काम कर रहा है। जहाँ तक भारत के साथ रिश्तों की बात है, सम्भावना है कि तल्खियाँ कम होंगी, क्योंकि नवाज़ शरीफ के कार्यकाल में दोनों
देशों के बीच बातचीत का माहौल बन रहा था। पिछले कुछ समय से पाकिस्तान की सेना भी
भारत से कारोबार के पक्ष में नजर आ रही है।
फौरी
बदलाव
शहबाज़ शरीफ
प्रधानमंत्री बनेंगे और उनका बेटा हमज़ा शहबाज़ पंजाब का मुख्यमंत्री बनेगा। सन
2020 में नवाज शरीफ और उनके भतीजे हमज़ा शरीफ पर मुकदमे चलाए गए थे, जिसमें नवाज शरीफ को सजा सुनाई गई थी। इसके बाद
ब्रिटेन में उनके बैंक एकाउंट को फ़्रीज़ कर दिया गया था। ब्रिटेन की अपराध जाँच
एजेंसी ने बाद में जाँच की,
जिसमें कोई
गड़बड़ी नहीं पाई गई। अलबत्ता पाकिस्तान में उनके खिलाफ मामले बदस्तूर हैं, इसलिए वे लंदन में ही रह रहे हैं और पाकिस्तान
की गद्दी पर उनके छोटे भाई को बैठने का मौका मिल रहा है। यह व्यवस्था देश की दूसरी
सबसे बड़ी पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी और अन्य विरोधी दलों के एक समझौते के आधार पर
की जा रही है, जिसमें दूसरे राज्यों और
प्रशासनिक-मशीनरी से जुड़ी बातें हैं। इमरान जब तक दहलीज पर हैं, तबतक संशय है। उनके हटने के बाद एक नया अध्याय
शुरू होगा।
अब
क्या होगा?
सवाल है कि इमरान के हटने के बाद क्या होगा?
सवा साल के लिए क्या नई सरकार बनेगी, या
चुनाव होंगे? इसके अलावा पीएमएल-एन और पाकिस्तान पीपुल्स
पार्टी इस वक्त एकसाथ खड़े नजर आते हैं, क्या भविष्य में भी वे साथ रहेंगे? दोनों प्रतिस्पर्धी पार्टियाँ हैं, दोनों अपने अस्तित्व की रक्षा के
लिए साथ-साथ हैं। इनके हितों के भविष्य का पता नहीं। पीएमएल-एन के भीतर शहबाज़
शरीफ और नवाज़ शरीफ के रिश्ते कितने अच्छे बने रहेंगे, पता नहीं। नवाज़ शरीफ की
बेटी मरियम ने इमरान खान के खिलाफ लड़ाई का नेतृत्व किया है। उनकी राजनीतिक
महत्वाकांक्षाएं क्या हैं, इसका भी पता नहीं।
इमरान हार मान लेंगे?
इमरान क्या आसानी से हार मान लेंगे? उनके खिलाफ मनी लाउंडरिंग का मुकदमा चलाए जाने की तैयारियाँ भी हैं।
उन्हें जेल में डालने के इरादे भी हैं, पर उन्होंने देश की जनता के एक बड़े, तबके
को अपने पक्ष में कर रखा है। इसके लिए उन्होंने अमेरिका के खिलाफ माहौल बनाया है
साथ ही इस्लाम के कार्ड का वे खुलकर इस्तेमाल कर रहे हैं। परवेज़ मुशर्रफ के हटने
के बाद शुरू हुई लोकतांत्रिक-व्यवस्था में मजहबी-कार्ड का इस्तेमाल कम हो गया था। राजनीति
में यह समझदारी पैदा होती हुई नजर आई कि धार्मिक नारों की ज़रूरत नहीं है। लेकिन
नवाज शरीफ के कार्यकाल में ही ख़त्म-ए-नुबूवत (आख़िरी पैगंबर) के नारे पर
तहरीक-ए-लब्बैक ने जो आंदोलन शुरू किया, उससे मज़हब फिर से सामने आ गया। इमरान खान
ने उसे बढ़ावा ही दिया है।
हरिभूमि में प्रकाशित
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